शनिवार, 1 जनवरी 2011

चरैवेति, चरैवेति

घोर अंधेरे में जब हाथ को हाथ नहीं सूझता, झरना अपने अविरल प्रवाह के साथ कल-कल निनाद करता बढ़ता चला जा रहा था। एकांत निर्जन स्थान पर ऊचाई से आकर गिरने वाले उस झरने को तनिक भी विश्राम नहीं। एक पहाड़ की उपत्यिका ने कहा-‘‘निर्झर ! तुम्हें थकावट नहीं लगती। थोड़ा रूको, कुछ विश्राम भी तो कर लिया करो। ऐसा भी क्या परिश्रम !’’ झरने ने उपत्यिका पर स्नेहपूर्ण दृष्टि डाली और जवाब दिया-‘‘बहन ! मुझे जिस महासागर से मिलना हैं, उसकी दूरी अनंत हैं। न जाने कितने दिन उस जलराशि को वहां तक पहुंचने में लग जाएं। रूकूंगा तो भटक जाउंगा। चलते रहने से वह दूरी कुछ कम तो होगी।’’ यह कहकर झरना आगे बढ़ चला। 

चरैवेति, चरैवेति यही एक मात्र सूत्र हैं।
जीवन में ऐसे ही लोग सफल होते हैं, 
जो निरंतर लक्ष्य की ओर चलते रहते हैं।

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