सिंख सम्प्रदाय के चौथे गुरू श्री रामदास जी के अनेक शिष्य थे। सभी की अपनी-अपनी विशेषताएं थी। उनमें से एक शिष्य ऐसे से थे, जिनकी विशेषता श्रद्धा और आज्ञापालन ही थी। इनका नाम था-अर्जुनदेव।
अर्जुनदेव ने दीक्षा लेकर आश्रम में प्रवेश किया, तो उन्हें बर्तन माजँने का काम सौंपा गया। वे सवेरे से शाम तक बर्तन माँजने में लगे रहते। अन्य शिष्य जबकि धर्म चर्चा और गुरू पूजा में लगे रहते, तब भी अर्जुनदेव अपने नियत कम्र के अतिरिक्त दूसरी बात नही सोचते। बर्तन माजँना ही उनके लिए सबसे बड़ी साधना बना हुआ था । गुरू ने यही आदेश तो उन्हें दिया था।
गुरूजी के अवसान का समय आया। सब शिष्य यह आशा जगाये हुए थे कि बढ़ी चढ़ी योग्यता के कारण उन्हें ही उत्तराधिकार मिलेगा, वे गुरू की गद्दी पर बैठेंगे। गुरूदेव अपना घोषणापत्र लिख चुके थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् ही उसे खोला जाना था।
समय आया। गुरूदेव दिवंगत हुए। घोषणा पत्र खुला। उसमें अर्जुनदेव को उत्तराधिकारी माना गया था। सुनने वालों ने बड़ा आश्चर्य किया कि इस सबसे कम योग्यता वाले को यह पद कैसे मिला ? समाधान करने वालो ने समझाया कि श्रद्धा और अनुशासन- यही शिष्य की सबसे बड़ी योग्यता है। गुरूदेव की परख ठीक ही थी और निर्णय भी ठीक ही था।
अर्जुनदेव सिंख धर्म के पाँचवें गुरू हुए, उन्होनें अपनी योग्यता के बल पर नही, श्रद्धा के बल पर सिख धर्म की भारी सेवा की और प्रगति की।
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