स्नेह सलिला, परम वन्दनीया, शक्तिस्वरूपा, सजल श्रद्धा की प्रतिमूर्ति माता भगवती देवी शर्मा आश्विन कृष्ण चतुर्थी, संवत १९८२ को (तदनुसार २० सितम्बर १९२६) को प्रातः आठ बजे आगरा नगर के श्री जशवंत राव जी के घर चौथी संतान के रूप में जन्मीं ।
ऐश्वर्य सम्पन्न घराने में पली-बढ़ी माताजी का विवाह आगरा से २५ किमी.दूर आँवलखेड़ा में एक जमींदार परिवार पं.रूपकिशोर के सुपुत्र गायत्री साधक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्रीराम मत्त (आज के युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा आचर्य) के साथ हुआ । सन् १९४३ में विवाह के बाद माता जी ससुराल पहुँची, जहाँ आचार्य जी ओढ़ी हुई गरीबी का जीवन जी रहे थे । जैसा पति का जीवन वैसा ही अपना जीवन, जहाँ उनका समर्पण उसी के प्रति अपना भी समर्पण, इसी संकल्प के साथ वे अपने धर्म निर्वाह में जुट गयीं ।
उन दिनों आचार्य जी के २४ महापुरश्चरणों की शृंखलाएँ चल रही थीं । वे जौ की रोटी और छाछ पर निर्वाह कर रहे थे । माता जी ने जौ की रोटी व छाछ तैयार करने से अपने पारिवारिक जीवन की शुरुआत की । कुछ ही वर्ष आँवलखेड़ा में बीते थे कि माताजी अपने जीवन सखा के साथ मथुरा आ गयीं । यहाँ पूज्य गुरुदेव अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका अखण्ड ज्योति का सम्पादन करते, पाठकों की वैचारिक, पारिवारिक, आध्यात्मिक आदि समस्याओं का समाधान पत्र व्यवहार एवं पत्रिका के माध्यम से करते और माताजी आगन्तुकों का आतिथ्य कर घर में जो कुछ था, उसी से उनकी व्यवस्था जुटातीं ।
मात्र २०० रुपये की आय में दो बच्चे, एक माँ, स्वयं दोनों इस तरह कुल पाँच व्यक्तियों के साथ प्रत्येक माह अनेक आने-जाने वालों, अतिथियों का हँसी-खुशी से सेवा सत्कार करना, उनके सुख-दुःख को सुनना तथा सुघर गृहणी की भूमिका निभाना केवल माताजी केवश का था । जो भी आता उसे अपने घर जैसा लगता । आधी रात में दस्तक देने वाले को भी माताजी बिना भोजन किये सोने न देतीं । माताजी की संवेदना का एक स्पर्श पाकर व्यक्ति निहाल हो जाता ।
प्रारंभिक दिनों में अखण्ड ज्योति पत्रिका घर के बने कागज पर हैण्ड प्रेस से छपती थी । माताजी उसके लिए हाथ से कूटकर कागज तैयार करतीं उसे सुखातीं, फिर पैर से चलने वाली हैण्ड प्रेस द्वारा खुद पत्रिका छापतीं । उन पर पते लिखकर डिस्पैच करतीं । यह सभी कार्य माताजी की दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया था । बच्चों की देखभाल, पढ़ाई-लिखाई आदि की जिम्मेदारी थी ही । इसी श्रमपूर्ण जीवन ने माताजी को आगे चलकर परम वन्दनीया माताजी के भावभरे वात्सल्यपूर्ण संबोधन से नवाजा और वे जगन्माता बन गयीं ।
माताजी कहती-'हमारा अपना कुछ नहीं, सब कुछ हमारे आराध्य का है, समाज राष्ट्र के लिए समपत है ।' अवसर आने पर वे इसे सत्य कर दिखाती थीं । उन दिनों आचार्य श्री के मस्तिष्क में गायत्री तपोभूमि मथुरा की स्थापना का तानाबाना चल रहा था, परन्तु पैसे का अभाव था । ऐसे समय में माताजी ने अपनी ओर से पहल करके अपने पिता द्वारा प्रदत्त सारे जेवर बचकर निर्माण कार्य में लगाने के लिए सौंप दिये । जो आज असंख्य अनुदानों-वरदानों एवं करोड़ों परिजनों के रूप में फल-फूल रहा है ।
साधारण गृहणी एवं अपने पति के प्रति समपत श्रमशील महिला के रूप में देखने वाली माताजी का असाधारण स्वरूप अंदर ही अंदर पकता तो रहा, परन्तु उभर कर तब आया, जब आचार्यश्री सन् १९५९ में दो वर्ष के प्रवास पर हिमालय तप-साधना के लिए गये । माताजी के जीवन का यह अकेलापन कठिनाइयों भरा था, परन्तु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, अपितु अपने वर्तमान दायित्वों का निर्वाह करते हुए उन्होंने अखण्ड ज्योति पत्रिका का लेखन, सम्पादन एवं पाठकों का मार्गदर्शन आदि वे सभी कार्य बड़ी कुशलता से करना शुरु किया, जो आचार्यश्री छोड़कर गये थे । संपादन के प्रति उनके सूझबूझ भरे दृष्टिकोण ने दो ही वर्ष में अखण्ड ज्योति के पाठकों की संख्या कई गुना बढ़ा दी । अखण्ड ज्योति, युग निर्माण योजना, युग शक्ति गायत्री, महिला जागृति अभियान सहित कुल १३ पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक १४ लाख पाठकों का व्यक्तित्व निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण एवं राष्ट्र-विश्व निर्माण संबंधी मार्गदर्शन करती रहीं ।
सन् १९७१ में युग तीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार की स्थापना हो चुकी थी । गायत्री परिवार लाखों से करोड़ों की संख्या में पहुँच रहा था । माताजी ने जहाँ कुशल संगठक के रूप में इस परिवार की बागडोर सँभाला, वहीं उन्होंने नारी जागरण आन्दोलन द्वारा देश-विदेश में नारियों को पर्दाप्रथा, मूढ़मान्यताओं से निकालकर उन्हें न केवल घर, परिवार समाज में समुचित सम्मान दिलाया, अपितु धर्म-अध्यात्म से जोड़कर वैदिक कर्मकाण्ड परंपरा में दीक्षित एवं पारंगत करके उन्हें ब्रह्मवादिनी की भूमिका संचालित करने योग्य बनाया । आज उन्हीं के पुरुषार्थ से देश-विदेश की लाखों नारियाँ यज्ञ संस्कारों का सफल संचालन कर रही हैं ।
विकट से विकट परिस्थितियों में भी माताजी संघर्ष पथ पर डटी रहीं । जून १९९० में आचार्य श्री के महाप्रयाण के बाद की घड़ियाँ कुछ ऐसी ही कठिन थीं । विक्षोभ की व्याकुलता तो थी, परअसीम संतुलन को बनाये रखा । अपने करोड़ों परिजनों एवं हजारों आश्रमवासियों को ढाँढस बँधाया और संगठन की मजबूती एवं विस्तार के साथ उसके उद्देश्य को सम्पूर्ण मानवता तक पहुँचाने के लिए अक्टूबर ९० में ही शरद पूर्णिमा को नए शंखनाद की घोषणा की । १५ लाख लोगों के विराट् जन समूह को आश्वस्त करते हुए कहा- 'यह दैवी शक्ति द्वारा संचालित मिशन आगे ही बढ़ता जायेगा । कोई भी झंझावत इसे हिला नहीं सकेगा । देवसंस्कृति-भारतीय संस्कृति, विश्व संस्कृति बनेगी ।'
इसी के बाद माताजी अपने नवीन कार्यक्रम में जुट गयी । जहाँ एक ओर पूरे विश्व में सम्प्रदायवाद, जातिवाद दहाड़ रहा था, वहीं उन्होंने तथाकथित धर्माडम्बरियों को ललकारते हुए कुशल सूझबूझ से २६ अश्वमेध यज्ञों के माध्यम से गायत्री (सत्चिन्तन),यज्ञ (सत्कर्म) के निमित्त वातावरण बनाया, सभी मतों, धर्मों, जातियों के लोगों को एक मंच पर लाकर समाज के लिए सोचने हेतु संकल्पित कराया और सभी को छुआछूत के भेदभाव से ऊपर उठकर एक पंक्ति में बैठकर भोजन करने पर सहमत किया ।
माताजी ने अश्वमेघ शृंखला के क्रम में सन् १९९३ में ही तीन बार विविध देशों में जाकर भारतीय संस्कृति का शंखनाद किया । आज भी आदर्श और दहेज रहित विवाह, परिवारों में संस्कार, कुरीति उन्मूलन, पर्यावरण संरक्षण आदि आन्दोलनों से जुड़कर लाखों लोग राष्ट्र निर्माण में लगे हैं यह उनके विशाल मातृत्व का परिणाम है, इसीलिए गुरुदेव भी स्वयं उन्हें माताजी कहकर पुकारते थे ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें