मंगलवार, 30 जून 2009

मनुष्य

1) परिवर्तन से डरना और संघर्ष से कतराना मनुष्य की सबसे बडी कायरता है।
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2) परीक्षा की घडी ही मनुष्य को महान् बनाती हैं, विजय की घडी नही।
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3) स्वावलम्बन, नियमितता और अनुशासन मनुष्य के व्यक्तित्व को संवारते तथा भविष्य को उज्ज्वल बनाते है।
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4) उद्योगी मनुष्य की सहायता करने के लिये प्रकृति बाध्य है।
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5) उत्तम पुस्तको के सहारे मनुष्य भवसागर की भयंकर लहरों में भी सरलता से तैरकर उसें पार कर सकता है।
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6) व्यस्त मनुष्य को ऑसू बहाने के लिये अवकाश नही है।
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7) वह मनुष्य कम विश्वासपात्र हैं जो स्वयं अपना गुप्त सलाहकार नहीं है।
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8) वह मनुष्य सबसे अधिक धनवान हैं, जिसका उल्लास सबसे सस्ता है।
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9) चाह रहित मनुष्य का हृदय कोमल होता हैं। चाह वाले का हृदय कठोर होता है।
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10) चौरासी के चक्र से निकलने का दरवाजा मनुष्य शरीर में ही हैं परन्तु भोग और संग्रह की खुजली चलने से यह दरवाजा हाथ से निकल जाता है।
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11) तीन सबसे बडी उपाधियॉं जो मनुष्य को दी जा सकती हैं वह हैं-शहीद, वीर और सन्त।
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12) जो मनुष्य एक पाठशाला खोलता हैं वह संसार का एक जेलखाना बन्द कर देता है।
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13) जो मनुष्य जितनी अपने स्वार्थ की आहुति करता हैं, उसकी शक्ति उतनी ही बढती है।
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14) जो मनुष्य निश्चित को छोडकर अनिश्चित के पीछे भागता हैं उसका निश्चित कार्य नष्ट हो जाता हैं और अनिश्चित तो नष्ट हैं ही।
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15) जो जिम्मेदारी मिले, उसे ही सम्मान पूर्वक निबाहना मनुष्य का सर्वोत्तम कर्तव्य है।
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16) ध्वंस में नहीं सृजन में मनुष्य का शौर्य परखा जाता हे।
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17) यदि मनुष्य सीखना चाहे तो उसकी हर एक भूल उसे कुछ न कुछ शिक्षा अवश्य दे सकती है।
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18) योजना कैसे हो ? अगर आप एक साल के लिये योजना करना चाहते हैं, तो आप अनाज बोइये। अगर आप दस साल के लिये योजना करना चाहते हो तो वृक्ष का बीज बोइये। और अगर आप सैकड़ों सालो के लिये योजना करना चाहते हैं तो मनुष्य निर्माण के बीज बोइये।
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19) कठिनाइयॉ एक खराद की तरह हैं, जो मनुष्य के व्यक्तित्व को तराशकर चमका दिया करती है।
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20) कोई भी मनुष्य बहुत-सी और बडी-बडी गलतियॉं किये बगैर कभी महान् अथवा भला नहीं बना है।
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21) मनुष्य की कल्पना शक्ति मन की सृजन शक्ति है।
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22) मनुष्य की महत्वाकांक्षाओ को चूसने वाला ``भय´´ महाराक्षस है । भय की मनोस्थिति हमारे शुभ्र विचारों साहसपूर्ण प्रयत्नों तथा उत्तम योजनाओं को एक क्षण में चूर्ण-चूर्ण कर डालती है ।
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23) किसी व्यक्ति की महानता की परख यह हैं कि वह अपने से छोटो के लिये क्या सोचता हैं और क्या करता रहा ?
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24) विश्व हटकर उस व्यक्ति को राह देता हैं जो जानता हैं कि वह कहॉं जा रहा है।

मनुष्य

1) मानव कर्म से ब्राह्मण होता हैं, कर्म से क्षत्रिय होता हैं, कर्म से वैश्य होता हैं, और कर्म से शुद्र होता है।
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2) मानव की सबसे बडी आवश्यकता शिक्षा नहीं, चरित्र हैं और यहीं उसका सबसे बडा रक्षक है।
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3) मानव मात्र एक समान, एक पिता की सब सन्तान।
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4) मानवी गरिमा के प्रति आस्था को ही आस्तिकता कहते हैं।
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5) मानवीय मूल्यो की दृढ अवधारणा एवं स्थापना में मानव कल्याण निहित हैं।
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6) मानवीय मूल्यों में तुलसीदास जी ने लोकहित को सर्वोच्च मान्यता प्रदान की है।
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7) मानवता के अनन्य पुजारी, ब्रह्म ऋषि, गायत्री माता के वरद पुत्र, प्राणि मात्र के सहज सहचर, युगपुरुष, युगदृष्टा, युगप्रर्वतक, विश्वबन्धुत्व एवं विश्वशान्ति के समर्थक-पोषक, अभिनव विश्वामित्र, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ परमपूज्य गुरुदेव पं श्रीरामशर्मा आचार्य के श्रीचरणों में सादर नमन्।
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8) किसी भी वेद, पुराण, बाइबिल, कुरान में रेगिस्तान नाम का शब्द नहीं मिलता हैं, यह सभ्य मानवों की देन है।
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9) जितना हमे मॉंगने में उत्साह हैं, उससे हजार गुना देने में उत्साह भगवान को और महामानवों को होता हैं। कठिनाई एक पडती हैं, सदुपयोग कर सकने की पात्रता विकसित हुयी है या नही।
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10) निराशा वह मानवीय दुर्गण हैं, जो बुद्धि को भ्रमित कर देता है।
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11) भाषा और मानव का विकास एक दूसरे का पूरक हैं। भाषा जितनी उन्नत होगी, सभ्यता उतनी ही विकसित होगी।
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12) भूल करना मानव की सहज प्रवर्ति हैं और भूल सुधार मानवता का परिचायक है।
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13) भलाई चाहना पशुता हैं, भलाई करना मानवता है, भला होना दिव्यता है।
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14) सर्वोत्तम मानवीय मूल्य - अभय, तप, सत्य, अहिंसा, सरलता, त्याग, शान्ति , दया, क्षमा, धैर्य एवं तेज है।
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15) देव संस्कृति वही कहाती, जो मानव में देवत्व जगाती।
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16) वीरता के साथ जब बुद्धि नहीं रह जाती तो मानव, मानव न रहकर भेड़िया बन जाता है।
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17) चरित्र का अर्थ हैं-महान् मानवीय उत्तरदायित्वों की गरिमा समझना और उसका हर कीमत पर निर्वाह करना।
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18) जाति वर्ग का नहीं महत्व, मानवता हैं असली तत्व।
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19) जो न पूर्ति अपनी कर पाते, वे मानव नर पशु कहाते।
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20) अब तक का इतिहास बताता, मानव हैं निज भाग्य विधाता।
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21) अल्पभाषी सर्वोत्तम मानव है।
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22) कल्पना मानवीय चेतना की दिव्य क्षमता हैं। यही वह शक्ति हैं, जिसके प्रयोग से मनुष्य देह-बन्धन में रहते हुए भी असीम और विराट तत्त्व से संपर्क कर पाता है। इसी के उपयोग से उसके जीवन में नई अनुभूतियों के द्वार खुलते है, चेतना में नवीन आयाम उद्घाटित होते है। इन्हीं से नवसृजन के अंकुर फूटते है। कलाओं की सृष्टि होती है, अनुसंधान की आधारशिला रखी जाती है। उपलब्धियॉं लौकिक हो या अलौकिक, इनके पथ पर पहला पग कल्पनाओं के बलबूते ही रखा जाता है।
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23) भीतर से हर व्यक्ति के अन्दर देवत्व भरा पडा हैं, आवश्यकता मात्र उसे उभारने की है। मनुष्य का स्वाभाविक रुझान ही उत्कृष्टतापरक हैं। वह भटका हुआ देवता हैं, उठा हुआ पशु नहीं।
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24) भूल सभी से हो जाती हैं, पर उस भूल को स्वीकार करना और उसका प्रायश्चित करना यह तथ्य किसी भी मनुष्य की महानता का सबसे बडा प्रमाण है।

कर्म

1) करने वाले को आज तक किसने रोका हैं। रोध, अनुरोध, प्रतिरोध जैसे हेय शब्द कर्मवीरों के कोष में नहीं, निकम्मो की जीभ पर चढे होते है।
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2) केवल कर्महीन ही ऐसे हैं जो भाग्य को कोसते हैं और जिनके पास शिकायतो का बाहुल्य है।
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3) मन, वचन और कर्म से किसी को कष्ट मत पहुंचाइये।
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4) सद्चिन्तन और सद्कर्म द्वारा उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकते है।
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5) अकर्मण्य पिछडते हैं और प्रगति से वंचित रहते है।
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6) अकर्मण्यता दरिद्रता की सहेली हैं। जहॉं अकर्मण्यता रहेगी वहॉं किसी न किसी प्रकार दरिद्रता जरुर पहुँच जायेगी।
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7) महान् कार्य प्रारम्भ में छोटे ही होते है।
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8) महान् कार्य शक्ति के बल पर नहीं, दूरदर्शिता के बल पर सम्पन्न होते है।
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9) जिन कार्यों का आरभ्भ ही नहीं किया जाता, वे कार्य कभी भी सिद्ध नहीं हो सकते।
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10) परहित के लिये थोडा सा कार्य करने से भीतर की शक्तियॉं जाग्रत होती है।
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11) परोपकार का प्रत्येक कार्य स्वर्ग की ओर एक कदम है।
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12) प्रकृति कोई कार्य व्यर्थ नही करती है।
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13) प्रतिभावान वह हैं जिसमें समझदारी और कार्य शक्ति विशेष हो।
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14) राग-द्वेष उत्पन्न होने पर भी उनके वश में होकर कार्य न करना बल्कि शास्त्र, भगवान तथा सन्तो के आज्ञानुसार ही कार्य करना चाहिये।
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15) शुभ कार्य कभी कल पर नहीं छोडना चाहिये, तथा अशुभ कभी आज नहीं करना चाहिये।
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16) सर्वोत्तम कार्य वह हैं जिसमे सबका भला होवे।
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17) जो कार्य तुम आज कर सकते हों उसे कल पर कदापि मत छोडे।
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18) जो पुरुष कार्य पूर्ण होने तक कार्यरत रहते है, उन्हे ही विजयश्री मिलती है।
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19) जो उपहास विरोध पचाते, वही नया कार्य कर पाते।
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20) कुरीति के अधीन रहना कायरता हैं और उसका विरोध करना पुरुषार्थ।
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21) मन को कुमार्ग से रोकना ही सबसे बडा पुरुषार्थ है।
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22) किया हुआ पुरुषार्थ ही देव का अनुसरण करता हैं, किन्तु पुरुषार्थ न करने पर देव किसी को कुछ नहीं दे सकता।
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23) पुरुषार्थी बढते हैं और सिद्धिया पाते है।
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24) वही जीवित हैं, जिसका मस्तिष्क ठंडा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर है।

कर्म

1) धन्य हैं वह पुरुष जो काम करने से कभी पीछे नहीं हटता, भाग्य लक्ष्मी उसके घर की राह पूछतें हुये आती है।
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2) कार्य करने से पूर्व सोचना बुद्धिमता और काम पूर्ण होने पर सोचना मूर्खता है।
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3) कार्य को उदारता पूर्वक करना ही उसका इनाम पाना है।
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4) काम खुद करो, आराम दूसरों को दो।
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5) काम का आरम्भ करो और अगर काम शुरु कर दिया हैं तो उसे पूरा करके छोडो।
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6) काम के साथ अपने को तब तक रगड़ा जाये, जब तक कि संतोष की सुगंध न बिखरने लगे।
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7) काम उद्यम से सिद्ध होते हैं, मनोरथ से नही।
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8) मालिक बारह घण्टे काम करता हैं, नौकर आठ घण्टे काम करता हैं, चोर चार घण्टे काम करता हैं। हम सब अपने आप से पूंछे कि हम तीनो में से क्या है।
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9) हम कोई ऐसा काम न करे, जिसमें अन्तरात्मा ही अपने को धिक्कारे।
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10) हम अपने राष्ट्र में सदा जागरुक रहे और राष्ट्र रक्षा के काम में सदा अग्रणी रहे।
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11) हर काम को पूरी लगन से करेंगे तो कभी पछताना नहीं पड़ेगा।
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12) उस दिन का आकलन कीजिये जिसके अन्त में आप बेहद सन्तुष्ठ थे। यह वह दिन नहीं था जब आप बिना कुछ किये यहॉं-वहॉं घूमते रहे। बल्कि यह वह दिन था जब आपके पास करने के लिये बहुत काम था और आपने वह सभी पूरा कर लिया।- म्रागरेट थेचर
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13) उतावली न करो। प्रकृति के सब काम एक निश्चित गति से होते हैं।
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14) व्यवस्थित होने का मतलब हैं किसी काम को करने से पहले काम करना, ताकि जब आप इसे करें तो यह उलझन भरा न रहे।
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15) काम टालने के तरीके खोजने के बजाय काम करने के तरीके खोजे। काम करने के नए और बेहतर तरीके खोजते रहिये। खुद से पूछिए, क्या में अपनी मानसिक क्षमता का उपयोग इतिहास रचने में कर रहा हूँ , या इतिहास रटने में ?
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16) अपना काम अपने हाथ से करो।
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17) अगर आप अपने दिमाग को इन तीन बातों - काम करने, बचत करने और सीखने के लिये तैयार कर लेते हैं तो आप उन्नति कर सकते है।
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18) अगर आपने हवा में महल बनाया हैं तो कोई खराब काम नहीं किया। पर अब उसके नीचे नींव बनाइये।
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19) घर में स्वर्ग सा वातावरण बनाना चाहते हो तो दो काम करो। मस्तक पर आइस फेक्टरी, और जीभ पर शुगर फैक्टरी।
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20) षटकर्म :- स्नान, आतिथ्य, यज्ञ, संध्या, पंच देवता की पूजा, तप।
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21) कर्म का बीज बोना अत्यन्त सरल हैं, परन्तु उसका भार ढोना अत्यन्त दुष्कर है।
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22) कर्म का मूल्य उसके बाहरी रुप और बाहरी फल में इतना नहीं हैं जितना कि उसके द्वारा हमारे अन्दर दिव्यता की वृद्धि होने में है।
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23) कर्म ही पूजा हैं, और कर्तव्य पालन भक्ति।
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24) कर्मनिष्ठता से पुरुषार्थ उसी तरह दैदिप्यमान होता हैं, जिस प्रकार अग्नि में तपने से कुन्दन।

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