बुधवार, 13 जुलाई 2011

पढे-लिखों के वास्ते, खुले हजारों रास्ते।

1) भगवान की दुकान प्रातः चार बजे से छः बजे तक ही खुलती है।
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2) भगवान का होकर भगवान के नाम का जप करना चाहिये।
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3) भगवान को घट-घट का वासी और न्यायकारी मानकर पापों से हर घडी बचते रहना ही सच्ची भक्ति है।
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4) भगवान के खेत ( दुनिया ) में जो बोओगे वही तो काटोगे।
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5) भगवान के सामने सच्चे हृदय से अपने दोष स्वीकार करने से उनका परिमार्जन हो जाता है।
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6) भगवान शिव के वचन हैं कि गुरुदेव का ध्यान सभी तरह के आनंद का प्रदाता हैं । उससे सांसारिक सुखों के साथ-साथ मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। इसलिए प्रत्येक शिष्य का यह पावन संकल्प होना चाहिए कि ‘‘ मैं अपने सद्गुरु का ध्यान करूँगा।’’
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7) भगवान शिव के मस्तक से गंगा का प्रवाहित होना उत्कृष्ट विचारधारा के प्रवाह का संकेत है।
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8) भगवान हमेशा मनुष्यों के कर्मो की परीक्षा लिया करते हैं कि इस के विचारों में कुछ सच्चाई हैं या नकलीपन ही है।
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9) भगवान पर विश्वास का अर्थ हैं - अपने पुरुषार्थ और उज्ज्वल भविष्य पर विश्वास करना।
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10) भगवान तभी सहायता करते हैं जब मानवीय पुरुषार्थ समाप्त हो जाते है।
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11) भगवान आदर्शो का समुच्चय है।
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12) भगवान् की कृपा को देखो, सुख-दुःख को मत देखो। माता कुन्ती ने विपत्ति का वरदान माँगा था।
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13) भगवान् की वाणी गीता हैं, और भक्त की वाणी रामायण है। शिक्षा दो प्रकार से दी जाती हैं-कहकर और करके। गीता में कहकर शिक्षा दी गयी है और रामायण में करके शिक्षा दी गयी है।
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14) भगवान् के प्रत्येक विधान में प्रसन्न रहने वाले के भगवान् वश में हो जाते है।
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15) भगवान् ने सिद्ध (निषादराज), साधक (विभीषण) और संसारी (सुग्रीव)-तीनो को अपना मित्र बनाया है।
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16) भगवत्प्राप्ति के लिये मनुष्य को पात्र बनना चाहिये।
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17) भलाई करना कर्तव्य नहीं, आनन्द हैं। क्योंकि वह हमारे सुख में वृद्धि करता है।
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18) भलाई चाहना पशुता हैं, भलाई करना मानवता है, भला होना दिव्यता है।
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19) प्यार, प्यार और प्यार यही हमारा मन्त्र हैं। आत्मीयता, ममता, स्नेह और श्रद्धा यही हमारी उपासना है।
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20) पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवों का आधार गाय को माना जाता है।
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21) पक्षपात से गुण दोष में और दोष गुण में बदल जाते है।
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22) पढे-लिखों के वास्ते, खुले हजारों रास्ते।
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23) पढने से गुनना श्रेष्ठ हैं, कहने से करना श्रेष्ठ हैं, ज्ञान से अनुभव श्रेष्ठ हैं, शब्द से अनुभूति श्रेष्ठ हैं, भावना से कर्तव्य श्रेष्ठ हैं, दान से दक्षिणा श्रेष्ठ हैं, दमन से संयम श्रेष्ठ हैं, त्याग से अनासक्ति श्रेष्ठ हैं, स्मरण से ध्यान श्रेष्ठ हैं, सत्य से अहिंसा श्रेष्ठ हैं, और अपनी आत्मा के समान ही सबकी आत्मा समझना श्रेष्ठ है।
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24) पंचांग के पाँच अंग - योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि।

अखण्ड ज्योति मई 1987































अखण्ड ज्योति अप्रेल 1987






























भगवान की भाषा प्रेम की हैं।

1) भीतरी दोषो को दूर करो।
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2) भरे बादल और भरे वृक्ष नीचे झुकते हैं, सज्जन ज्ञान और धन पाकर विनम्र बनते है।
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3) भाषा से शिष्टता एवं विनय कभी नहीं छोडनी चाहिये।
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4) भाषा और मानव का विकास एक दूसरे का पूरक हैं। भाषा जितनी उन्नत होगी, सभ्यता उतनी ही विकसित होगी।
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5) भारत एक आध्यात्मिक राष्ट्र हैं। यहा के राष्ट्रीय जीवन की समस्याओं का समाधान , भावी चुनौतियों का उत्तर आध्यात्मिक आंदोलनो से ही निकलेगा। आध्यात्मिक जागरण भारत में राष्ट्रीय जागरण की पहली और अनिवार्य शर्त हैं। भारतीय समाज का सामुहिक मन आध्यात्मिकता में रचता-बसता है।
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6) भारत की नारी जैसी दुनिया भर में नाहीं, कोई मंगल काम हो नारी बिन हो नाहीं।
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7) भावना का परिष्कार ही वस्तुतः आत्मबल का अभिवर्द्धन करता है।
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8) भोजन करके करिये मूत्र, गुर्दा स्वस्थ रहे ये सूत्र।
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9) भोजन स्वास्थ्य की जरुरत हैं, स्वाद की नहीं।
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10) भोगने से भोग की इच्छा शांत नहीं, प्रज्वलित ही होती है।
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11) भाग्य एक कोरा कागज हैं उस पर जो चाहों सो लिख सकते हो।
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12) भाग्य पर वह भरोसा करता हैं जिसमें पौरुष नहीं होता है।
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13) भाग्य पर नहीं चरित्र पर निर्भर रहो।
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14) भाग्योदय के लिए सबसे अच्छा अवसर यही हैं कि अपने जीवन की एक-एक घड़ी का ठीक उपयोग किया जाए।
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15) भागवत में ज्ञान और वैराग्य को भक्ति के बेटे कहा है।
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16) भूल करना मानव की सहज प्रवृत्ति हैं और भूल सुधार मानवता का परिचायक है।
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17) भूल सभी से हो जाती हैं, पर उस भूल को स्वीकार करना और उसका प्रायश्चित करना यह तथ्य किसी भी मनुष्य की महानता का सबसे बडा प्रमाण है।
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18) भूल सुधार मनुष्य का सबसे बडा विवेक है।
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19) भूल तब होती हैं, जब उपेक्षा होती है।
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20) भूले वे हैं जो अपराध की श्रेणी में नहीं आती, पर व्यक्ति के विकास में बाधक है।
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21) भगवान यदि आता हैं तो वह श्रेष्ठ चिन्तन के रुप में ही आता है।
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22) भगवान कृष्ण ने कहा हैं, सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।। अर्थात् हे अर्जुन ! यह सृष्टि श्रद्धा से विनिर्मित है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह पुरुष वैसा ही बन जाता हैं अर्थात् बुराइयों के प्रति श्रद्धा व्यक्ति को समस्याओं में कैद कर देती हैं, तो आदर्शों के प्रति श्रद्धा मनुष्य जीवन को सुख-शान्ति और प्रसन्नता से भर देती हैं। श्रद्धा में ही व्यक्तित्व के परिष्कार की वास्तविक सामर्थ्य है।
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23) भगवान की भाषा प्रेम की हैं।
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24) भगवान की समीपता के लिये शुद्ध चरित्र आवश्यक है।

हैरानी अज्ञान की बेटी हैं

1) हो सकता हैं मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊँ फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूँगा।
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2) होती तभी सफल सरकार, जब जनमानस हो तैयार।
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3) हाँ, जितनी देर तक भजन करने बैठे हैं, उतनी देर तक यह भावना अवश्य करते रहते हैं कि ब्रह्म की परम तेजोमयी सत्ता, माता गायत्री का दिव्य प्रकाश हमारे रोम-रोम में ओत-प्रोत हो रहा हैं और प्रचण्ड अग्नि में पडकर लाल हुए लोहे की तरह हमारा भौंडा अस्तित्व उसी तरह का उत्कृष्ट बन गया हैं, जिस स्तर का कि हमारा इष्टदेव है। परम पूज्य गुरुदेव
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4) हे मनुष्य ! यश के पीछे मत भाग, कर्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं, यह न सुनकर विवेक के पीछे भाग। दुनिया चाहे कुछ भी कहें, सत्य का सहारा मत छोड।
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5) हे मनुष्य ! तू कितना शक्तिशाली हैं ! तेरी श्रष्टि में उस दैवी कलाकार ने अपनी कला की इतिश्री कर दी।
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6) हे विद्यार्थी ! तू भारत का भविष्य, विश्व का गौरव और अपने माता-पिता की शान हैं। तेरे भीतर सामर्थ्य का भंडार छुपा पडा है।
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7) हे भगवान् मेरा समाधिपूर्वक मरण हो। मरण-क्षण में मेंरे चित्त में किसी व्यक्ति का मोह, पदार्थ का लोभ एवं वासना का आकर्षण न हो। मैं मरण भय से निर्भय रहूँ। आदर्शो पर अटल रहूँ, मन एकमेव तुम्हारे चिन्तन में डूबा रहे, हृदय का प्रत्येक स्पन्दन एक तुम्हारे लिए ही स्पन्दित होता रहे। मैं तुम्हारा ही अविनाशी अंश हूँ और तुम्ही में समाकर, विसर्जित-विलय होकर पूर्णता की प्राप्ति करने के महाभाव में स्थिर रह सकूँ।
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8) हे पुरुष श्रेष्ठ ! खाते हुये कभी भी शंका न करें ( कि यह अन्न मुझे पचेगा या नही )
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9) हैं न आश्चर्य की बात, आप कितना कम जानते है, यह जानने के लिये ही कितना अधिक जानने की जरुरत होती है।
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10) हैरानी अज्ञान की बेटी हैं
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11) भय का बीज संशय है।
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12) भय हमारी अज्ञानता का सूचक है।
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13) भय से उद्भूत कुत्सित मनोवृत्तियाँ उपयोगी पुरुषार्थ को जड मूल से नष्ट कर देती है।
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14) भय से उत्पन्न मौन पशुता हैं और संयम से उत्पन्न मौन साधुता।
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15) भय जीवन का सबसे बडा शत्रु है।
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16) भयभीत मनुष्य किसी का सहायक नहीं हो सकता।
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17) भयभीत न हो, निराश न हो, क्योकि मै तुम्हारा भगवान, तुम्हारा ईश्वर सदा तुम्हारे साथ हू। जहा-जहा तुम जाओगे, मैं तुम्हारे साथ रहूँगा।
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18) भक्त वही हैं जिसके लिये जन-जन का दर्द उसका अपना दर्द हो।
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19) भक्तो का “राम-राम” हैं, योगियों का “सोऽम” हैं और ज्ञानियों का “ऊँ” है।
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20) भक्ति का अर्थ हैं - श्रेष्ठता से प्रगाढ स्नेह।
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21) भविष्य में जीवन खोजने वाले अपने वर्तमान से हमेशा असंतुष्ठ, असंतृप्त बने रहते है।
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22) भीख माँगना छोडो भाई, खाओं श्रम की शुद्ध कमाई।
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23) भीषण चिंता आंतरिक सद्भावों का सर्वनाश कर देती है।
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24) भीतर से हर व्यक्ति के अन्दर देवत्व भरा पडा हैं, आवश्यकता मात्र उसे उभारने की है। मनुष्य का स्वाभाविक रुझान ही उत्कृष्टतापरक हैं। वह भटका हुआ देवता हैं, उठा हुआ पशु नहीं।

हमारी बुद्धि कल्याणकारिणी हो।

1) हम अपनी बुद्धि से गीता को नहीं समझ सकते। अतः गीता की शरण हो जाना चाहिये।
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2) हम अपनी भावनायें पाप, घृणा और निन्दा में डुबायें रखने की अपेक्षा सद्विचारों में लगाये।
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3) हम अपने राष्ट्र में सदा जागरुक रहे और राष्ट्र रक्षा के काम में सदा अग्रणी रहे।
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4) हम असीम क्यों न बने ? असीमता का आनन्द क्यों न ले ? सीमा ही बन्धन हैं, असीमता में मुक्ति का तत्व भरा हैं। जिसका इन्द्रियों में ही सुख सीमित हैं, वह बेचारा क्षुद्र प्राणी, इस असीम परमात्मा के असीम विश्व में भरे हुए असीम आनन्द का भला कैसे अनुभव कर सकेगा ? जीव तुम असीम हो, आत्मा का असीम विस्तार कर सर्वत्र आनन्द ही आनन्द बिखरा पडा हैं। उसे अनुभव कर और अमर हो जा।
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5) हमारी 24 लक्ष महापुरश्चरण की साधना गायत्री उपासना को इतना महत्व नहीं दिया जाना चाहिए जितना कि मानसिक परिष्कार और भावनात्मक उत्कृष्टता के अभिवर्द्धन के प्रयत्नों को। परमपूज्यगुरुदेव
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6) हमारी ईश्वर भक्ति, पूजा उपासना से आरम्भ होती हैं और प्राणिमात्र को अपनी ही आत्मा के समान अनुभव करने और अपनी ही शरीर के अंग अवयवो की तरह अपनेपन की भावना रखते हुए अनन्य श्रद्धा चरितार्थ करने तक व्यापक होती चली जाती है।
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7) हमारी बुद्धि कल्याणकारिणी हो।
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8) हमारी मानसिक अशान्ति, उद्विग्नता, क्षोभ, नैराश्य, क्लेश और दुःखादि के मूल में हैं हमारे द्वारा लोकहित का बाधित होना।
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9) हमारा मन उपजाउ खेत हैं, जैसा बोयेंगे, वैसा ही काटेंगे।
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10) हमारा परिधान सभी को इस बात की सूचना दे सके कि हम राजनीतिक रुप से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक रुप से भी स्वतंत्र हैं और हमारी भारतीय जीवन मूल्यों में आस्था है।
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11) हमारे विचार ही हमारा भाग्य लिखते हैं। ईश्वर की यह सनातन व्यवस्था है।
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12) हमारे पवित्र विचारों का मन्दिर मौन है।
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13) हमें मनुष्य शरीर में आकर दो काम करने है-सेवा करना और भगवान् को याद रखना है।
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14) हमें नियमित रुप से सद्ग्रन्थो का अवलोकन करना चाहिये, उत्तम पुस्तको का स्वाध्याय जीवन का आवश्यक कर्तव्य बना लेना चाहिये।
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15) हमें परमार्थ के पथ पर चलाने वाली परिष्कृत बुद्धि को प्रज्ञा कहते हैं।
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16) हमें अपने मस्तक पर प्रभु का हाथ समझ कर सदा आनन्दित रहना चाहिये।
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17) हीन भावना वाले लोग भार ढोते हैं, भार रहते है, और भार बढाते है।
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18) हर क्षण में एक अनोखी सम्भावना छिपी हैं, पर ये साकार तभी हो सकती हैं जब इसका सुनियोजन सर्वोच्च स्तर पर हो।
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19) हर कठिनाई में शुभ अवसर, खोजे आशावादी। अवसर में कठिनाई खोजे घोर निराशावादी।
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20) हर काम को पूरी लगन से करेंगे तो कभी पछताना नहीं पड़ेगा।
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21) हर महान् व्यक्तित्व को प्रकृति ने आपदाओ और विषमताओं की छेनी-हथौडी से उन्हे गढा-निखारा और सॅवारा है।
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22) हर रोग कुदरत के किसी अज्ञात कानून भंग का ही परिणाम है।
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23) हर व्यक्ति की विशेषताओं को देखे और अपनी कमजोरियों को दूर करे।
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24) हाथ की शोभा कंगन से नहीं, दान से है।

निरन्तर गरिमापूर्ण चिन्तन ही हमारी परिभाषा है।

1) निराशा एक प्रकार की नास्तिकता ही है।
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2) निराशा वह मानवीय दुर्गुण हैं, जो बुद्धि को भ्रमित कर देती है।
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3) निराशा आम तौर पर हमारे अपने एजेण्डा की असफलता के कारण होती हैं न कि ईश्वर द्वारा हमारे लिये सोचे गये उद्धेश्यों से। निराशा से उपजे तनाव और संर्घष हमारी आध्यात्मिक माँस-पेशीयों को बलिष्ठ बनाते है।-लूसी शा 
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4) हम वह करे, जो करने योग्य हो। वह सोचे जो सोचने योग्य हो।
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5) निरन्तर गरिमापूर्ण चिन्तन ही हमारी परिभाषा है।
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6) निस्वार्थ सेवा करने में जिसे स्वयं की भी सुध न रहे उसके हितो की रक्षा स्वयं भगवान को करनी पडती है।
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7) निस्वार्थ सेवा से उपजा सुख जीवन की भीषणतम कठिनाईयों के समय भी आनन्द की अनुभूति प्रदान करता है।
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8) निर्दोषता जीवन का आहार हैं और दोष जीवन का विकार हैं आहार लो, विकार त्याग दो। निर्दोषता ही पोषण हैं, वही जीवन है।
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9) निर्दोष के पास डर नही रहता।
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10) निद्रा भी कैसी प्यारी वस्तु है घोर दुःख के समय भी मनुष्य को यही सुख देती है।
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11) नित्य प्रति पीपल के नीचे ध्यान करने पर चिन्ता, निराशा, घबराहट, थकान आदि मानसिक रोगो का शमन होता है।
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12) निज सुख ओरो तक पहुचाओ, सदा परायी पीर घटाओ।
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13) निन्दक नियरे राखिये, निन्दक सन्त समान। आप पडे नरक में, हमको देवे निर्वाण।
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14) हम ऐसा कुछ न करे , जिस पर पीछे पश्चाताप करना पडे।
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15) हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को जीवन में उतारे।
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16) हम कोई ऐसा काम न करे, जिसमें अन्तरात्मा ही अपने को धिक्कारे।
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17) हम मानसिक रुप से ईमानदार बने।
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18) हम प्यार करना सीखें, हममें, अपने आप में, अपनी आत्मा और जीवन में, परिवार में, समाज में और ईश्वर में, दसों-दिशाओं में प्रेम बिखेरना और उसकी लौटती प्रतिध्वनि का भाव-भरा अमृत पीकर धन्य हो जाना,यही जीवन की सफलता हैं।
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19) हम सबके मस्तिष्क से चेतना की तरंगे सतत स्पंदित होती रहती हे। अज्ञानता और निर्दिष्ट लक्ष्य के अभाव में मस्तिष्क पर नियन्त्रण नहीं रह पाता और ये बहुमूल्य तरंगे बिखरती रहती है। ध्यान इन ऊर्जा तरंगो के बिखराव को रोककर एक सुनिश्चित केन्द्र बिन्दु पर केन्द्रित करने की कला है। ध्यान द्वारा अपनी इन प्रसुप्त शक्तियों को जाग्रत एवं केन्द्रित करके भौतिक और आध्यात्मिक सफलताओं को अर्जित किया जा सकता है।
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20) हम स्वयं को जितनी अच्छी तरह समझेंगे, शांत व सुखी रहना उतना ही सहज हो जाएगा।
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21) हम उपदेश देते हैं टन भर, सुनते हैं मन भर और ग्रहण करते हैं कण भर।
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22)  हम जैसे हैं, वैसों से ही मिलते है।
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23) हम दूसरों को जितनी ज्यादा सद्भावना अर्पित करते हैं, उतना ही हमारा आंतरिक बल बढता है।
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24) हम दूसरों से जैसा व्यवहार अपने लिये चाहते है, वैसा ही आचरण स्वयं भी दूसरों के साथ करे।

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