एक दिन राजा भोज गहरी निद्रा में सोए थे। उन्हें स्वप्न में एक दिव्य पुरूष के दर्शन हुए। भोज ने उनसे उनका परिचय पूछा-‘‘भगवन् ! आप कौन हैं ? वे बोले-‘‘ मैं सत्य हूं। तुम्हें तुम्हारी तथाकथित उपलब्धियों का वास्तविक स्वरूप दिखाने आया हू। आओ, मेरे साथ आओ।’’ राजा खुशी-खुशी चल दिए। वे अपने आप को बड़ा धर्मात्मा समझते थे। उन्होंने मंदिर, बाग-बगीचे, कुऐ-बावड़ी आदि अनेक बनवाए थें। मन ही मन उनको बड़ा अभिमान भी था। दिव्य पुरूष उन्हें बड़े शानदार उनके ही प्रिय एक बगीचे में ले गऐ और बोले-तुम्हें इनका बड़ा अभिमान हैं न !’’ उन्होंने एक पेड़ छुआ और वह ठूंठ हो गया। एक-एक करके सभी वृक्ष जो फूलों से लदे थे, ठूंठ होते चले गऐ। भोज स्तब्ध देख रहे थे। फिर दिव्य पुरूष आगे बढ़े। भोज द्वारा निर्मित एक स्वर्णजड़ित मंदिर के पास ले गए, जो भोज को अति प्रिय था एवं जिस पर उन्हे गर्व भी था। दिव्य पुरूष के स्पर्श से सोना लोहे की तरह काला हो गया एवं खंडहर की तरह भरभराकर गिर गया। राजा के तो होश उड़ गए। क्रमशः वे सभी स्थानों पर गए, जो राजा भोज ने बड़े मन से बनवाए थे। दिव्य पुरूष बोले-‘‘ राजन् ! वास्तविकता समझो। भ्रम में मत पड़ो । भौतिक वस्तुओं के आधार पर महानता नहीं आंकी जाती। एक गरीब आदमी द्वारा पिलाए गए एक लोटे जल की कीमत-उसका पुण्य किसी यशलोलुप धनी की करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से कहीं अधिक हैं।’’ इतना कहकर वे अंतर्धान हो गए। भोज की नींद पसीने से लथपथ स्थिति में खुली। राजा भोज ने स्वप्न पर गंभीरता पूर्वक विचार किया एव क्रमशः ऐसे पुण्य कार्यों में जुट गए, जो वास्तविक थे, यश प्राप्ति की कामना से नहीं किए गये थे।
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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