गुरुवार, 19 नवंबर 2009

पंडित नेहरू का वजन

एक बाल सम्मेलन के अवसर पर पंडित नेहरू बालक-बालिकाओं के बीच प्रश्नोत्तर का आनंद ले रहे थे। तभी एक बालिका ने प्रश्न किया-

``क्या आपने कभी अपना वजन भी लिया हैं ?´´ पंडित नेहरू ने तुरंत उत्तर दिया-``अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखने के कारण मैने अनेक बार वजन लिया।´´

बलिका ने फिर प्रश्न किया- अच्छा बताइए, आपका सबसे ज्यादा और सबसे कम वजन कब और कितना था ?

नेहरू ने बिना रूके कहा-``मेरा सबसे ज्यादा 162 पोंड उस समय था जब मैं अहमदनगर जेल में था, और सबसे कम साढ़े सात पोंड वजन जब मैं पैदा हुआ तब था।´´ बालिका ने ताज्जुब से पूछा-``जेल में तो वजन कम हो जाना चाहिए, परन्तु बढ़ कैसे गया ?´´ 

पंडित नेहरू ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-``उस समय मेरा वजन इस खुशी से बढ़ गया कि मैं अपने देश की सेवा में जेल का कष्ट सहन कर रहा हूं।´´ 

शत्रु वह जो जी दुखाए।

एक बार शेखसादी के पास एक व्यक्ति गया और कहने लगा-``आपका अमुख शत्रु आपकी बुराई कर रहा था और आपको तरह-तरह की गालिया बक रहा था।´´

सो तो में भी जानता हूँ, थोड़ा रूककर शेखसादी बोले- ``भाई शत्रु तो कहलाता वही हैं, जिससे बैर-विरोध हो। पर कम-से-कम इतना तो हैं कि वह मुँह के सामने कुछ नहीं कहता। आप तो मेरे सामने ही बुराई कर रहे हैं, अब आप ही बताइये कि मेरा शत्रु कौन हैं ? अच्छा होता, आपने मेरा जी न दुखाया होता और चुपचाप ही बने रहते। बुराई करने वाला व्यक्ति बहुत लज्जित हुआ और वहाँ से उठ कर चला गया। उस दिन से उसने कभी किसी की बुराई नहीं की।

मानव जाति एकात्मा

चीन में उन दिनों कुछ थोड़े शहरों को छोड़ कर शेष स्थानों पर विदेशियों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई थी। कभी भूल से कोई विदेशी वहाँ पहुँच जाता तो चीनी मरने-मारने को उतारू हो जाते, उनकी जान संकट में पड़ जाती। 

एक बार स्वामी विवेकानन्द चीन भ्रमण करने गये। उनकी किसी गाँव में भ्रमण की इच्छा हुई। दो जर्मन पर्यटकों की भी इच्छा वहाँ का ग्राम्य जीवन देखने की थी, पर साहस के अभाव में उनकी प्रवेश की हिम्मत नहीं हो रही थी। उन्होनें यह बात स्वामी जी से कही तो स्वामी जी ने कहा-``सारी मनुष्य जाति एक हैं, हमें विश्वास हैं कि यदि हम सच्चे हृदय से वहाँ के लोगों से मिलने चले तो वे लोग हमें मारने की अपेक्षा प्रेम से ही मिलेंगे।´´

वे जर्मन पर्यटकों को लेकर गाँव की ओर चल पड़े। दुभाषिया उनके लिए तैयार नहीं हो रहा था, पर जब स्वामी जी नहीं रूके तो वह भी साथ चला तो गया, पर अन्त तक उसे यही भय बना रहा कि वे लोग उसे मारे नही। 

गाँव वाले विदेशियों को देखकर लाठी लेकर मारने दौड़े। स्वामी विवेकानन्द ने उनकी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि डालते हुए कहा-``क्या आप लोग अपने भाईयों से प्रेम नहीं करते।´´ दुभाषिया ने यही प्रश्न उनकी भाषा में ग्रामीणों से पूछा। तो वे लोग बेचारे बड़े लज्जित हुए और लाठी फेंककर स्वामी जी के स्वागत-सत्कार में जुट गये। यह देखकरा जर्मन बोले-``सच हैं, यदि आप जैसा निश्छल प्रेम सारे संसार के लोगों में हो जाये, तो धरती पर कहीं भी कष्ट-कलह नहीं रह जाये।´´

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