गुरुवार, 30 जून 2011

इस युग को बदलेंगे कौन

1) ऋण लेने का स्वभाव दरिद्रता को निमन्त्रण देता है।
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2) ऋषि अर्थात् वे जिनका निर्वाह न्यूनतम मे चलता हों और बची हुयी सामर्थ्य सम्पदा को ऐसे कामों में नियोजित किये रहते हों, जो समय की आवश्यकता पूरी करे।
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3) क्षण-क्षण से विद्या व कण-कण से अर्थ एकत्रित करना चाहिये।
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4) क्षमा करने वाले की आत्मा पवित्र होती है।
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5) द्वेष करने वाला अपने भोजन को विषाक्त कर देता है।
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6) शान्ति रहित आनन्द भौतिक हैं, आनन्द सहित शान्ति शाश्वत है।
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7) शारीरिक और बौद्धिक परिश्रम दोनो ही अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं। दोनो के सम्मिलन से एक पूर्ण परिश्रम का निर्माण होता है।
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8) ढूँढा सब जहाँ में, पाया तेरा पता नहीं, जब पता तेरा लगा तो अब मेरा पता मेरा नही।
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9) झुकता वो जिसमें कुछ जान हैं, अकडना मुर्दो की पहचान है।
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10) झूंठ पर आधारित संबंध रेत की नींव पर बने भवन के समान है।
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11) झूठ बोलना कायरता का चिन्ह है।
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12) झूठ बोलने से वाणी की शक्ति नष्ट होती है।
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13) उर्ध्व उठे फिर ना गिरे, यही मनुज को कर्म । औरन ले ऊपर उठे, इससे बडों न धर्म।।
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14) हृदय की अज्ञान ग्रन्थि का नष्ट होना ही मोक्ष कहा जाता है।
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15) हृदय में प्रेम रहे, बुद्धि में विवेक रहे और शरीर उपकार में लगा रहे।
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16) हृदय नम्र होता नहीं जिस नमाज के साथ, ग्रहण नहीं करता कभी उसको त्रिभुवन नाथ। - मैथिलि शरण जी 
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17) ऊँचे काम सदा ऊँचे व्यक्तित्व करते हैं। कोई लम्बाई से ऊँचा नही होता, श्रम, मनोयोग, त्याग और निरहंकारिता ही किसी को ऊँचा बनाती है।
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18) ऊँचे विचार लाने के लिये सादा जीवन आवश्यक है।
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19) ऊँचे उठो, प्रसुप्त को जगाओ, जो महान् हैं, उसका अवलम्बन करो।
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20) इतिहास और अनुभव का प्रत्येक अंकन अपने गर्भ में यह छिपाये बैठा हैं कि अनीति अपनाकर स्वार्थ, संकीर्णता से आबद्ध रहकर हर किसी को पतन और संताप की हाथ लगा हैं। उदार और निर्मल हुए बिना किसी ने भी शान्ति नही पायी है।
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21) इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत् अभ्यास करो।
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22) इन्द्रिय-निग्रह, अर्थ-निग्रह, समय-निग्रह और विचार-निग्रह यह चार संयम हैं। इन्हे साधने वाले महामानव बन जाते हैं और काम, क्रोध, लोभ, मोह इन चारो से मन को उबार लेने पर लौकिक सिद्धिया हस्तगत हो जाती है।
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23) इन्द्रिया सदैव आत्मा के विरुद्ध संघर्ष करती हैं। अतः सतत् सावधान रहो।
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24) इस युग को बदलेंगे कौन, जो कर सकते सेवा मौन।

युवकों ! सज्जन और शालीन बनो।

1) यहाँ वरिष्ठता की एक ही कसौटी हैं- विनम्रता, स्वयं पर अंकुश व कर्मनिष्ठ जीवनचर्या।
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2) यहाँ हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार ही बर्ताव करता हैं। जिसके पास जितनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं भावनात्मक क्षमता हैं, वह उसी के अनुसार बर्ताव करने के लिए विवश है। जिनकी भावनाए स्वार्थ एवं कुटिलता में सनी हैं, वे तो बस केवल क्षमा के पात्र हैं। उन्हे प्रेमपूर्ण हृदय से क्षमा कर देना चाहिए। बडे ही विवश हैं वे बेचारे। 
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3) यज्ञ केवल क्रिया नहीं हैं, यज्ञ श्रेष्ठ कर्मों को कहते है।
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4) यज्ञ हमारा तभी सफल, जब जन जीवन बने बिमल।
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5) या तो संयम को अपनाओ, या फिर नसबन्दी करवाओ।
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6) योजना कैसे हो ? अगर आप एक साल के लिये योजना करना चाहते हैं, तो आप अनाज बोइये। अगर आप दस साल के लिये योजना करना चाहते हो तो वृक्ष का बीज बोइये। और अगर आप सैकड़ों सालो के लिये योजना करना चाहते हैं तो मनुष्य निर्माण के बीज बोइये।
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7) यशलोलुपता, पदलोलुपता और अहमन्यता किसी के छिपाये नहीं छिपते।
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8) युधिष्ठिर नाम लेने से धर्म बढता है।
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9) युवकों ! सज्जन और शालीन बनो।
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10) युवा शक्ति अब आगे आओ, सृजन सैन्य का शंख बजाओ।
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11) युग का अवसान सद्विचारो एवं सत्प्रवृत्तियों के घट जाने से होता है।
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12) युग निर्माण योजना एक शंख निनाद हैं, जो संस्कारी व्यक्तियों को जगाने और उन्हे प्रभातकालीन कर्तव्यों मे जुटने का उद्बोधन कर रहा है।
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13) युग परिवर्तन की यह बेला आपको सपरिवार मंगलमय हो। शिव की शक्ति, मीरा की भक्ति, गणेश की सिद्धि, चाणक्य की बुद्धि, शारदा का ज्ञान, कर्ण का दान, राम की मर्यादा, भीष्म का वादा, हरिशचन्द्र की सत्यता, लक्ष्मी की अनुकम्पा, कुबेर की सम्पन्नता प्राप्त हो यही हमारी शुभकामना हैं।
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14) घर को तपोवन बनाने के लिये गृहपति को स्वयं तपस्वी बनना पडता हैं। भीतर से और बाहर से जैसा सोचा होगा, वैसे ही सिक्के ढलते चले जायेंगे।
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15) घर में स्वर्ग सा वातावरण बनाना चाहते हो तो दो काम करो। मस्तक पर आइस फेक्टरी, और जीभ पर शुगर फैक्टरी।
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16) घर से बहुत दूर हैं मन्दिर का रास्ता, आओं किसी रोते हुये को हॅसाये।
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17) घर वही है जहोँ प्रेम और सत्कार मिले।
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18) घर वालो की सेवा करने का पुण्य नही होता, क्योंकि पुण्य को ममता खा जाती है।
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19) घाटे मे वे रहते हैं जो अपनी उपेक्षा आप करते है।
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20) खोजे परगुण अपने दोष, सीमित साधन में सन्तोष।
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21) खुशदिल इन्सान जब तक जिंदा रहता हैं मजे से रहता है।
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22) खुशी से बढ़कर पौष्टिक खुराक और कोई नही।
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23) खुद को खराब कहने की हिम्मत नहीं हैं इसलिये लोग कहते हैं कि जमाना खराब है।
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24) खुद सुख लेंगे तो नाशवान सुख मिलेगा और दूसरों को सुख देंगे तो अविनाशी सुख मिलेगा।

मै कौन हूँ ?

1) यदि हम अपना जीवन श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें अपने विचारों अर्थात् संकल्पो को श्रेष्ठ बनाना आवश्यक हैं। यही बीज हैं जिससे कर्म रुपी वृक्ष निकलता है।
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2) यदि हमारे जीवन में सच्चाई हैं तो उसका असर अपने-आप लोगो पर पड़ेगा।
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3) यदि परिवर्तन से डरोगे तो तरक्की कैसे करोगे।
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4) यदि पति-पत्नी के बीच प्रेम और विश्वास की प्रगाढता हैं तो परिवार में सर्वत्र प्रेम, स्नेह, श्रद्धा व सेवा की भावना बनी रहेगी।
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5) यदि प्रतिकूलता न हो तो लोग अपनी जागरुकता ही खो बैठे। सुधार के लिये भी और प्रगति के लिये भी जागरुकता आवश्यक है। वह बिना प्रतिकूलता से पाला पडे और किसी प्रकार उत्पन्न नहीं हो सकती है।
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6) यदि सफलता की चाह हैं तो स्वयं को प्रत्येक क्षण काम या उद्यम में डूबा दो, सफलता मिलकर रहेगी।
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7) यदि दुःख के बाद सुख न आता तो उसे कौन सहता।
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8) यदि देखने की इच्छा हो तो यह देखो कि मै कौन हूँ ?
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9) यदि तुम्हारे में राई के दाने जितना भी आत्मविश्वास हैं तो तुम्हारे लिये कुछ भी असम्भव नही।
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10) यदि जीवन में सुखी रहना चाहते हों तो हमेशा भलाई करो।
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11) यदि अपनी आत्मा में भय, शंका, अविश्वास, द्वेष, परायापन न हों, आत्मीयता की निष्ठा अति प्रगाढ हो तो मनुष्य जैसे संवेदनशील प्राणी द्वारा अविकसित पशु-पक्षियो और जन्तुओ में भी कौटुम्बिकता विकसित की जा सकती है।
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12) यदि आस्तिकता कभी जीवन में फलित होगी तो व्यक्ति कर्तव्य पालन को सबसे पहले महत्व देगा।
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13) यदि आप भगवान के समीप जाना चाहते हों तो उसी के समान निरहंकारी बन जाओ।
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14) यदि आप स्थाई रहने वाली संपदा चाहते हैं, तो धर्मात्मा बनिए।
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15) यदि आप चाहते हैं कि कोई आपको याद रखे तो समय-समय पर फोन पर बातें कर घर का हालचाल पूछे और हो सके तो कुछ उपहार भेंजे।
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16) यदि आपको दूसरों की प्रतीक्षा करने की आदत हैं, तो आप अवश्य पीछे रह जायेंगे।
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17) यदि आपमें सीखने की इच्छा हैं, तो ही आपको अच्छे गुरु मिलेंगे।
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18) यदि लोभ को हटाना चाहते हो तो तुम्हे पहले उसकी माँ विलासिता को हटाना होगा।
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19) यह एक अनुभूत सत्य हैं कि सफलताए हमेशा ही तप व पुण्य का परिणाम होती है।
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20) यह नियम हैं कि दुःखी आदमी ही दूसरे को दुःख देता है।
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21) यह शरीर आत्मा को अपना लक्ष्य पूरा करने के लिये मिला हैं, मन और इन्द्रियों की वासना पूर्ति के लिये नही।
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22) यह संसार एक दिव्य ईश्वरीय योजना हैं और उन्ही प्रभु की इच्छा से नियन्त्रित है। इस सत्य की अवहेलना करने वाले व्यक्ति को ईश्वर के प्रति समर्पित होने की कला नहीं आती है। परिणामतः मन में चिन्ता, उद्वेग एवं अनेक तरह की उलझने उत्पन्न हो जाती है।
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23) यह दुनिया तुम्हारे कार्यो की प्रशंसा करती हैं, तो इसमें कुछ भी बुरा नहीं, खतरा तब हैं, जब तुम प्रशंसा पाने के लिए किसी काम को करते हो।
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24) यह तथ्य हैं कि जिन्होने भगवान का आमन्त्रण सुना हैं, वह कभी घाटे में नहीं रहे।

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