बुधवार, 8 अगस्त 2012

|| कर्म - विवेचन ||

कर्म कई प्रकार के है , जिनको हम तीन भागों में बाँट सकते हैं -

[ १ ] निषिद्ध कर्म - चोरी , व्यभिचार , हिंसा , असत्य , कपट , छल , जबरदस्ती , अभक्ष्य - भक्षण , प्रमाद आदि |

[ २ ] काम्य कर्म - स्त्री , पुत्र , धन आदि प्रिय... वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग संकट आदि की निवृति के लिए किये जाने वाले कर्म |

[ ३ ] कर्तव्य  कर्म - ईश्वर की भक्ति , देवतावों का पूजन , यज्ञ , दान ,तप , माता - पिता और गुरुजनों की सेवा , वर्णाश्रम धर्म के अनुसार शास्त्र विहित शुभ कर्म , शरीर संबंधी खान - पान के कर्म आदि - आदि |

कर्तव्य - कर्म भी कामनायुक्त होने से काम्य - कर्मों में समझे जा सकते हैं | कर्तव्य - कर्मों के दो भेद होते हैं -

[ १ ] सकाम कर्म - जो केवल कामना व फल की इच्छा को लेकर ही किये जाते हैं | यदि धन के लिए कर्म किया जाता है तो उसे [ कर्ता को ] पल पल में धन की ही स्मृति होती है | धन मिलने पर [ सिद्धि में ] वह हर्षित होता है , न मिलने पर [ असिद्धि में ] वह दु:खीराम होता है | लोभ के कारण उसका पतन भी हो सकता है और वह निषिद्ध कर्मों में प्रवृत हो जाता है |

[ २ ] निष्काम - कर्म - इसमें उसके मन में किसी प्रकार की कामना नहीं रहती , वह फल की इच्छा को छोड़कर , आसक्ति रहित होकर कर्म करता है , जैसे एक पिता अपनी पुत्री का पालन - पोषण , विवाह आदि करता है |

निष्काम कर्म करने वाले का लक्ष्य / उद्देश्य केवल " परमात्मा की प्राप्ति " ही रहता है | तथा सिद्धि - असिद्धि में उसे हर्ष - शोक , विकार नहीं होते | निष्काम कर्म में बीज का नाश नहीं होता और न ही इसका उल्टा फल होता है | अर्थात इसके थोड़े से अनुष्ठान से भी जन्म - मरण के भय से मुक्ति मिल जाती है |

शनिवार, 4 अगस्त 2012

नवयुवक सज्जनता और शालीनता सीखें

कहना न होगा कि समस्त समृद्धि, प्रगति और शान्ति का सद्भाव मनुष्य के सद्गुणों पर अवलम्बित है। दुर्गुणी व्यक्ति हाथ में आई हुई, उत्तराधिकार में मिली हुई समृद्धियों को गवाँ बैठते हैं और सद्गुणी गई-गुजरी परिस्थितियों में रहते हुए भी प्रगति के हजार मार्ग प्राप्त कर लेते हैं । सद्गुणी की विभूतियॉं ही व्यक्तित्व को प्रतिभावान बनाती हैं और प्रखर व्यक्तित्व ही हर क्षेत्र में सफलताएँ वरण करते चले जाते हैं ।

उठती आयु में सबसे अधिक उपार्जन सद्गुणों का ही किया जाना चाहिए । विद्या पढ़ी जाये सो ठीक है, खेल-कूद, व्यायाम आदि के द्वारा स्वास्थ्य बढ़ाया जाये, सो भी अच्छी बात है, विभिन्न कला-कौशल और चातुर्य सीखे जायें, वह भी सन्तोष की बात है पर सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि इस आयु में जितनी अधिक सतर्कता और तत्परतापूर्वक सद्गुणो का अभ्यास किया जा सके, करना चाहिए । एक तराजू में एक और शिक्षा, बुद्धि, बल और धन आदि की सम्पत्तियाँ रखी जायें और दूसरी पलड़े में सद्गुण तो निश्चय ही यह दूसरा पलड़ा अधिक भारी और अधिक श्रेयस्कर सिद्ध होगा । दुर्गुणी व्यक्ति साक्षात संकट स्वरूप है । वह अपने लिए पग-पग पर काँटे खड़े करेगा, अपने परिवार को त्रास देगा और समाज में अगणित उलझनें पैदा करेगा । उसका उपार्जन चाहे कितना ही बढ़ा-चढ़ा क्यों न हो, कुकर्म बढ़ाने और विक्षोभ उत्पन्न करने वाले मार्ग में ही खर्च होगा । ऐसे मनुष्य अपयश, घृणा, द्वेष, निन्दा और भर्त्सना से तिरस्कृत होते हुए अन्तत: नारकीय यन्त्रणाएँ सहते हैं।

आज अभिभावक रुष्ट, अध्यापक दु:खी, साथी क्षुब्ध, स्वयं में उद्विग्नता हैं । इन सबका एक ही कारण है - दुर्गुणों की मात्रा बढ़ जाना । बुखार बढऩे की तरह मर्यादाओं का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति का बढऩा भी खतरनाक है । कहने का सार यह है कि जो भी हों अपने बच्चों को समझाने और सिखाने का हर कडुआ-मीठा उपाय हमें करना चाहिए कि वे सज्जन, शालीन, परिश्रमी और सत्पथगामी बनें, इसी में उनका और हम सबका कल्याण है ।

युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.१०१)

प्रधानता वातावरण की


प्रतिभाएँ वातावरण विनिर्मित भी करती हैं, पर उनकी संख्या थोड़ी सी ही होती है। हीरे भी जहाँ-तहाँ कभी-कभी ही निकलते हैं, पर काँच के नगीने ढेरों कारखानों में नित्य ढलते रहते हैं। अधिकांश लोग ऐसे होते हैं जो वातावरण के दबाव से भले या बुरे ढाँचे में ढलते है। ऐसे लोग अपवाद ही हैं, जो बुरे लोगों के संपर्क में रह कर भी अपनी गरिमा बनाये रहते हैं। साथ ही अपने प्रभाव से क्षुद्रों को महान बनाते, बिगडों को सुधारने में समर्थ होते हैं।

प्रधानता वातावरण की है। सामान्यजन प्रवाह के साथ बहते और हवा के रुख पर उड़ते देखे जाते हैं। पारस के उदाहरण कम ही मिलते हैं। सूरज चाँद जैसी आभा किन्हीं विरलों में ही होती है जो अँधेरे में उजाला कर सकें।

आत्मोत्कर्ष का लक्ष्य लेकर चलने वालों को तो विशेष रूप से इस आवश्यकता को अनुभव करना चाहिए। उसे जुटाने के लिए प्रयत्नशील भी रहना चाहिए। इसके दो उपाय हैं, एक यह कि जहाँ इस प्रकार का वातावरण हो, वहाँ जाकर रहा जाये। दूसरा यह कि जहाँ अपना निवास है वहीं प्रयत्नपूर्वक वैसी स्थिति उत्पन्न की जाय। कम से कम इतना तो हो ही सकता है कि अपने निज के लिये कुछ समय के लिए वैसी स्थिति उत्पन्न कर ली जाये जिनके आधार पर अच्छे वातावरण का लाभ उठाया जा सके। एकांत, स्वाध्याय, मनन, चिंतन ऐसे ही आधार हैं।

जीवन देवता की साधना-आराधना 2:1.46"

उपार्जन ही नहीं सदुपयोग भी

उपार्जन एक बात है और सदुपयोग दूसरी। शारीरिक और मानसिक क्षमता के आधार पर किसी भी प्रकार उपार्जन किया जा सकता है, किन्तु उसका सदुपयोग दूरदर्शी विवेक के बिना नीति निष्ठा के बिना बन नहीं पड़ता। उस स्तर की क्षमता का होना भी सुसंतुलन बनाये रखने के लिए आवश्यक है।

पदार्थ विज्ञान प्रदत्त संसाधनों, अनेकानेक उपकरण, उपलब्धियों का अगर यदि सदुपयोग बन पड़े तो निःसंदेह मनुष्य इतना सुखी, संतुष्ट, प्रसन्न एवं समुन्नत बन सकता है, जितना की स्वर्गलोकवासियों के सम्बन्ध में सोचते और वैसा सुयोग प्राप्त करने के लिए हम ललचाते रहते हैं।

जीवन देवता की साधना-आराधना (२)- १.१०"

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