सोमवार, 19 अक्टूबर 2009

विद्या विस्तार यज्ञों में युग साहित्य के विस्तार को प्राथमिकता दें

इस संदर्भ में गुरुसत्ता के हृदय के दर्द और उत्साह को स्वयं अनुभव करें  विद्या अमृत है 

प्रचलित सूत्र वाक्य है 'विद्ययाऽमृतमश्नुते' अर्थात् 'विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है ।' कहते हैं अमृतपान करने वाला मृत्यु से परे हो जाता है । इसीलिए देव संस्कृति में विद्या प्राप्त करने को सबसे अधिक महत्व दिया गया है । 

उपनिषदों में, श्रीराम चरित मानस में परमात्मा की माया (कुशलता) की दो धाराएँ कही गई है । 

१. विद्या और २. अविद्या । ईशोपनिषद् का निर्देश है कि इनमें से उपेक्षा किसी की भी नहीं की जा सकती । जो लोग किसी एक को जरूरत से ज्यादा महत्व देते हैं, वे जीवन के असंतुलन में भटक जाते हैं । जो संतुलित जीवन जीना चाहें, लौकिक और पारलौकिक दोनों जीवन धाराओं का लाभ उठाना चाहें, वे विद्या और अविद्या दोनों को जानें और उनका संतुलित उपयोग करें । 

अविद्या उसे कहा गया है, जो हमारे जीवन की नश्वर विभूतियों (शरीर, पद, प्रतिष्ठा, साधनों) आदि के विकास और उपयोग की कुशलता विकसित करती है । हमारे उक्त घटक भले ही नश्वर हैं, किन्तु प्रत्यक्ष जीवन के रहते उनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता । परमार्थ आदि के लिए भी उनका सहारा तो लेना ही पड़ता है । कहा भी गया है कि 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ' अर्थात् धर्म-परमार्थ साधने के लिए भी शरीर ही पहला साधन बनता है । इसलिए उक्त विषयक कुशलता को, अविद्या को भी जानने-समझने, अपनाने की जरूरत है । 

विद्या उसे कहा गया है, जो हमारे जीवन की अनश्वर विभूतियों, आध्यात्मिक क्षमताओं के विकास और उपयोग की कुशलता विकसित करती है । अविद्या आश्रित विभूतियों का सदुपयोग भी इसी विद्या के द्वारा संभव होता है । विद्या की उपेक्षा होने से शरीर, साधन आदि की शक्तियाँ अनियंत्रित, उच्छृंखल होकर तमाम अनिष्ट पैदा करने लगती हैं । 

इसीलिए ईशोपनिषद् के ऋषि ने कहा है ''विद्या और अविद्या इन दोनों को समझो । अविद्या से मृत्यु को पार करो तथा विद्या से अमृत का पान करो । '' इसीलिए युगऋषि ने भी युगनिर्माण की सफलता के लिए दोनों का विवेकपूर्ण समन्वय बनाने की बात कही है । आज अविद्या की तो तमाम धाराएँ जाग्रत् और प्रतिष्ठित हो चुकी हैं, किन्तु विद्या के अभाव में वे बहक रही हैं । इसलिए जिस तरह अविद्या (लौकिक संसाधनों, तकनीकों) के सूत्र जन-जन तक पहुँच गये हैं । उसी तरह विद्या (आध्यात्मिक क्षमता और कुशलता) के सूत्र भी जन-जन तक पहुँचाना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । 

विद्या विस्तार हो कैसे ? 
विद्या के सैद्धांतिक सूत्र तो हमेशा से लगभग एक जैसे रहे हैं, किन्तु समयानुसार उन्हें जीवन-व्यवहार में लाने की जरूरत पड़ती है । उनका व्यावहारिक स्वरूप स्पष्ट न होने के कारण लोग उन्हें उचित, किन्तु अव्यावहारिक कहकर छोड़ देते हैं । अवतारी, ऋषि, सिद्ध, संत आदि उन्हें अपने जीवन में उतारकर दिखाते हैं तथा पुनः उन्हें जन जीवन में स्थापित करने का प्रवाह पैदा कर देते हैं । उनके परिजन उसमें उनका साथ देते हैं । पुरुषार्थ बहुतों का लगता है, शक्ति उन्हीं की कार्य करती है । 

इस समय में पू. गुरुदेव ने अपनी विरासत-वसीयत के रूप में अपने जीवन को प्रस्तुत किया है । जो परिजन उनके द्वारा छोड़ी गई जीवन साधना की विरासत को सँभालते हैं, उन्हीं को युगऋषि के शक्ति-अनुदानों की वसीयत प्राप्त हो जाती है । विद्या विस्तार के क्रम में भी ऐसा ही होना है । 

पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर जो उच्चस्तरीय ज्ञान जनहितार्थ प्रस्तुत किया है, उसके ही कारण विज्ञजनों ने उन्हें 'वेदमूर्ति' की पदवी से विभूषित किया । ज्ञान को प्रकट करने के दो माध्यम हैं-वाणी और लेखनी । वाणी का अपना प्रभाव है-किन्तु वह हवा में खो जाती है । सुनने वालों की स्मृति में उसका बहुत थोड़ा अंश रुक पाता है । विज्ञान द्वारा दी गई सुविधाओं से उसे रिकार्ड करके बार-बार सुनना भी संभव हो गया है । उन्हें सुनकर अनुयायी उन्हें लिपिबद्ध या प्रकाशित भी कर लेते हैं । इसलिए उसका टिकाऊ रूप कान से सुनने योग्य (ऑडियो) एवं आँख से देखकर समझने योग्य पुस्तकों के रूप में ही मिलता है । 

इसलिए विद्या विस्तार के क्रम में उनकी लेखनी या वाणी जन्य पुस्तकों को जन-जन तक अधिक से अधिक संख्या में पहुँचाने और उन्हें उनका स्वाध्याय करने के लिए संकल्पित करने-कराने का लक्ष्य रखा गया है । प्रत्येक यज्ञ या कथा आयोजक से यही कहा गया है कि आयोजन के संदर्भ में जो साधक, सहयोगी जुड़ें, उन तक युग साहित्य पहुँचाने के कार्य को प्राथमिकता दें और पूरी तत्परता से उसे अंजाम दें । 

विविध ढंग 
पू. गुरुदेव ने इस संदर्भ में परिजनों को जो ढंग समझाए हैं, वे इस प्रकार हैं- 

१. पत्रिकाओं के ग्राहक-पाठक बनाना -

(क) अखण्ड ज्योति -
इसे मिशन की मुख्य पत्रिका कहा जाता है । इसे हर परिजन, प्रबुद्ध एवं विचारशील तक पहुँचाने का र्निदेश है । (ख) युग निर्माण योजना-जिनके लिए अखण्ड ज्योति भारी पड़ती है, उन नर-नारियों तक यह पत्रिका पहुँचाना उचित है । (ग) प्रज्ञा अभियान पाक्षिक-इसे अपने प्रत्येक सक्रिय कार्यकर्त्ता एवं संगठित इकाई (मंडल आदि) तक पहुँचाना चाहिए । कहाँ क्या हो रहा है तथा कब क्या किया जाना है, इसकी संतुलित जानकारी इसी के माध्यम से पहुँचाई जाती है । प्रत्येक आयोजन के संयोजकों को इसके लिए एक निश्चित लक्ष्य बनाकर रखना चाहिए कि किस पत्रिका के न्यूनतम कितने नये ग्राहक बनाने हैं । 

२. पुस्तिका सैट स्थापना - 
पूज्य गुरुदेव ने बहुत बड़ी संख्या में छोटी-बड़ी पुस्तकें लिखी हैं । वे तो शक्तिपीठों, प्रज्ञा संस्थानों एवं पुराने नैष्ठिक परिजनों के यहाँ स्थापित करके उनके माध्यम से उन्हें प्रसारित करने की व्यवस्था को अधिक प्रभावी बनाया जा रहा है । विद्या विस्तार यज्ञों के दौरान जुड़ने वाले श्रद्धालुओं, साधकों के घरों में उनकी श्रद्धा एवं सार्मथ्य के अनुसार छोटे-बड़े सैट स्थापित करने-कराने का सुनिश्चित लक्ष्य हर आयोजन के साथ रखा जाना है । इस संदर्भ में किए गये निर्धारण इस प्रकार हैं- 

(क) छोटा गायत्री सैट -जो भी श्रद्धालु आयोजन के लिए साधना में भाग ले रहे हैं, उनमें प्रत्येक परिवार के पीछे कम से कम एक सैट इस साहित्य का स्थापित कराया जाय-  पुस्तकों का विवरण (कुल मूल्य-२१ रु.) 

१. गायत्री की दैनिक साधना-४ रु. 
२. उपासना के दो चरण जप और ध्यान-४ रु. 
३. आद्यशक्ति गायत्री की समर्थ साधना-४ रु. 
४. गायत्री विषयक शंका समाधान-४ रु. 
५. दो महान अवलम्बन -

(ख) छोटा क्रांतिधर्मी सैट-आयोजन के क्रम में जिन विचारशील समाजनिष्ठ लोगों का जुड़ाव हो, उनके यहाँ यह सैट स्थापित कराने का लक्ष्य रखा जाना चाहिए । युगऋषि के प्रौढ़तम विचारों की जानकारी इससे जन-जन में फैलेगी । 

पुस्तकों का विवरण (कुल मूल्य-३२ रु.) 
१. सतयुग की वापसी-४ रु. 
२. परिवर्तन के महान क्षण-४ रु. 
३. मनःस्थिति बदले तो परिस्थिति बदले-४ रु. 
४. जीवन देवता की साधना-आराधना-६ रु. 
५. समस्यायें आज की, समाधान कल के-४ रु. 
६. स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा-६ रु. 
७. हमारे प्रमुख संस्थान-४ रु. 

उक्त दोनों सेटों में से कोई एक अथवा दोनों उपयुक्त श्रद्धालुओं के यहाँ स्थापित कराये जा सकते हैं । प्रत्येक आयोजनकर्ता अपने क्षेत्र का जायजा लेकर लक्ष्य निश्चित करें तथा उस अनुसार सैट पहले से मँगाने की व्यवस्था निकटवर्ती साहित्य विस्तार पटल अथवा जिला संगठन के माध्यम से बना लें । विस्तार पटल से प्राप्त करने पर उन पर २५ प्रतिशत छूट मिल सकती है । यदि भावनाशीलों से २५ प्रतिशत अनुदान लेने की व्यवस्था बनाई जाये, तो ब्रह्मभोज साहित्य के क्रम में श्रद्धालुओं को वह सैट ५० प्रतिशत मूल्य पर दिये जा सकते हैं । 

(ग) नैष्ठिक परिजनों के यहाँ -पुराने नैष्ठिक परिजनों के यहाँ बड़े गायत्री सैट, पूरे क्रांतिधर्मी सैट तथा प्रज्ञापुराण (४ खण्ड) या प्रज्ञोपनिषद् (६ खण्ड) स्थापित करने तथा उनके स्वाध्याय का क्रम चलाया जाने का लक्ष्य भी विद्या विस्तार के अन्तर्गत रखना जरूरी है । यदि अपने अग्रदूतों के मन-मस्तिष्क में ही युगऋषि के विचार सूत्र जीवन्त रूप में न होंगे तो बात कैसे बनेगी? 

अन्य उपक्रम 
उक्त अनिवार्य क्रमों के लिए तो व्यवस्था बनानी ही चाहिए, यह तो न्यूनतम की बात हुई । प्राण-वानों को तो उससे आगे की बात भी सोचनी चाहिए । जैसे-१. झोला पुस्तकालय-प्रत्येक नये क्षेत्र में कुछ प्राणवान परिजनों को झोला पुस्तकालय चलाने के लिए संकल्पित कराया जाना चाहिए । पूज्य गुरुदेव ने झोला पुस्तकालय को 'अमृत कलश' की संज्ञा दी है । उसके माध्यम से अमृत तुल्य ज्ञान का सिंचन, करने वाले और पाने वाले दोनों को धन्य बनाता है । 

२. ज्ञान रथ-कस्बों या बड़े गाँवों में ज्ञानरथ चालू करने के सबल प्रयास किए जा सकते हैं । पूज्य गुरुदेव ने इसके लाभ स्पष्ट करते हुए लिखा है-''गोरस बेचन, हरि मिलन-एक पंथ दो काज ।'' इससे साहित्य विक्रय से होने वाला लाभ और ज्ञान विस्तार से होने वाला पुण्य, इन दोनों की प्राप्ति होती है । 

३. सम्पर्क से विस्तार-आयोजन क्षेत्रों में जन सम्पर्क एवं साहित्य विक्रय की प्रभावी व्यवस्था बनाकर समाज के विभिन्न वर्गों तक उनके अनुरूप पुस्तकें पहुँचाई जा सकती हैं । जैसे- 
* बिल्कुल नये लोगों को प्रारंभिक परिचय देने या आम लोगों में वितरण के लिए- 
१. इक्कीसवीं सदी का संविधान 
* गुरुसत्ता का परिचय 
१. संस्कृति पुरुष हमारे पूज्य गुरुदेव 
२. हमारी वसीयत और विरासत 
* गायत्री की न्यूनतम आवश्यक जानकारी 
१. गायत्री की दैनिक साधना 
२. गायत्री की सर्वोपयोगी सरल साधना 
३. सबके लिए सुलभ उपासना साधना 
४. युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण 
* आत्मोत्कर्ष के लिए 
१. मैं क्या हूँ, 
२. तत्त्वदृष्टि से बंधनमुक्ति 
३. अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है 
४. गहना कर्मणोगति । 
* नियमित सत्संग के क्रम में 
१. पूज्यवर की अमृतवाणी 
२.प्रज्ञापुराण 
३. क्रांतिधर्मी साहित्य (बीस पुस्तकें) 
* व्यक्तिगत साधना संबंधी मार्गदर्शन 
गायत्री महाविज्ञान भाग-१, भाग-२ एवं भाग-३ 
* प्रत्येक कार्यकर्त्ता के लिए पठनीय 
१. लोक सेवियों को दिशाबोध 
२. जीवन देवता की साधना-आराधना 
* संगठकों के लिए पठनीय 
संगठन की रीतिनीति 
* प्रबुद्ध जनों के लिए 
क्रांतिधर्मी साहित्य 
* अन्य संस्थानों को मिशन का परिचय 
१. छोटे फोल्डर एवं पत्रक 
२. संजीवनी विद्या का विस्तार 
* विद्यालय-विद्यार्थियों के लिए 
१. शिक्षा और विद्या के समन्वय से संबंधित ५ पुस्तकें 
२. विद्यार्थी जीवन की दिशाधारा 
* बहिनों के लिए 
महिला जागरण दिशा और धारा  उनका दर्द-उनका उत्साह 

पूज्य गुरुदेव के मन में यह दर्द हमेशा रहा कि जो लोग मुझे मानते है, वे मेरी बात क्यों नहीं मानते? उन्हें गुरु , ऋषि, विचारक माना है, तो उनके निर्देशों को भी तो मानें । जब र्निदेशों पर ध्यान ही नही दिया जायेगा, तो प्रगति की सीढ़ियों पर साधक चढेंगे कैसे? उनके निर्देश उनके साहित्य में हैं । उन पर बार-बार ध्यान लाया जाय, तो हर चरण पर पूरे किए जाने वाले अपने दायित्वों का बोध हो । इसलिए साहित्य के विस्तार और अध्ययन पर वे बहुत जोर देते रहे । अपने गुरु के निर्देश पाने और उनका निष्ठा पूर्वक पालन करने का जो उत्साह उनके अंदर उमड़ता रहा है । कुछ उसी प्रकार का उत्साह उनके निर्देशों के प्रति हमारा होना चाहिए । हमारे प्रयासों से उन्हें जितनी प्रसन्नता होगी, हमारे सौभाग्य का मार्ग भी उतना ही प्रशस्त होता चला जायेगा । 

ध्यान रखें, शीघ्रता करें 
आयोजनों में जिस साहित्य की खपत जितनी मात्रा में करने का संकल्प उभरे, उतनी मात्रा में साहित्य पहले से मँगा लेने की व्यवस्था कर लेनी चाहिए, अन्यथा समय पर उसे प्राप्त करना कठिन होगा । इसे यो समझें- 

इस श्रृंखला में २० हजार से अधिक आयोजन नये क्षेत्रों में होने वाले हैं । प्रत्येक आयोजन में यदि कम से कम पाँच-पाँच सैट भी स्थापित किए गये, तो भी एक लाख से अधिक सैटों की जरूरत पड़ेगी । यदि औसतन २० व्यक्तियों ने भी दीक्षा ली, तो कम से कम ४ लाख दीक्षा सैटों की जरूरत पड़ेगी । इतना साहित्य केन्द्र द्वारा एक साथ छापकर भेजना मुमकिन नहीं है । पहले से माँग आयेगी तो क्रमशः उसकी पूर्ति करते रहना संभव होगा । नवम्बर माह में जहाँ-जहाँ आयोजन हैं, वहाँ की माँग तो जल्दी से जल्दी शांतिकुंज के जोनल कार्यालय में फोन, फैक्स या ई-मेल से पहुँचा ही देना चाहिए ।

यज्ञायोजनों को युग साधना बनायें, युगशक्ति के श्रेष्ठतर अनुदान पायें ।

उल्लास जगाएँ, यो ही न बहाएँ
इस बात में कोई शक नहीं कि आयोजनों से जन उल्लास जागता है । उल्लास में यह विशेषता होती है कि वह जन जीवन में एक लहर पैदा कर देता है । उल्लास का एक प्रवाह बन जाता है, तो उसकी लपेट में उदासीन व्यक्ति भी आ जाता है । वास्तव में जन-उल्लास एक बड़ी शक्ति है और इसे जगा पाना है एक बड़ी कला ।

संयोग-सुयोग कहें, या गुरुकृपा कहें, गायत्री परिवार के हाथ यह कला लग गई है । छोटे-बड़े सभी प्रकार के महा आयोजनों में उस क्षेत्र के जन साधारण से लेकर विशिष्ट व्यक्तियों तक में एक उत्साह, उल्लास जाग उठता है । यह भी कह सकते हैं कि चूँकि यह योजना ईश्वरीय है, इसलिए प्रकृति का सहयोग, अनुग्रह सहज ही मिल जाता है । इसी के कारण जनउत्साह का ज्वार-सा आ जाता है । ऐसा होना भी चाहिए । युग निर्माण जैसे कार्य को सफलता पूर्वक आगे तभी बढ़ाया जा सकता है, जब उसके साथ जन-जन का जुड़ाव हो ।

स्वार्थ सिद्धि के लिए कोशिश करने वाले व्यापारी से लेकर लोकहित के समपिर्त संत तक यह जानते हैं कि उनके उद्देश्य की सिद्धि इसी में है कि अधिक से अधिक व्यक्ति उस दिशा में उत्साहित हो उठें । अस्तु जन उत्साह उभरना एक अच्छी सफलता है, किन्तु उस उत्साह से वाञ्छित प्रयोजन की सिद्धि होने लगे, यह उससे भी बड़ी सफलता है ।

यहाँ आकर अक्सर लोगों से चूक हो जाती है । वे लोग जन उल्लास जगाकर भी उसका समुचित लाभ उठा नहीं पाते । इसका कारण यही है कि प्राथमिक स्तर पर होने वाले छोटे लाभों में ही रम जाते हैं । इसलिए श्रेष्ठतर लाभों की दिशा में बढ़ते उनके कदम थम जाते हैं ।

छोटे लाभों पर अटक न जायें 
आयोजनों के साथ अक्सर लोगों के मन में यह कामना होती है कि आयोजन को लोग सराहें और उसमें जो खर्च हुआ है वह पूरा हो जाय । हो सके तो अपने संगठन, संस्थान के लिए कुछ धन बच जाय । ऐसा सोचना बुरा नहीं है, यह तो होना ही चाहिए । जहाँ जन उल्लास जुड़ जाता है वहाँ इतना तो हो ही जाता है, लेकिन इसी को सफलता का पैमाना मान लेना अपने आपको छोटे लाभों में ही अटका लेना है ।

पूज्य गुरुदेव कहते रहे हैं कि हमारा आन्दोलन ईश्वरी योजना के अन्तगर्त है । इससे जुड़ने वालों को लोक सम्मान, दैवी अनुदान एवं आत्म संतोष के बड़े-चढ़े लाभ मिल सकते हैं । किन्तु यदि हमारे विचार-हमारे संकल्प ही छोटे स्तर पर रह जाएँ, तो हम ऊँचे स्तर के लाभ कैसे पाएँ? यदि हम अपने द्वारा किए जाने वाले प्रयासों तथा हो सकने वाले लाभों का समीक्षात्मक अध्ययन करें तो उच्चतर लाभों तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है ।

लोक सम्मान-
यह तो जन उल्लास के साथ जुड़ा ही रहता है । आयोजनों में पयाप्त संख्या में नर-नारी भाग लेते हैं । धन-साधनों की कमी नहीं पड़ती तथा आयोजकों की खूब प्रशंसा की जाती है । लेकिन यह सब थोड़े समय के लिए ही होता है । यह लाभ छोटे स्तर का ही कहा जाएगा । यह लाभ तो नाटक, नौटंकी वालों को भी मिल जाता है । 

यदि जन उल्लास को ऐसी दिशा दे दी जाय कि उससे हर व्यक्ति परिवार एवं समाज को अपेक्षाकृत स्थाई लाभ हो तो आयोजकों को भी स्थाई लोक सम्मान के उच्चतर लाभ मिल सकते हैं ।

दैवी अनुग्रह-
जो कार्यक्रम दैवी योजना के अन्तर्गत हो रहे हैं, उनके साथ दैवी अनुग्रह तो जुड़ा ही रहेगा । सभी आयोजक यह अनुभव करते हैं कि कोई दैवी प्रवाह हमारी सहायता कर जाते हैं, लेकिन हम इस दैवी अनुग्रह का मूल्यांकन भी बड़े हलके स्तर का करते हैं । जन समर्थन और जन सहयोग पर्याप्त मात्रा में मिल जाये, कोई दुर्घटना न घटे, बस इतने भर से हम दैवी अनुग्रह की सार्थकता मान लेते हैं । 

दैवी योजना युग परिवर्तन की है । व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण आदि उसके विभिन्न चरण हैं । मनुष्य में देवत्व का उदय उसकी अनिवार्य शर्त र्है... । किन्तु इसके लिए हम न तो संकल्पित होते हैं और न उस स्तर के दैवी अनुग्रह की अपेक्षा रखते हैं । ऐसे में यदि हम दैवी अनुग्रह के हलके स्तर पर ही अटक जाते हैं तो शिकायत किससे करें ।

आत्म संतोष-
इसकी तो सही कल्पना भी हममें से शायद कुछ परिजन करते हैं । लौकिक प्रयासों से होने वाली सफलता से जो प्रतिष्ठा हमें मिलती है, उसी को हम आत्म संतोष मान लेते हैं । वास्तव में देखा जाय तो यह तो हमारी छिपी हुई लोकेषणा या अहंता की ही तुष्टि होती है । उसे ही हम आत्म संतोष मान लेते हैं । 

आत्मसंतोष बहुत बड़ी और बेशकीमती विभूति है । वह तो तभी उभरता है, जब आत्म चेतना स्वयं को विराट चेतना या परमात्म चेतना के निकट पहुँचता हुआ अनुभव करती है । इसके चरण निर्धारित हैं । युगऋषि ने उन्हें बहुत स्पष्ट एवं सुलभ रूप भी दिया है । वे कहते रहे हैं -

आत्मा को जब आत्म समीक्षा, आत्मशोधन, आत्म निर्माण एवं आत्म विकास की सीढ़ियों पर क्रमशः बढ़ाया-चढ़ाया जाता है तो पहले वह क्रमशः 'महत्' और 'परम' की निकटता अनुभव करती है । तभी आत्म संतोष उभरता है । जब आत्मा संतुष्ट होती है तो अपने अन्दर के दिव्य गुणों और आसाधारण क्षमताओं के पिटारे खोल देती है, जीवन धन्य हो जाता है । संसार के सब धन, पद, प्रतिष्ठा उसके सामने छोटे-फीके पड़ जाते हैं ।

लेकिन हम लोक सम्मान और दैव अनुग्रह की छोटी संकीर्ण परिधियों में ही स्वयं को कैद किये रहेगे तो आत्मा की दिव्यता के खुलने का बानक ही कैसे बनेगा?

तो संकल्प करें कि हमें आयोजन ढर्रे के नहीं करने हैं, उन्हें 'युग साधना' स्तर का बनाना है । उस आधार पर उच्च स्तरीय लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह पाना है । युगऋषि के तेजस्वी पुत्र या शिष्य कहलाने का आत्म संतोष पाना है । अपने अन्दर आत्मा के दिव्य भण्डार को उजागर करके लोक-परलोक दोनों को सफल बनाना है । तो क्या करें?

जो जुड़े, जुड़ा रहे, बढ़ता रहे
युगऋषि के निदेर्शों को सतत ध्यान में रखने तथा उन्हीं कसौटियों पर अपने को कसते रहने से बात बनेगी । दुनिया की वाहवाही या कुछ अधिक सुविधा-सामग्री पा लेने को ही सफलता मान लेने से तो अटकन-भटकन बनी ही रहेगी । गुरुवर कहते रहे हैं कि लोग तुम्हारी तारीफ करें, यह अच्छी बात है, इससे कार्य करने में सुगमता होगी । किन्तु तुम्हें इसकी कामना नहीं करनी चाहिए तथा उसी को अपनी सफलता का पैमाना नहीं मान लेना चाहिए ।

गुरुवर ने कहा है कि युगनिर्माण का संदेश लेकर हमें हर घर, हर व्यक्ति तक पहुँचाना है । जहाँ थोड़ी-सी आत्म जागृति दिखे, उसे स्थाई रूप से युगशक्ति के साथ, सृजन प्रयोजन के साथ जोड़ देना है । यज्ञायोजन में जो प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से श्रद्धा-सहयोग दे रहे हैं, उनमें निश्चित रूप से थोड़ी-बहुत तो आत्म जागृति है ही । उन्हें जोड़े रखने के लिए, क्रमशः आगे बढ़ाते रहने के लिए अपना पूरा कौशल और पुरुषार्थ लगाना होता है । युगशिल्पियों, सृजन सैनिकों की यही सवर्श्रेष्ठ साधना है । जो इस साधना में संकल्पित होकर जुटेंगे, इस हेतु तप की कसौटी पर स्वयं को कसेंगे, वे निश्चित रूप से उच्च स्तरीय लाभों के भागीदार, सुपात्र बनेंगे ।

यह यज्ञायोजन 'विद्या विस्तार आयोजन' कहे गये हैं । चूँकि यह दैवी योजना है, इसकी प्रत्येक अधिकृत घोषणा के साथ दिव्य चेतन प्रवाह जुड़े रहते हैं । जैसे बादल वनों के प्रभाव से बरस पड़ते हैं, उसी प्रकार दिव्य चेतना के अनुदान सत्संकल्पों एवं सत्पुरुषार्थो के प्रभाव से बरसने लगते हैं ।
कहा गया है 'सा विद्या या विमुक्तये ।' विद्या वह जो अनगढ़ प्रवृत्तियों के बंधनों से मुक्त करे दे । महाविद्या का विस्तार हो रहा है, उसके अनुग्रह से विश्व विनाश के कुचक्र से मुक्त होकर विकास के, उज्ज्वल भविष्य के पथ पर बढ़ेगा । जब इतने बड़े प्रयोग सफल होने हैं तो हम क्यों वंचित रहें ? हम छोटे लाभों के संकीर्ण दायरे में क्यों बँधे रह जाएँ । माता-महाविद्या का आशीर्वाद प्राप्त करें और अवरोधों से मुक्ति पाकर अग्रदूतों के गौरवमय मार्ग पर तेज गति से चल पड़ें ।

योगी बनें, वियोगी नहीं आशीर्वाद 
आयोजन के साथ जो भी श्रद्धा-उत्साह के साथ जुड़ें, हम उन्हें ऋषि के प्रयोजन से जोड़ दें तो हम 'योगी' कहलायेंगे । यदि जो आज आये वे कल बिछुड़ गये, तो हम योगी (जोड़ने वाले) नहीं, (वियोगी) बिछोह करने वाले कहलाएँगे । तो महाविद्या से यह योग विद्या प्राप्त करें और उसका श्रेष्ठ सदुपयोग कर दिखाएँ । ऐसा कुछ तो हम कर ही सकते हैं-

-जो नर-नारी यज्ञ के लिए श्रद्धापूवर्क जप, मंत्र लेखन या चालीसा पाठ कर रहे हैं, वे स्थाई रूप से गायत्री उपासना से जुड़ जायें । अभी वे सामयिक उपासक रहे, आगे स्थाई उपासक बन जायें ।

-उनमें से जो गायत्री की मंत्र दीक्षा ले लें उन्हें गुरुभाई मानकर उनको युगसाधक के स्तर तक विकसित करना अपना पवित्र कर्तव्य मानें । पुराने साधक उनके साथ नियमित संपर्क बनाने, उन्हें आगे बढ़ाते रहने के लिए जिम्मेदारी उठाएँ, इसके लिए औरों में भी उत्साह जगाएँ ।

-जो नर-नारी पत्रिकाओं के ग्राहक बनें और जिनके यहाँ युग साहित्य स्थापित कराया जाये, उन्हें स्वाध्यायी बनाने के लिए व्यक्तिगत जिम्मेदारियाँ सौंपी जायें, उन्हें तप मानकर निभाया जाय ।

-जिन्होंने यज्ञ के लिए अंशदान, समयदान, किया है वे ईश्वरीय योजना में सामयिक रूप से साझेदार बने हैं । उन्हें स्थाई रूप से साझेदार बनाया जाये । प्रेरणा, प्रोत्साहन, सहयोग देकर उनके श्रेष्ठ संस्कारों को जाग्रत् किया जाय ।

-समयदानियों को प्रशिक्षण की सुविधाएँ प्रदान की जायें तथा अंशदानियों को उसी अंश से पत्रिकाएँ मँगाने, साहित्य खरीदने के अलावा उनके इच्छित प्रयोजनों में लगाने की व्यवस्था बनाई जाय ।

-यदि विद्या विस्तार के क्रम में हमारे आयोजकों ने अपने अंदर लोगों को अपना बनाने की विद्या विकसित कर ली है तो समझो आत्म कल्याण और जन कल्याण, आत्म निर्माण और युग निर्माण के उभय पक्षीय लाभों का मार्ग प्रशस्त हो गया । फिर लोक सम्मान, प्रतिष्ठा, दैवी अनुग्रह तथा आत्म संतोष के उच्चस्तरीय लाभ हमारी झोली में निश्चित रूप से आने ही वाले हैं ।

युवा संगठनों के लिए युग निर्माण अभियान के सूत्रों को ध्यान में रखें

ऋषि-सूत्रों के अनुरूप बढ़ें 
युग निर्माण अभियान के अन्तर्गत युवाओं को संगठित एवं सक्रिय बनाने के लिए इन दिनों जगह-जगह प्रयास चल पड़े हैं । जो भी परिजन इस दिशा में कार्य कर रहे हैं, वे सब साधुवाद के पात्र हैं । किसी भी आन्दोलन की सफलता के लिए बुजुर्गों के अनुभव और युवाओं के उत्साह का संयोग होना जरूरी होता है, अस्तु समय की माँग के अनुरूप युवा शक्ति को नवसृजन आन्दोलन के लिए संगठित और नियोजित तो किया ही जाना चाहिए, किन्तु इस संदर्भ में युगऋषि के विचारों को ध्यान में रखते हुए कुछ सावधानियाँ बरतना जरूरी है । 

सामान्य रूप से लोग संगठन की विशालता को सफलता का मुख्य प्रमाण मानकर उसकी गुणवत्ता को भूलने लगते हैं । हमारा नारा है-'युग निर्माण कैसे होगा ? व्यक्ति के निर्माण से ।' इसी तरह निर्माण के तीन चरण (व्यक्ति, परिवार एवं समाज) में पहला चरण व्यक्ति निर्माण है । 

युवा-युवतियों में जोश खूब होता है । एक बार लहर चल पड़े, तो वे उस दिशा में बड़ी संख्या में उमंग के साथ चल पड़ते हैं । इसलिए प्रत्यक्ष कार्यक्रमों में उन्हें लगाना आसान होता है । इसी बिन्दु पर सावधानी बरतना भी जरूरी हो जाता है । 

पूज्य गुरुदेव कहते रहे हैं कि युग परिवर्तन की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान उन्हीं का हो सकता है जो पहले स्वयं के चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार में परिवर्तन ला सकते हों । प्रत्यक्ष कार्यक्रम तो हमारे लिए व्यायाम जैसे माध्यम हैं । जैसे व्यायाम का मुख्य उद्देश्य स्वास्थ्य सुधार और शक्ति संवर्धन है, उसी तरह युग निर्माणी कार्यक्रमों का उद्देश्य आत्म परिष्कार तथा आत्मशक्ति का जागरण है । युवा पीढ़ी में स्थूल कार्यक्रमों के प्रति तो आकर्षण होता है, किन्तु आज के विचार प्रदूषण भरे माहौल में आत्म परिष्कार जैसे मूल आधारों की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता । जबकि युग निर्माण आन्दोलन के अन्तर्गत युवा संगठन का उद्देश्य मुख्य रूप से यही है कि युवा शक्ति उत्कृष्ट व्यक्तित्व सम्पन्न और आदर्श निष्ठ, चरित्र निष्ठ युग सृजेताओं के रूप में उभरे और युग परिवर्तन के लिए मजबूत नींव या स्तंभों की भूमिका निभाये । 

इसीलिए अपने युवा-संगठन की रीति-नीति प्रचलित ढर्रे से भिन्न रहनी चाहिए । युवाओं की सहज प्रवृत्ति और मिशन की आवश्यकता को ध्यान में रखकर ही युवाओं के लिए कार्य नीति बनाई गई है । इस दिशा में लगे युवा एवं प्रौढ़ परिजनों को अपने उद्देश्य और रीति-नीति को बड़ी सूझ-बूझ तथा तत्परता पूर्वक लागू करना होगा । 

विवेकपूर्ण दिशा-धारा
यों तो युग निर्माण आन्दोलन के सर्वमान्य सूत्र काफी प्रचलित हैं-मनुष्य में देवत्व का उदय-धरती पर स्वर्ग का अवतरण । इसके लिए नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रांतियाँ हैं । इस हेतु व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण के चरण हैं । स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन के साथ ही सभ्य समाज की अवधारणा है । व्यक्तित्व विकास के लिए साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा कार्यों का नियमित अभ्यास आदि है । 

किन्तु प्रश्न वहीं आकर टिकता है कि आम युवक-युवतियों के गले इन्हें सीधे उतारा कैसे जाये ? युवाओं को तो जोशीले और प्रत्यक्ष कार्यक्रम अच्छे लगते हैं । इसलिए प्रारंभ करने के लिए ऐसे सूत्र निर्धारित किए गये हैं, जिनके आधार पर युवाओं को उत्साहित-आकर्षित भी किया जा सके तथा उनमें युग निर्माण के मूल उद्देश्यों को जोड़ देना संभव हो सके । वे इस प्रकार हैं- 

चार तेजस्वी नारे 
१. स्वस्थ युवा -सबल राष्ट्र 
२. शालीन युवा-श्रेष्ठ राष्ट्र 
३. स्वावलम्बी युवा-सम्पन्न राष्ट्र तथा 
४. सेवाभावी युवा-सुखी राष्ट्र । 

इन नारों में उत्साह के साथ ऐसा दिशा-बोध भी है, जिसके आधार पर नई पीढ़ी को वांछित व्यक्तित्व-सम्पन्न बनाया जा सकता है । अभीष्ट है कि युवक-युवतियाँ स्वस्थ, शालीन, स्वावलम्बी तथा सेवाभावी बनें तथा अपने विकास को ईश्वरोन्मुख न बना पाएँ, तो राष्ट्रोन्मुख तो बना ही लें । चारों सूत्रों की विभिन्न संभावनाओं को यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है । 

१. स्वस्थ युवा- कहा जाता है पहला सुख निरोगी काया । काया को धर्म साधना का आधार (शरीरमाद्यम् खलु धर्मसाधनम्) कहा गया है । युग निर्माण के सूत्रों में भी पहला चरण स्वस्थ शरीर है । इसलिए अपने संगठन में युवाओं को स्वास्थ्य साधना से जुड़ने की प्रेरणा दी जाती है । निश्चित रूप से जिस देश के युवा शरीर-मन से स्वस्थ होंगे, वह राष्ट्र सबल-मजबूत राष्ट्र बनकर उभरेगा । 

स्वास्थ्य के लिए पहले हलका योग-व्यायाम करने-कराने की प्रेरणा दी जाय । यह प्रत्यक्ष आकर्षक कार्यक्रम बन जायेगा । फिर व्यायाम के क्रम को डि्रल-कवायद जैसी बनाकर उन्हें अनुशासन में कार्य करने का संस्कार दिया जा सकता है । इसी के साथ आहार-विहार के संयमों को जोड़ने तथा हानिकारक आदतों को छोड़ने का क्रम भी चल पड़ता है । क्रमशः युवकों-युवतियों को सधे हुए स्काउट जैसा संस्कार दिया जा सकता है । 

२. शालीन युवा- युवा पीढ़ी शरीर से स्वस्थ-बलिष्ठ बने यह अच्छा है, किन्तु शरीर से बलिष्ठ तो गुण्डे और आतंकवादी भी होते हैं । इसलिए स्वस्थ होने के साथ उन्हें शालीन बनाने की भी साधना करानी होगी । पूज्य गुरुदेव का प्रसिद्ध वाक्य है-'शालीनता बिना मोल मिलती है, किन्तु उससे सब कुछ खरीदा जा सकता है।' शालीन व्यक्ति के प्रति समाज में विश्वास और सम्मान का भाव उभरता है । जिसके प्रति यह दो भाव होते हैं, उन्हें स्वाभाविक रूप से हर प्रकार का जन सहयोग मिलने लगता है । इसीलिए शालीनता के द्वारा सब कुछ खरीदे जाने की बात कही गई है । 

शालीनता के अन्तर्गत पहले वाणी-व्यवहार का शिष्टाचार तथा उसके बाद स्वच्छ मन के तमाम सूत्रों का अभ्यास कराया जा सकता है । निश्चित रूप से जिस देश के युवा स्वस्थ और शालीन बनेंगे, वह राष्ट्र, श्रेष्ठ राष्ट्र कहलायेगा । इसीलिए युग निर्माणी नारा है- युवा बनें सज्जन-शालीन, दें समाज को दिशा नवीन । 

३. स्वावलम्बी युवा-सच कहा जाय, तो युवाओं को सहज ही स्वावलम्बी होना चाहिए, बच्चे और बूढ़े परावलम्बी भी रहें, तो क्षम्य है । यहाँ स्वालम्बन को केवल आर्थिक स्वालम्बन तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता । वह तो एक श्रेष्ठ प्रवृत्ति है, आर्थिक स्वावलम्बन भी उसका अंग है । 

लम्बे समय तक गुलामी झेलने के कारण देखा जाता है कि आज भी युवाओं में स्वावलम्बी प्रवृत्ति की बहुत कमी है । वे अपने बूते अपना भविष्य बनाने के युवोचित पुरुषार्थ के स्थान पर समाज की अनगढ़ धारा में निरीह की तरह बहते देखे जाते हैं । 

आत्म गौरव के बोध का उनमें भारी अभाव है । वे अपने अन्दर मनुष्य होने, युवा होने, विश्व की सर्वश्रेष्ठ और सबसे पुरातन संस्कृति के वारिस होने, विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के नागरिक होने का गौरव कहाँ अनुभव कर पाते हैं? उन्हें अपने अन्दर भरी अद्भुत दिव्य सम्पदा तथा उसके उपयोग का बोध कहाँ है? इसीलिए पश्चिम की अनगढ़ नकल करके जीवन में तमाम समस्याएँ मोल लेते रहते हैं । 

विवेक बुद्धि-हमारे लिए क्या उपयोगी और क्या अनुपयोगी है, इसका निर्णय करने की क्षमता आज कितने युवाओं में है? वे तो अनगढ़ समाज की वाहवाही के आधार पर या प्रचलित ढर्रे के आधार पर अपने लिए मार्ग बनाना चाहते हैं । स्वयं अपना हित न समझ पाते हैं, न साध पाते हैं । 

अर्थ व्यवस्था-धन के उपार्जन एवं उपयोग की दिशा में अधिकांश नई पीढ़ी परावलम्बी है । मैनेजमैन्ट के उच्च स्तरीय कोर्स कर लेने पर भी वे नौकरी ही ढूँढ़ना चाहते हैं । अपनी व्यवस्था बुद्धि और मेहनत से बड़ी कम्पनियों को भारी लाभ कराते हैं और उसका एक छोटा अंश ही वेतन के रूप में पाते हैं । पूर्व राष्ट्रपति, देशरत्न डॉ. कलाम साहब कहते रहे हैं कि हमारे युवा नौकरी खोजने वाले नहीं, नौकरी देने वाले होने चाहिए । 

इसके साथ ही जो धन कमाते हैं, उसे भी विचार पूर्वक खर्च कहाँ कर पाते हैं । अधिकांश धन परम्परागत अनगढ़ प्रदर्शन में खर्च हो जाता है । अर्थात् धन की कमाई और खर्च दोनों ही मामलों में स्वावम्बन की प्रवृत्ति दिखाई नहीं देती । यदि यह प्रवृत्ति उभारी जा सके, तो हमारी युवा प्रतिभा सारे विश्व को नया प्रकाश देने में समर्थ है ।

इसी प्रकार मनोरंजन में स्वावलम्बी हों, तो मन को खराब करने वाले मनोरंजनों के स्थान पर साहित्य, संगीत, कला परक ऐसे मनोरंजन किए जा सकते हैं, जो मनुष्य की गरिमा भी बढ़ाएँ और सुख भी । 

कहने का तात्पर्य यही है कि स्वावलम्बन एक श्रेष्ठ प्रवृत्ति है, जो युवा चेतना के लिए सहज पाने योग्य है । यह सुनिश्चित है कि जहाँ ऐसे स्वावलम्बी युवा होंगे, वह राष्ट्र हर दृष्टि से सम्पन्न बनेगा । 

४. सेवाभावी युवा- युवावस्था ऊर्जा का भंडार लेकर आती है । प्रत्येक युवक-युवती में अपनी व्यक्तिगत जरूरतें पूरी करने की तुलना में कई गुनी कार्य क्षमता-ऊर्जा होती है । यदि ऊर्जा को दिशा न दी जाय, तो वह अवांछनीय दिशा में बह जाती है । युवाओं की अतिरिक्त ऊर्जा को यदि राष्ट्रहित, समाजहित जैसे सेवाकार्यों में न लगाया जायेगा, तो वह समस्याएँ पैदा करने में ही लग जायेगी । समस्याएँ पैदा होती हैं, तो उससे न समाज अछूता रहता है, न व्यक्ति । 

इसलिए हर युवा को जहाँ शालीनता, स्वालम्बन के नाते अपनी ऊर्जा, क्षमता, साधनों को बढ़ाने-बचाने का अभ्यास कराया जाना चाहिए, वहीं अतिरिक्त क्षमता को सेवाकार्यों में लगा देने का संस्कार भी दिया जाना चाहिए । जहाँ ऐसा नहीं होगा, वहाँ की युवा शक्ति नई-नई समस्याएँ पैदा करके समाज एवं राष्ट्र को दुःखी करती रहेगी । जहाँ सेवाभावी युवापीढ़ी होगी, वहीं 'सुख बाँटो, दुःख बँटाओ' का क्रम चलेगा । राष्ट्र सुखी बनेगा । अस्तु अपने युवा आन्दोलन को इन नारों के अनुरूप विकसित करने-कराने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए । 

दो आन्दोलन
जब युवा सेवाभावी बनेंगे, तो वे समाज हित के तमाम आन्दोलनों में भागीदारी कर सकेंगे; लेकिन युवा मानसिकता को देखते हुए उनके लिए दो आन्दोलन जरूरी हैं ? 

१. व्यसन-कुरीतियों से मुक्ति-इस दिशा में अपना नारा है- 'व्यसन से बचाओ-सृजन में लगाओ ।' कहने की जरूरत नहीं कि नशा, व्यसन तथा सामाजिक कुरीतियों में लगने वाले समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन को बचाकर उसका कुछ अंश भी सृजन में लगाया जा सके, तो सृजन के लिए संसाधनों की कमी न पड़े । 

२. आदर्श परिवार-आज परिवार टूट रहे हैं । उसका सबसे बड़ा खामियाजा नई पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है । पूज्य गुरुदेव ने कहा है-'बच्चों का पालन ही नहीं निर्माण भी करें' पर जहाँ परिवार भाव ही टूट रहा हो, वहाँ निर्माण की जहमत कौन उठाए? अस्तु युवकों को पारिवारिक सम्बन्धों-आदर्शों के प्रति भी जागरूक बनाया जाना है । परिवार संगठन की शुरुआत विवाह से ही होती है । इसलिए आदर्श विवाह भी इसी आन्दोलन के अंग बनेंगे । इसी आधार पर बेटे-बेटी तथा बेटी-बहू के बीच का भेद मिटेगा और नारी के प्रति होने वाले अत्याचार समाप्त हो जायेंगे । इसी आधार पर भाव-संवेदनाओं को पोषण मिलेगा तथा तमाम टेंशन-डिप्रेशनों से मुक्ति मिलेगी । 

अस्तु, हर क्षेत्र में युवाओं के प्रौढ़ मित्र-बुजुर्ग दोस्त उभरें तथा उक्त सूत्रों के आधार पर सृजनशील युवा संगठन खड़े करें । 

नये क्षेत्रों में थोड़े प्रयास से चल पड़ने वाले 'प्रज्ञा मंदिर' सक्रिय हों ।

विद्या विस्तार कार्यक्रमों के माध्यम से इस वर्ष हर क्षेत्र में सैकड़ों नये स्थानों में मिशन को प्रवेश मिलना सुनिश्चित है । आयोजनों में प्रभावित होने वाले श्रद्धालु नर-नारियों से सम्पर्क बनाकर उन्हें साधक, सहयोगी एवं प्रज्ञापुत्र स्तर तक विकसित करना होगा । उनसे सम्पर्क बनाने के लिए एक व्यवस्थित तंत्र बनाना होगा । इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूज्य गुरुदेव ने प्रज्ञा संस्थानों (गायत्री शक्तिपीठों, प्रज्ञापीठों आदि) की रूपरेखा बनाई । नये स्थानों पर थोड़ा भी उत्साह उभरते ही लोग सीधे प्रज्ञापीठ, शक्तिपीठ बनाने की बात सोचने लगते हैं । ऐसा सोचना और करना उचित नहीं है । यदि स्थान की आवश्यकता अनुभव हो, तो पहले वहाँ थोड़े प्रयासों, थोड़े संसाधनों से चल पड़ने वाले प्रज्ञा मंदिर सक्रिय किए जाने चाहिए । पूज्य गुरुदेव ने सन् १९८२ में ही प्रकाशित पुस्तक 'प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप और कार्यक्रम' में इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है । प्रस्तुत आलेख पूज्यवर द्वारा लिखित उद्धरणों को आधार बनाकर लिखा गया है । परिजन, जोन, उपजोन एवं जिला समन्वय समितियों के सदस्य इसे ध्यान पूर्वक पढ़ें-समझें और तदनुसार संतुलित कदम बढ़ाएँ । 

छोटे, किन्तु प्रभावी संस्थान
प्रज्ञा संस्थानों के अन्तर्गत सबसे छोटी स्थापना प्रज्ञा मन्दिर की है । इस माध्यम से उन कार्यक्रमों को छोटे रूप में क्रियान्वित किया जा सकता है, जो प्रज्ञापीठों में बड़े रूप में सम्पन्न किए जाते हैं । यह स्थापना अपने रहने के मकान के एक कमरे में भी की जा सकती है । अपना एक कमरा खाली न हो, तो किसी मित्र का, मन्दिर, धर्मशाला का या किराये का कमरा प्राप्त किया जाय । उसमें दो चौकियाँ ऊपर- नीचे रखकर पूजा मंच बनाया जाय । इस पर बड़े साइज का गायत्री माता का चित्र स्थापित किया जाय । नित्य का पूजा उपचार तथा आरती सहगान का प्रबन्ध किया जाय । 

इसी कमरे की दो आलमारियों में प्रज्ञा पुस्तकालय की नियमित व्यवस्था बनाई जाय । यह कार्य स्वयं ही दो घण्टे निकालने पर अत्यन्त सरलता एवं सफलता के साथ चलता रह सकता है । जहाँ सुविधा हो, वहाँ इस पुण्य-प्रक्रिया को नियमित रखने के लिए दो या अधिक घण्टों के लिए कोई पार्ट टाइम विद्यार्थी वेतन पर भी रखा जा सकता है । उस क्षेत्र के शिक्षित लोगों से सम्पर्क साधा जाय और नियमित रूप से पढ़ने के लिए सहमत किया जाय । जो उत्साह दिखाये, उनके पास सप्ताह में एक या दो बार (झोला पुस्तकालय के द्वारा) युग साहित्य पहुँचाने और वापिस लेने का क्रम बिठाया जाय । 

जिनके पास ये पुस्तकें पहुँचा करें, वे अपने परिवार के अन्य सदस्यों को भी पढ़ाया या सुनाया करें, ऐसी प्रेरणा भी उन्हें देनी चाहिए । विद्यार्थी अपनी कक्षा एवं पाठशाला के सहपाठियों को युग साहित्य की छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ अदल-बदल कर पढ़ाते रह सकते हैं । अध्यापकों, अध्यापिकाओं के लिये अपने छात्रों को घर ले जाकर इन पुस्तकों को पढ़ने की प्रेरणा देना और भी सरल है । चिकित्सक, दुकानदार, दफ्तर के बाबू, अधिकारी अपने सम्पर्क वालों में यह पढ़ाने-वापिस लेने की प्रक्रिया अत्यन्त सरलतापूर्वक चलाते रह सकते हैं । प्रज्ञा मन्दिर संस्थापकों को इनसे सम्पर्क साधना चाहिए और अपने प्रज्ञा पुस्तकालय की पुस्तकें इन क्षेत्रों में भी प्रसारित करने का प्रयत्न करना चाहिए । अपना निजी परिवार-पड़ोस एवं मित्र परिचितों का क्षेत्र तो इस प्रक्रिया से लाभानन्वित होता ही रह सकता है । 

प्रज्ञा मन्दिरों की व्यवस्था कोई तेजस्वी व्यक्ति अकेले भी कर सकता है । पर अच्छा यह हो कि ४-५ की टोली यह कार्य संभाले । जीवन्त महिलाएँ भी मिलजुल कर प्रज्ञा मन्दिर की गतिविधियाँ चला सकती हैं । सब प्रयास करें तो १५-२० घरों में ज्ञानघट तथा धर्मघट तो रखे ही जा सकते हैं । महिलाएँ धर्मघट में न्यूनतम एक मुट्ठी अन्न डालें । इतने से प्रज्ञा मन्दिर में नियुक्त कार्यकर्त्ता का निर्वाह खर्च निकल सकता है । इसे ब्रह्मभोज के समकक्ष पुण्य माना जाना चाहिए । 

पूज्य गुरुदेव कहते रहे हैं कि युगदेवता के साथ साझेदारी के लिए कम से कम आधा कप चाय अथवा रोटी की कीमत ज्ञानघट में नित्य श्रद्धापूर्वक डाली जाय । नैष्ठिक साधक माह में एक दिन की आय भी डाल सकते हैं । इस प्रकार हुई आय का पारदर्शी हिसाब रखा जाय और सहमति पूर्वक उचित खर्चा किया जाय । 

क्रमशः विकसित हों 
प्रज्ञा मंदिर अपना कार्यक्षेत्र उतना ही मानें, जहाँ तक अपने समयदानी परिजन सहज सम्पर्क क्रम चला सकें । कोशिश यह की जानी चाहिए कि आयोजनों में जहाँ तक के परिजनों की सक्रिय भागीदारी रही हो, वहाँ तक प्रकाश फैलाने की जिम्मेदारी उठाई जा सके । उस क्षेत्र को छः हिस्सों में बाँटकर सम्पर्क की कार्य योजना बनाई जा सकती है । यदि प्रतिदिन दो घंटे का भी समय दिया जाय, तो प्रतिदिन के एक हिस्से में पुस्तकें देने-लेने, आत्मीयता बढ़ाने जैसे क्रम आसानी से चलाये जा सकते हैं । पूज्य गुरुदेव ने लिखा है - 

सातवाँ दिन-छुट्टी का दिन साप्ताहिक सत्संग का रखा जाये । सामूहिक जप, संक्षिप्त हवन एवं सहगान के तीन उपासनात्मक कार्यक्रम और एक घण्टे का विचार-विनिमय चलने लगे, तो समझना चाहिए कि प्रज्ञापीठों में चलने वाले ज्ञानयज्ञ की संक्षिप्त विधि-व्यवस्था क्रियान्वित होने लगी । छोटे कमरे में हवन की व्यवस्था ठीक से न बन पड़े और धुएँ या गर्मी के कारण सत्संग में व्यवधान पड़े, तो अगरबत्ती के रूप में हवन और दीपक के रूप में घृत की आहुति की भावना करके चौबीस बार गायत्री मंत्र पाठ से भी संक्षिप्त हवन की आवश्यकता पूर्ण कर सकते हैं । संगीत समेत सहगान कीर्तन हो या बिना संगीत के, यह स्थानीय सुविधा-व्यवस्था पर निर्भर करता है । साप्ताहिक सत्संग में विचार विनिमय का विषय यह होना चाहिए कि उपस्थित लोग अपनी वर्तमान परिस्थिति में अपने सीमित क्षेत्र में प्रज्ञा अभियान को अग्रगामी बनाने के लिए क्या कुछ कर सकते हैं? 

प्रज्ञा मन्दिर में आने वालों तथा युग साहित्य पढ़ने वालों को स्थानीय 'प्रज्ञा परिवार' मान लिया जाये और उनमें से जो-जो सहमत होते चलें, उन-उन के जन्मदिन मनाने की व्यवस्था बनाते रहा जाये । प्रज्ञा मन्दिर के संचालक या सहयोगी सरलतापूर्वक इतने जन्म-दिवसोत्सवों का प्रबन्ध कर सकते हैं । नये लोगों को इस नई व्यवस्था की जानकारी नहीं होती, अतएव उनका मार्गदर्शन ही नहीं, सहयोग भी करना होता है । जन्म दिवस चाहे प्रज्ञा केन्द्र पर मनाये जायें, चाहे घरों पर; किन्तु उन्हें खर्चीला न बनाने दिया जाय । भेंट में पुष्प एवं सद्भावनाएँ तथा स्वागत में थोड़ा-थोड़ा प्रसाद देने का अनुशासन निभाया जाय । 

धीरे-धीरे संसाधन बढ़ायें 
जब सामान्य क्रम चल पड़े और सहयोग जुटने लगे, तो फिर संस्थान के लिए संसाधन भी बढ़ाये जा सकते हैं गुरुदेव ने झोला पुस्तकालय के साथ ज्ञानरथों को भी सक्रिय करने पर जोर दिया है । 

लिखा है-थोड़ा धन एकत्रित हो जाय, तो फेरी वालों की धकेल जैसा सादा-सस्ता ज्ञानरथ बनाया जा सकता है । उसके माध्यम से घर-घर पुस्तकें पहुँचाने, वापस लाने के अतिरिक्त बिक्री का सिलसिला भी जारी रखा जाय । बिक्री के कमीशन से नियुक्त कार्यकर्त्ता की आंशिक पूर्ति हो जाती है । जो कमी पड़े, उसकी पूर्ति ज्ञानघटों वाली राशि में से कर दी जाय । नियुक्त कार्यकर्त्ता भोजन के उपरान्त नित्य ज्ञानरथ लेकर साहित्य पढ़ाने और बेचने निकले । हाट-बाजारों से लेकर घरों, स्कूलों, कारखानों, घाटों, मन्दिरों आदि जनसंकुल स्थानों पर पहुँचे । प्रचार बोर्ड एवं सजे ज्ञानरथ को लेकर दर्शकों का ध्यान आकर्षित करे । चलाने वाला वाक्पटु हो तो रास्ता-चलतों को रोककर प्रज्ञा अभियान की, प्रस्तुत युग साहित्य की गरिमा से सर्वसाधारण को परिचित कराता रह सकता है । चटाई बिछाकर लोगों को बैठने और पढ़ने के लिए साहित्य देता रह सकता है । इस प्रकार बिक्री का सिलसिला भी चलता रहेगा और पढ़ाने-वापस लेने वाली प्रक्रिया भी भली प्रकार जारी रहेगी । 

आरम्भ में मन्दिर का श्रीगणेश करते समय अखण्ड ज्योति, युगशक्ति, महिला जागृति पत्रिकाओं के पुराने अंक संग्रह करके उन पर बाँसी कागज चिपका लिया जाय और उसे ही प्रारम्भिक पुस्तकालय मानकर चलाया जाय । इसके बाद ज्ञानघटों-घमर्घटों की राशि से प्रज्ञा मन्दिर के साहित्य एवं कार्यकर्त्ता के पारिश्रमिक की पूर्ति का कार्यक्रम चलता रह सकता है । 

जहाँ प्रज्ञा मन्दिरों के उपरोक्त सामान्य क्रियाकलाप चल पड़ें, वहाँ प्रज्ञापीठों द्वारा चलाये जाने वाले रचनात्मक एवं सुधारात्मक प्रयास भी प्रारम्भ किये जा सकते हैं । 

प्रगति के चरण बढ़ते रहें 
विकसित प्रज्ञा मंदिरों में से किसी को उनकी शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार नवचेतना विस्तार केन्द्र (स-३ के कायार्लय) जैसी मान्यता भी दी जा सकती है । जब पर्याप्त समयदानी एवं सहयोगी उभर आयें, संसाधन बढ़ने लगें, तो उन्हें प्रज्ञापीठ स्तर तक भी ले जाया जा सकता है । युगऋषि ने इस संदर्भ में लिखा है- 

प्रयास किया जाना चाहिए कि प्रज्ञा मन्दिर आगे चलकर प्रज्ञापीठ के रूप में विकसित हो जाएँ । उसके लिए छोटा मन्दिर तथा बहुउद्देश्यीय हॉल उपयुक्त स्थल पर बनाना होता है । हर प्रज्ञापीठ में बहुउद्देश्यीय 'हॉल' का निर्माण इसलिए किया जाता है कि दिन में दो-दो घण्टे की तीन-तीन पाठ-शालाएँ चलें । एक बच्चों की, दूसरी महिलाओं की, तीसरी प्रौढ़ों की । एक कक्षा स्वास्थ्य संवधर्न की, आसन-प्राणायाम, खेल-कूद, ड्रिल एवं आवश्यक प्रशिक्षण की चला करे । रात्रि को सामयिक समस्याओं के समाधान के निमित्त कथा-प्रवचन का सिलसिला चले । जगह कम पड़ती हो या लोगों के पहुँचने में असुविधा हो, तो कथा के लिए कोई दूसरा सुविधाजनक स्थान भी चुना जा सकता है । 

परमार्थ परायण जाग्रतात्माओं के लिए यह सब काम कठिन नहीं है, क्योंकि इस स्तर के व्यक्तियो की यह एक मौलिक विशेषता होती है-लक्ष्य को निजी स्वार्थ जितना ही महत्त्वपूर्ण मानना । सामान्य व्यक्ति परमार्थ-कार्य को करते समय मनोरंजन मात्र मानते हैं, जबकि मूर्धन्यो के लिए वह प्रमुख ही नहीं, सब कुछ बन जाता है । चुनाव जीतने के लिए लोग कितना श्रम, कितना व्यय कितना चातुर्य नियोजित करते हैं, इसे देखने से प्रतीत होता है कि लगन गहरी होने पर मनुष्य की कार्यक्षमता किस प्रकार सैकड़ों गुनी अधिक हो जाती है । उन दिनों खाने-सोने तक की बात भुला दी जाती है । उदासीनों और शत्रुओं तक से मदद की याचना की जाती है । कर्ज लेकर या सामान बेचकर भी चुनाव की व्यय राशि जुटाई जाती है । चुनाव जीतने जितनी लगन एवं उमंग यदि नवसृजन के लिये उभर सके, तो समझना चाहिये कि सामान्य परिस्थितियों का व्यक्ति भी उसी स्तर के पराक्रम करने लगेगा, जिसकी तुलना पवनपुत्र से की जा सके और उसे प्रज्ञापुत्र कहा जा सके । 

समय पहचानें-आगे आयें
निश्चित है कि ऐसे प्रयोग प्रारंभ करके उन्हें छोटे से बड़े स्वरूप तक पहुँचाने का कार्य कोई प्राणवान व्यक्ति ही कर सकते हैं । उन्हें समय पहचान कर स्वयं उछलकर आगे आना चाहिए । पूज्य गुरुदेव लिखते हैं- 

इन दिनों ऐसे प्राणवानों की ही पुकार महाकाल ने की है । उन्हीं को युग-देवता ने बुलाया है । मानवता की प्राणोन्मुख अन्तरात्मा ने ऐसे ही महामानवों पर अपनी आशा भरी दृष्टि केन्द्रित की है । आवश्यकता नहीं है कि ऐसे लोग धनी, प्रतिभाशाली, साधन सम्पन्न भी हों । इन सभी साधनों से रहित होते हुए हजारी किसान और शालीकलाँ के डेमन्या भील की तरह ऐसे अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किये जा सकते हैं, जिन्हें देखकर मृतकों के भी प्राण छटपटाने लगें । 

गतिविधियों के संचालन के लिए प्रज्ञा मंदिरों की संचालक मण्डली के सदस्य स्वयं तो नियमित समयदान किया ही करें, प्रज्ञा परिवार के अन्य लोगों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करें । हर दिन दो घंटे एवं साप्ताहिक अवकाश का पूरा दिन देते रहने भर से इतना बड़ा काम हो सकता है कि उस गाँव, कस्बे में नवजागरण के चिह्न प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगें । ये समयदानी टोलियाँ बनाकर योजनाबद्ध ढंग से जनसंपर्क के लिए निकलें और मिशन की गतिविधियों का परिचय कराने तथा सम्मिलित रहने के लिए प्रोत्साहित करते रहें, तो सहज ही सहयोगियों की संख्या बढ़ती रहेगी और वे सभी कार्यक्रम क्षेत्र में चल पड़ेंगे, जो अपेक्षित हैं । 

'प्रज्ञा मंदिर' ऐसी छोटी शक्तिपीठ है, जिसकी स्थापना तत्काल एवं एकाकी प्रयास से भी सम्भव हो सकती है । आगे चलकर सहयोगियों की सहायता से अपना भवन बनाने की योजना बन पड़े, तो इसके लिए जन सहयोग में भी कमी न पड़ेगी । बड़ी स्थापना के लिए देर तक प्रतीक्षा करने के स्थान पर यही उत्तम है कि प्रज्ञा अभियान को व्यापक बनाने के लिए छोटा शुभारंभ कर दिया जाय । इस दृष्टि से प्रज्ञा मंदिर की उपयोगिता समझी और समझाई जाय । 

प्रज्ञा संस्थानों के प्रारंभिक ढाँचे में खड़े होने पर उन्हें समर्थ और विकसित माना जाएगा और उन्हें वे अगले महत्त्वपूर्ण काम सौंपे जायेंगे, जिनसे प्रस्तुत विभीषिकाओं का निराकरण एवं उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण सुनिश्चित रूप से संभव हो सके । 

वर्तमान यज्ञ शृंखला के माध्यम से नये क्षेत्रों में जो प्राणवान लोग उभरें, उन्हें प्रज्ञा मंदिर संचालित करने के लिए प्रेरणा-प्रोत्साहन एवं सहयोग देने से इस दिशा में वांछित सफलता मिल सकती है ।

युगदेवता के नवसृजन अनुदानों से कोई भी वंचित न रह जाये

युग-वसंत अपने दिव्य अनुदानों से जन-जन की झोली भर देने के लिए हुलस रहा है । अधिकांश लोग इस अनुपम श्रेय-सौभाग्य के अवसरों का लाभ उठाने के प्रति जागरूक नहीं हैं । जिन्हें इस सत्य का अहसास है, जो इस दिशा में कुछ कर रहे हैं, उन्हें चाहिए कि इस दिव्य अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिए स्वयं भी प्रयासरत रहें तथा किसी प्रकार सम्पर्क में आने वाले श्रद्धालुजनों को भी नवसृजन यज्ञ के न्यूनतम कार्यक्रमों से जोड़ें । पू.गुरुदेव ने इस संदर्भ में सन् १९८२ में परिजनों से जो अपील की थी, उसे इस आलेख में सामयिक टिप्पणियों के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है । नैष्ठिक परिजन ध्यान से पढें, समझें, स्वयं भी लाभ उठाएँ तथा विद्या विस्तार यज्ञों, ज्ञानयज्ञों के माध्यम से जुड़ने वालों को भी इसके लिए प्रेरित करें । 

न्यूनतम सप्तसूत्र 
जो नितांत व्यस्त एवं विवश हैं, जो जनसम्पर्क के लिए नहीं जा सकते, सार्वजनिक सेवा का अवसर जिन्हें उपलब्ध नहीं है, उनके लिए घर रहकर भी आत्म निर्माण और परिवार निर्माण की सप्तसूत्री योजना प्रस्तुत की गयी है और आशा की गयी है कि इस सरल कार्यक्रम में से जितना जिससे बने, उतना तो व्यवहार में उतारें ही । व्यस्त प्रज्ञा परिजनों की सप्तसूत्री योजना इस प्रकार है - 

(१)उपासना में निष्ठा एवं नियमितता का अनुपात बढ़ाया जाय । गायत्री मंत्र का जप एवं प्रकाशपुंज सविता का ध्यान न्यूनतम पंद्रह मिनट तो किया ही जाय । घर के सदस्यों को भी आद्यशक्ति के प्रतीक के सम्मुख तीन मिनट नमन-वन्दन के लिए सहमत किया जाय । घर में आस्तिकता, धार्मिकता का वातावरण बनाया जाय । सामूहिक प्रार्थना, आरती, सहगान का क्रम चलाया जाय । 

गुरुवर का निर्देश है कि व्यक्तिगत उपासना भले ही न्यूनतम १५ मिनट की जाय, किन्तु उसमें निष्ठा एवं नियमितता का अनुपात बढ़ाया जाय । 

निष्ठा का अर्थ है श्रद्धा के अनुरूप कर्म तथा कर्म के अनुरूप श्रद्धा का जीवन संयोग बनाया जाय । ईश्वर के दिव्य प्रकाश, दिव्य प्रवाहों के प्रति श्रद्धा बढ़ाई जाय तथा जप और ध्यान के माध्यम से उसे अपने जीवन में आत्मसात् करने के लिए विकल होकर प्रयास किया जाय । 

नियमितता से ही स्थिर लाभ मिलते हैं । पुष्टिकारक व्यायाम या आहार थोड़ा भी किया जाय, किन्तु यदि वह नियमित है, तो उसके बड़े चमत्कारी परिणाम सामने आते हैं । नियमितता से कर्म विशेष में रस भी बढ़ने लगता है और कौशल भी । फिर थोड़े समय में भी बहुत लाभ प्राप्त होने लगते हैं । अन्यथा अनमने मन से लम्बे समय तक किए गये यांत्रिक जपों के लाभ भी संदिग्ध ही रह जाते हैं । 

व्यक्तिगत उपासना के साथ परिवार के सदस्यों को भी उपासना से जोड़ने तथा घर में आस्तिकता का वातावरण बनाने के लिए भी उन्होंने अनुरोध किया है । सूत्र सुगम-छोटे दिखने पर भी बड़े प्रभावी हैं । ठीक से अपनाने पर इनसे परिवार में सहयोग, सुख, शांति का संचार होने लगता है । 

जीवन साधना 
(२)जीवन साधना के लिए एकांत चिन्तन-मनन का कोई समय निर्धारित रखा जाय । आत्म-समीक्षा, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण, आत्म-विकास के लिए आज की स्थिति में जितना सम्भव हो, उसके लिए कदम बढ़ाया जाय । इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम का अभ्यास निरन्तर जारी रखा जाय । 

परमात्मा ने मनुष्य के अन्दर बीज रूप में दैवी सम्पदा के अथाह भंडार भर रखे हैं । उन्हें जाग्रत् करने, बिखरने न देने तथा सत्प्रयोजनों में संकल्प पूर्वक लगाते रहने की साधना की जाय, तो हर साधक के अन्दर महामानव जाग्रत् होना कठिन नहीं है । उपासना से प्राप्त ऊर्जा-प्रवाह आत्मजागरण की दिशा में प्रयुक्त करने की बात अधिकांश साधक भूलने लगते हैं । इस दिशा में स्वयं जागरूक रहने तथा साथियों को प्रेरणा-प्रोत्साहन देने से इसका समुचित लाभ मिल सकता है । एकांत चिंतन करके अपना मूल्यांकन करते रहने तथा प्रगति के अगले चरण निर्धारित करते रहने को ही मनन-चिंतन कहा गया है । अध्ययन या सत्संग से प्राप्त सूत्रों को मनन-चिंतन द्वारा ही पचाया, आत्मसात् किया जाता है । 

परिवार के पंचशील 
(३)परिवार को सुसंस्कारी, स्वावलम्बी बनाने का ध्यान भी उनके निर्वाह एवं भविष्य की तरह ही रखा जाय । घर के लोगों को साथ लेकर श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, शिष्टता, उदार सहकार के पारिवारिक पंचशीलों का अभ्यास कराया जाय । 

युगऋषि का निर्देश है कि परिवार के पालन-पोषण की तरह ही उनके अन्दर सुसंस्कारों, स्वावलम्बन की क्षमताओं को भी जाग्रत् करने की जिम्मेदारी हर समझदार-सद्गृहस्थ को निभानी चाहिए । उससे परिवार में सुख-शांति का वातावरण तो बनता ही है, परिवार महामानवों को गढ़ने वाली टकसाल-प्रयोगशाला का भी रूप ले लेता है । इससे आज के जीवन में अनचाहे ढंग से घुस पड़ने वाले तनावों-अवसादों (टेन्शन, डिप्रेशन) से भी छुटकारा मिल जाता है । 

स्वाध्याय की संजीवनी 
(४)घर के हर सदस्य को स्वाध्याय का चस्का लगाया जाय । छोटा घरेलू पुस्तकालय बनाया जाय, जिसमें प्रचार साहित्य पहुँचता रहे । हर सदस्य अबकी अपेक्षा कल अधिक शिक्षित बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाय और उसकी लिस्ट बनाई जाय । नित्य कथा-संस्मरण सुनाने की ज्ञानगोष्ठी हर घर में चले । 

विद्या विस्तार वर्ष में इस संदर्भ में बहुत कुछ लिखा जा चुका है । विद्या विस्तार साहित्य सैटों की स्थापना के साथ उनके स्वाध्याय का क्रम भी चलाया जाना जरूरी है । युगऋषि ने युग रोगों से बचने की अमोघ औषधि के रूप में तेजस्वी विचार प्रस्तुत किए हैं । जो सेवन करेंगे, उन्हें अवश्य लाभ मिलेगा । इसलिए उनका आग्रह है कि इसका अभ्यास ही नहीं किया जाय, इसका चस्का भी लगना चाहिए । जिसका चस्का लग जाता है, उसे पाने-करने के लिए व्यक्ति तड़प उठता है । स्वाध्याय की संजीवनी का भी चस्का लगना चाहिए । 

विवेक को फलित होने दें 
(५)हरीतिमा संवर्धन के लिए आँगन में तुलसी का थाँवला देवालय की तरह प्रतिष्ठित किया जाय । उसकी अर्ध्यजल, अगरबत्ती, परिक्रमा जैसी सरल पूजा करली जाय । घरवाड़ी, शाकवाटिका, आँगनवाड़ी, छप्परवाड़ी, छतवाड़ी लगानेका प्रबन्ध किया जाय । 

(६)अवांछनीयता उन्मूलन के लिये आवश्यक साहस जगाया जाय । अभ्यस्त मूढ़ मान्यताओं के लिए एवं अनैतिक अवांछनीयताओं को बुहारने-हटाने का विवेकयुक्त मनोबल उभारा जाय । खर्चीली शादियाँ, जाति-पाँति के आधार पर ऊँच-नीच, पर्दाप्रथा, भिक्षा-व्यवसाय, मृतकभोज जैसी कुरीतियों को, नशेबाजी, फैशन, आलस्य, अपव्ययिता, अशिष्टता जैसे कुप्रचलनों को अपने घर से हटाया जाय । जहाँ इनका प्रचलन हो, वहाँ असहयोग रखा जाय ।

युगऋषि सदैव कहते रहे हैं कि सत्प्रवृत्तियों को अपनाने और दुष्प्रवृत्तियों को त्यागने में ही विवेक की सार्थकता है । अपने विवेक को पैना-प्रभावशाली बनाने के लिए उन्होंने हरीतिमा संवर्धन के लिए थोड़े ही सही, सार्थक प्रयासों तथा कुरीतियों-दुर्व्यसनों को छोड़ने के लिए छोटे ही सही किन्तु साहसिक कदम बढ़ाने की अपील की है । इन्हें व्यक्तिगत-पारिवारिक स्तर पर तो शुरू कर ही देना चाहिए । 

आलोक वितरण
(७)सम्पर्क क्षेत्र में आलोक वितरण के लिए सहज ही मिलने-जुलने वालों को अपना प्रज्ञा साहित्य पढ़ने देने, वापस लेने का सिलसिला चलाया जाय । अपने कमरों में आदर्श वाक्यों का सैट टँगा रखा जाय । 

विचार दैवी सम्पदा के अन्तर्गत आते हैं । वितरण से यह सम्पदा बढ़ती है । इसलिए सेवाभाव से न सही, अपने लाभ की दृष्टि से सहज क्रम में सदि्वचारों का आलोक फैलाने का प्रयास किया जाना चाहिए । जो स्नेही लोग घर में आते-जाते हैं, उनसे स्वाध्याय की चर्चा करने और आग्रह पूर्वक पुस्तकें पढ़ने का आग्रह करने का क्रम कोई भी सद्गृहस्थ सहज ही चला सकता है । इसमें संकोच नहीं करना चाहिए । 

सद्वाक्यों को घर में स्टीकरों या हैंगरों या किसी भी रूप में स्थापित करना बहुत लाभप्रद सिद्ध होता है । परिवारीजनों एवं आने-जाने वालों के मनों पर इनका प्रभाव जाने-अनजाने में पड़ता ही रहता है । जिन घरों में विद्या विस्तार सैट स्थापित किए गये हैं, उनके यहाँ क्रमशः सद्वाक्य भी स्थापित करने-कराने का क्रम बनाया जाना चाहिए । नैष्ठिक परिजन इस दिशा में भी न्यूनतम लक्ष्य बनाकर कार्य करें तो अच्छे परिणाम उभर सकते हैं । 

सद्वाक्यों के स्टीकर, हैंगर कई तरह के बनाए जा चुके हैं । साहित्य विस्तार पटलों, शक्तिपीठों के माध्यम से मंगाकर इन्हें स्थापित करने की योजना बनाई जानी चाहिए । 

सार्थक दक्षिणा एवं दान 
गायत्री यज्ञों के अवसर पर कई भावनाशील देवदक्षिणा की श्रद्धांजलि प्रस्तुत करते हैं । हरिद्वार आने पर कई व्यक्ति गुरुदीक्षा, मंत्रदीक्षा की बात कहते हैं । उन सभी उदारमना लोगों से कहा गया है कि वे कुछ पैसे देने मात्र को गुरुदक्षिणा, देवदक्षिणा न समझें, वरन् यह विचार करें कि महाकाल की याचनाओं में से किन्हें किस मात्रा में किस प्रकार पूरी करने के लिये अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करेंगे । इसी पराक्रम-पुरुषार्थ के रूप में प्रकट होने वाली भावश्रद्धा ही सार्थक मानी जाती है । हमारे मनोयोग एवं समयदान का महत्वपूर्ण अंश उपरोक्त कार्यों में लगे तो उसे उच्चस्तरीय दक्षिणा समझना चाहिए । 

यज्ञों, संस्कारों में देवदक्षिणा संकल्प तो कराये जाते हैं, किन्तु उन संकल्पों का अनुपालन कराने, संकल्प कर्त्ताओं को प्रेरणा, प्रोत्साहन, सहयोग देने का तंत्र शायद ही कहीं बन पाता है । इसलिए संकल्पों को चरितार्थ करने-कराने का क्रम लड़खड़ाने लगता है । अब ऐसा न होने दिया जाय । देव शक्तियों या गुरुसत्ता के सामने किये-कराये गये संकल्पों को पूरी तत्परता से पूरा करने-कराने का तंत्र भी विकसित किया जाना चाहिए । 

दक्षिणा के साथ दान की शर्त भी जुड़ी हुई है । युग देवता ने हर जाग्रत् आत्मा से देवदक्षिणा की याचना की है । दक्षिणा का उल्लेख ऊपर हो चुका है । दान में समयदान, श्रमदान, अंशदान को नवसृजन जैसे महान प्रयोजन में लगाने की इन दिनों महती आवश्यकता है । अपने समय का एक अंश हम सब नियमित रूप से नवसृजन में लगायें और उसका विधिवत् संकल्प करें । इसी प्रकार अपनी आजीविका का एक महत्वपूर्ण अंश मासिक रूप से युग परिवर्तन के पुण्य प्रयोजन के लिए निश्चित रूप से निकालते रहने का निश्चय करें । यदाकदा कुछ दान-दक्षिणा देने से काम चलने वाला नहीं है । युग सृजेता जाग्रत् आत्माओं को नियमित समयदान, अंशदान का संकल्प श्रद्धापूर्वक करना चाहिए और उसका निष्ठापूर्वक निर्वाह करना चाहिए । 

समयदान और अंशदान काफी परिजन करते तो हैं, लेकिन उनमें नियमितता की कमी होती है । यदि समयदान-अंशदान के संकल्पों के साथ नये-पुराने परिजन न्याय कर सकें, तो उनके व्यक्तिगत जीवन में तो दिव्यता का प्रतिशत बढ़े ही, दैवी संपदा का लाभ भी मिले और नवसृजन अभियान भी नयी ऊँचाइयाँ छूने लगे । 

विद्या विस्तार यज्ञों-ज्ञानयज्ञों के माध्यम से जो परिजन जुड़े हैं, उन्हें तो इन ऋषि निर्दिष्ट सूत्रों से जोड़ना ही चाहिए । युग चेतना के दिव्य अनुदानों के असाधारण लाभ उन्हें इन्हीं सूत्रों के अनुपालन से मिलेंगे । यदि समीक्षा की जाय तो बड़ी संख्या में पुराने परिजन भी ऐसे मिलेंगे, जो इन सूत्रों के प्रति उदासीन हैं या केवल चिह्न पूजा करके इतिश्री कर लेते हैं । यदि वे भी इस भूल का सुधार कर लें तो उनके अंदर नवचेतना का नया संचार हो सकता है । युगऋषि की साक्षी में नैष्ठिक प्रयास करें और अनुपम लाभ कमाएँ । 

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