दो मित्र थे। एक तो दिन भर परिश्रम कर पेट भरता था, दूसरा मात्र चार घंटे जमकर मेहनत करता, शेष समय औरो की सेवा मे व साधना, स्वाध्याय मे लगाता। पहला व्यक्ति तो क्षीणकाय होता चला गया। दूसरा पूरे नगर मे प्रसिद्व, स्वस्थ व समद्ध भी होता चला गया। एक दिन दोनो की भेंट हुई । दूसरे ने पूछा - ‘‘तू तो दिनभर मेहनत करता है, फिर भी शरीर दुबला पतला ही है और मै मात्र चार घंटे जमकर मेहनत करता हूं। व्यायाम भी करता हूं तो तुझ से ज्यादा शक्तिशाली हूं। क्या बात है ? फिस उसने पूछा अच्छा एक बात बताओ, तुम मेहनत करते हो तो तुम्हारे मन मे क्या होता है।’’ उसने कहा-‘‘ मेरा ध्यान तो पैसा कमाने मे ही लगा रहता है।’’ दूसरा मित्र बोला-‘‘यही कारण है कि जब तक तुम उधर से मन हटाकर निश्चिंत भाव से परिश्रम नही करोगे, और की सेवा नहीं करोगे तो ऐसे ही बने रहोगे। हमेशा यह सोचो कि मेरी ताकत बढ़ रही है।’’ ऐसा ही हुआ और वह मित्र भी उसके समान होता चला गया। सारा खेल भावनाओं का है।
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें