शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

कौन अमीर और कौन गरीब?

एक बहुत धनी व्यक्ति अपने छोटे से लड़के को एक बार गाँव दिखाने ले गया ताकि उसका बेटा जान सके कि गरीब लोग कैसे रहते हैं. उन्होंने शहर से कुछ दूर अपने फार्म हाउस में दो दिन बिताये. फार्म हाउस के सामने ही एक गरीब परिवार रहता था. यात्रा से वापस लौटते समय पिता ने अपने पुत्र से पूछा – “बेटा, यात्रा कैसी रही?”

“बहुत अच्छी, पापा” – बेटे ने कहा.

“तो तुमने देखा कि गरीब लोग कैसे रहते हैं?”

“हाँ”.

“तो तुमने यात्रा से क्या सीखा?”

बेटे ने जवाब दिया – 
“मैंने देखा कि हमारे पास तो एक ही कुत्ता है जबकि उनके पास चार हैं. हमारा स्वीमिंग पूल तो बहुत छोटा है लेकिन वे बहुत बड़ी नहर में नहाते हैं. हमारे बगीचे में मंहगे लालटेन लगे हैं जबकि वे तारों भरे आकाश को देख सकते हैं. हमारे घर से तो दूर तक नहीं दिखता जबकि वे दूर-दूर की पहाडियां और घाटियाँ देख सकते हैं. हमारे नौकर हमारी देखभाल करते हैं लेकिन वे सभी का ख़याल रखते हैं. हम अपना खाना खरीदते हैं लेकिन वे अपना खाना खुद उगाते हैं. हमारे घर की रक्षा के लिए चारदीवारी है लेकिन उनके दोस्त उनकी रक्षा करते हैं”.

लड़के का पिता निरुत्तर हो गया.

मुल्ला नसरुद्दीन की बीवी का नाम

एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन और उसका एक दोस्त साथ में टहलते हुए अपनी-अपनी बीवी के बारे में बातचीत कर रहे थे. मुल्ला के दोस्त का ध्यान इस बात की और गया कि मुल्ला ने कभी भी अपनी बीवी का नाम नहीं लिया.

“तुम्हारी बीवी का नाम क्या है, मुल्ला?” – दोस्त ने पूछा.

“मुझे उसका नाम नहीं मालूम” – मुल्ला ने कहा.

“क्या!?” – दोस्त अचम्भे से बोला – “तुम्हारी शादी को कितने साल हो गए?”

“अट्ठाईस साल” – मुल्ला ने जवाब दिया, फिर कहा – “मुझे शुरुआत से ही ये लगता रहा कि हमारी शादी ज्यादा नहीं टिकेगी इसलिए मैंने उसका नाम जानने की कभी ज़हमत नहीं उठाई”.

बहुत से रिश्ते पूरी जिंदगी साथ चलते हैं लेकिन एक दूसरे को समझ नहीं पाते … 

और रिश्ते को खींचते चले जाते हैं ….

परंपरा

कई लोगों की भीड़ में मुल्ला नसरुद्दीन नमाज़ अदा करने के दौरान आगे झुका. उस दिन उसने कुछ ऊंचा कुरता पहना हुआ था. आगे झुकने पर उसका कुरता ऊपर चढ़ गया और उसकी कमर का निचला हिस्सा झलकने लगा.

मुल्ला के पीछे बैठे आदमी को यह देखकर अच्छा नहीं लगा इसलिए उसने मुल्ला के कुरते को थोड़ा नीचे खींच दिया.

मुल्ला ने फ़ौरन अपने आगे बैठे आदमी का कुरता नीचे खींच दिया.

आगेवाले आदमी ने पलटकर मुल्ला से हैरत से पूछा – “ये क्या करते हो मुल्ला?”

“मुझसे नहीं, पीछेवालों से पूछो” – मुल्ला ने कहा – “शुरुआत वहां से हुई है”.

किसी परंपरा को बिना सोचे समझे ढोने वालों के लिए 

शुरुआत कहीं से हुई हो … 

बुद्धिमत्ता तो उसकी विवेकशील परिणति मे ही है

निराला का दान

एक बार निराला को उनके एक प्रकाशक ने उनकी किताब की रायल्टी के एक हज़ार रुपये दिए। ध्यान दें, उन दिनों जब मशहूर फिल्मी सितारे भी दिहाडी पर काम किया करते थे, एक हज़ार रुपये बहुत बड़ी रकम थी। रुपयों की थैली लेकर निराला इक्के में बैठे हुए इलाहाबाद की एक सड़क से गुज़र रहे थे। राह में उनकी नज़र सड़क किनारे बैठी एक बूढी भिखारन पर पड़ी। ढलती उमर में भी बेचारी हाथ फैलाये भीख मांग रही थी। निराला ने इक्केवाले से रुकने को कहा और भिखारन के पास गए।

“अम्मा, आज कितनी भीख मिली?” – निराला ने पूछा।

“सुबह से कुछ नहीं मिला, बेटा”।

इस उत्तर को सुनकर निराला सोच में पड़ गए। बेटे के रहते माँ भला भीख कैसे मांग सकती है?

बूढी भिखारन के हाथ में एक रुपया रखते हुए निराला बोले – “माँ, अब कितने दिन भीख नहीं मांगोगी?”

“तीन दिन बेटा”।

“दस रुपये दे दूँ तो?”

“बीस दिन, बेटा”।

“सौ रुपये दे दूँ तो?

“छः महीने भीख नहीं मांगूंगी, बेटा”।

तपती दुपहरी में सड़क किनारे बैठी माँ मांगती रही और बेटा देता रहा। इक्केवाला समझ नहीं पा रहा था की आख़िर हो क्या रहा है! बेटे की थैली हलकी होती जा रही थी और माँ के भीख न मांगने की अवधि बढती जा रही थी। जब निराला ने रुपयों की आखिरी ढेरी बुढ़िया की झोली में उडेल दी तो बुढ़िया ख़ुशी से चीख पड़ी – 

“अब कभी भीख नहीं मांगूंगी बेटा, कभी नहीं!”

निराला ने संतोष की साँस ली, बुढ़िया के चरण छुए और इक्के में बैठकर घर को चले गए।

क्या यह बुढ़िया को दिया गया दान था या एक बेटे का अपनी दुखियारी माँ के कष्टों का निरूपण, या कुछ और?

प्रेमचंद का कोट

हिंदी के महानतम कथाकार प्रेमचंद का जीवन अत्यंत सादगीपूर्ण था. उनके पास एक पुराना कोट था जो फट गया था लेकिन वे उसी को पहने रहते थे.

उनकी पत्नी शिवरानी देवी ने कई बार उनसे नया कोट बनवाने के लिए कहा लेकिन प्रेमचंद ने हर बार पैसों की कमी बताकर बात टाल दी. एक दिन शिवरानी देवी ने उन्हें कुछ रुपये निकालकर दिए और कहा – “बाजा़र जाकर कोट के लिए अच्छा कपड़ा ले आइये.”

प्रेमचंद ने रुपये ले लिए और कहा – “ठीक है. आज कोट का कपड़ा आ जाएगा.”

शाम को उन्हें खाली हाथ लौटा देखकर शिवरानी देवी ने पूछा – “कोट का कपड़ा क्यों नहीं लाए?”

प्रेमचंद कुछ क्षणों के लिए चुप रहे, फिर बोले – “मैं कपड़ा लेने के लिए निकला ही था कि प्रैस का एक कर्मचारी आ गया. उसकी लड़की की शादी के लिए पैसों की कमी पड़ गई थी. उसने मुझे वह सब इतनी लाचारी और उदासी से बताया कि मुझसे रहा नहीं गया. मैंने कोट के रुपये उसे दे दिए. कोट तो फिर कभी बन सकता है लेकिन लड़की की शादी नहीं टल सकती.”

शिवरानी देवी मन मसोस कर धीरे से बोलीं – “वो नहीं तो तुम्हें कोई और मिल जाता. मैं पहले ही जानती थी कि तुम्हारे हाथों में पैसे देकर कोट कभी नहीं आ सकता.”

प्रेमचंद के चेहरे पर संतोष की मुस्कान खिली हुई थी.

यूनान का विख्यात दार्शनिक सुकरात

सुकरात को सूफियों की भाँति मौलिक शिक्षा और आचार द्वारा उदाहरण देना ही पसंद था। वस्तुत: उसके समसामयिक भी उसे सूफी समझते थे। सूफियों की भाँति साधारण शिक्षा तथा मानव सदाचार पर वह जोर देता था और उन्हीं की तरह पुरानी रूढ़ियों पर प्रहार करता था। वह कहता था, 

"सच्चा ज्ञान संभव है बशर्ते उसके लिए ठीक तौर पर प्रयत्न किया जाए; जो बातें हमारी समझ में आती हैं या हमारे सामने आई हैं, उन्हें तत्संबंधी घटनाओं पर हम परखें, इस तरह अनेक परखों के बाद हम एक सचाई पर पहुँच सकते हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं।'

बुद्ध की भाँति सुकरात ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा। बुद्ध के शिष्यों ने उनके जीवनकाल में ही उपदेशों को कंठस्थ करना शुरु किया था जिससे हम उनके उपदेशों को बहुत कुछ सीधे तौर पर जान सकते हैं; किंतु सुकरात के उपदेशों के बारे में यह भी सुविधा नहीं। सुकरात का क्या जीवनदर्शन था यह उसके आचरण से ही मालूम होता है, लेकिन उसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न लेखक भिन्न-भिन्न ढंग से करते हैं। कुछ लेखक सुक्रात की प्रसन्नमुखता और मर्यादित जीवनयोपभोग को दिखलाकर कहते हैं कि वह भोगी था। दूसरे लेखक शारीरिक कष्टों की ओर से उसकी बेपर्वाही तथा आवश्यकता पड़ने पर जीवनसुख को भी छोड़ने के लिए तैयार रहने को दिखलाकर उसे सादा जीवन का पक्षपाती बतलाते हैं। सुकरात को हवाई बहस पसंद न थी। वह अथेन्स के बहुत ही गरीब घर में पैदा हुआ था। गंभीर विद्वान् और ख्यातिप्राप्त हो जाने पर भी उसने वैवाहिक जीवन की लालसा नहीं रखी। ज्ञान का संग्रह और प्रसार, ये ही उसके जीवन के मुख्य लक्ष्य थे। उसके अधूरे कार्य को उसके शिष्य अफलातून और अरस्तू ने पूरा किया। इसके दर्शन को दो भागों में बाँटा जा सकता है, पहला सुक्रात का गुरु-शिष्य-यथार्थवाद और दूसरा अरस्तू का प्रयोगवाद।

तरुणों को बिगाड़ने, देवनिंदा और नास्तिक होने का झूठा दोष उसपर लगाया गया था और उसके लिए उसे जहर देकर मारने का दंड मिला था।

सुकरात ने जहर का प्याला खुशी-खुशी पिया और जान दे दी। उसे कारागार से भाग जाने का आग्रह उसे शिष्यों तथा स्नेहियों ने किया किंतु उसने कहा-

भाइयो, तुम्हारे इस प्रस्ताव का मैं आदर करता हूँ कि मैं यहाँ से भाग जाऊँ। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और प्राण के प्रति मोह होता है। भला प्राण देना कौन चाहता है? किंतु यह उन साधारण लोगों के लिए है जो लोग इस नश्वर शरीर को ही सब कुछ मानते हैं। आत्मा अमर है फिर इस शरीर से क्या डरना? हमारे शरीर में जो निवास करता है क्या उसका कोई कुछ बिगाड़ सकता है? आत्मा ऐसे शरीर को बार बार धारण करती है अत: इस क्षणिक शरीर की रक्षा के लिए भागना उचित नहीं है। क्या मैंने कोई अपराध किया है? जिन लोगों ने इसे अपराध बताया है उनकी बुद्धि पर अज्ञान का प्रकोप है। मैंने उस समय कहा था-विश्व कभी भी एक ही सिद्धांत की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। मानव मस्तिष्क की अपनी सीमाएँ हैं। विश्व को जानने और समझने के लिए अपने अंतस् के तम को हटा देना चाहिए। मनुष्य यह नश्वर कायामात्र नहीं, वह सजग और चेतन आत्मा में निवास करता है। इसलिए हमें आत्मानुसंधान की ओर ही मुख्य रूप से प्रवृत्त होना चाहिए। यह आवश्यक है कि हम अपने जीवन में सत्य, न्याय और ईमानदारी का अवलंबन करें। हमें यह बात मानकर ही आगे बढ़ना है कि शरीर नश्वर है। अच्छा है, नश्वर शरीर अपनी सीमा समाप्त कर चुका। टहलते-टहलते थक चुका हूँ। अब संसार रूपी रात्रि में लेटकर आराम कर रहा हूँ। सोने के बाद मेरे ऊपर चादर उड़ देना।

बच्चे मन के सच्चे

फ़्रायड एक बड़ा मनोवैज्ञानिक हुआ। अपनी पत्नी और अपने बच्चे के साथ एक दिन बगीचे में घूमने गया था। जब सांझ को वापस लौटने लगा, अंधेरा घिर गया, तो देखा दोनों ने कि बच्चा कहीं नदारद है। फ़्रायड की पत्नी घबड़ाई,उसने कहा कि बच्चा तो साथ नहीं है, कहां गया? बड़ा बगीचा था मीलों लंबा, अब रात को उसे कहां खोजेंगे? 

फ़्रायड ने क्या कहा? 

उसने कहा, तुमने उसे कहीं जाने को वर्जित तो नहीं किया था? कहीं जाने को मना तो नहीं किया था? 

उसकी स्त्री ने कहा, हां, मैंने मना किया था, फव्वारे पर मत जाना! 

तो उसने कहा, सबसे पहले फव्वारे पर चल कर देख लें। सौ में निन्यानबे मौके तो ये हैं कि वह वहीं मिल जाए, एक ही मौका है कि कहीं और हो। 

उसकी पत्नी चुप रही। जाकर देखा, वह फव्वारे पर पैर लटकाए हुए बैठा हुआ था। उसकी पत्नी ने पूछा कि यह आपने कैसे जाना?

उसने कहा, यह तो सीधा गणित है। मां-बाप जिन बातों की तरफ जाने से रोकते हैं, वे बातें आकर्षक हो जाती हैं। बच्चा उन बातों को जानने के लिए उत्सुकता से भर जाता है कि जाने। जिन बातों की तरफ मां-बाप ले जाना चाहते हैं, बच्चे की उत्सुकता समाप्त हो जाती है, उसका अहंकार जग जाता है, वह रुकावट डालता है, वह जाना नहीं चाहता। आप यह बात जान कर हैरान होंगी कि इस तथ्य ने आज तक मनुष्य के समाज को जितना नुकसान पहुंचाया है,किसी और ने नहीं। क्योंकि मां-बाप अच्छी बातों की तरफ ले जाना चाहते हैं, बच्चे का अहंकार अच्छी बातों के विरोध में हो जाता है। मां-बाप बुरी बातों से रोकते हैं, बच्चे की जिज्ञासा बुरी बातों की तरफ बढ़ जाती है। मां-बाप इस भांति अपने ही हाथों अपने बच्चों के शत्रु सिद्ध होते हैं।

इसलिए शायद कभी आपको यह खयाल न आया हो कि बहुत अच्छे घरों में बहुत अच्छे बच्चे पैदा नहीं होते। कभी नहीं होते। बहुत बड़े-बड़े लोगों के बच्चे तो बहुत निकम्मे साबित होते हैं। गांधी जैसे बड़े व्यक्ति का एक लड़का शराब पीया, मांस खाया, धर्म परिवर्तित किया। आश्चर्यजनक है! क्या हुआ यह? गांधी ने बहुत कोशिश की उसको अच्छा बनाने की, वह कोशिश दुश्मन बन गई।

तो एक बात तो यह समझ लें कि जिसको भी परिवर्तित करने का खयाल उठे, पहले तो स्वयं का जीवन उस दिशा में परिवर्तित हो जाना चाहिए। तो आपके जीवन की छाया, आपके जीवन का प्रभाव, बहुत अनजान रूप से बच्चे को प्रभावित करता है। आपकी बातें नहीं, आपके उपदेश नहीं। आपके जीवन की छाया बच्चे को परोक्ष रूप से प्रभावित करती है और उसके जीवन में परिवर्तन की बुनियाद बन जाती है।

और दूसरी बात, बच्चे को कभी भी दबाव डाल कर, आग्रह करके किसी अच्छी दिशा में ले जाने की कोशिश मत करना। वही बात अच्छी दिशा में जाने के लिए सबसे बड़ी दीवाल हो जाएगी। और हो भी सकता है, जब तक वह छोटा रहे, आपकी बात मान ले; क्योंकि कमजोर है और आप ताकतवर हैं, आप डरा सकते हैं, धमका सकते हैं, आप हिंसा कर सकते हैं उसके साथ। और यह मत सोचना कभी कि मां-बाप अपने बच्चों के साथ कैसे हिंसा करेंगे! मां-बाप ने इतनी हिंसा की है बच्चों के साथ जिसका कोई हिसाब नहीं है। दिखाई नहीं पड़ती। जब भी हम किसी को दबाते हैं तब हम हिंसा करते हैं। बच्चे के अहंकार को चोट लगती है। लेकिन वह कमजोर है, सहता है। 

आज नहीं कल जब वह बड़ा हो जाएगा और ताकत उसके हाथ में आएगी, तब तक आप बूढ़े हो जाएंगे, तब आप कमजोर हो जाएंगे, तब वह बदला लेगा। बूढ़े मां-बाप के साथ बच्चों का जो दुर्व्यवहार है उसका कारण मां-बाप ही हैं। बचपन में उन्होंने बच्चों के साथ जो किया है, बुढ़ापे में बच्चे उनके साथ करेंगे।

(सौजन्‍य से – ओशो न्‍यूज लेटर)


आत्मा कालातीत है

कोई पूछता था, 'आत्मा को कैसे पाया जाए? ब्रह्मं-उपलब्धि कैसे हो सकती है?'

आत्मा को पाने की बात ही मेरे देखे गलत है। वह प्राप्तव्य नहीं है। वह तो नित्य प्राप्त है। वह कोई वस्तु नहीं, जिसे लाना है। वह कोई लक्ष्य नहीं, जिसको साधना है। वह भविष्य में नहीं है कि उस तक पहुंचना है। वह है। 'है' का ही वह नाम है। वह वर्तमान है-नित्य वर्तमान। उसमें अतीत और भविष्य नहीं है। उसमें 'होना' नहीं है। वह शुद्ध नित्य अस्तित्व है।

फिर खोना किस स्तर पर हो गया है या खोने के आभास और पाने की प्यास कहां आ गयी है?

मैं को समझ लें तो जो आत्मा खोई नहीं जा सकती है, उसका खोना समझना आ सकता है। 'मैं' आत्मा नहीं है। न 'स्व' आत्मा है, न 'पर' आत्मा है। यह द्वैत वैचारिक है। यह द्वैत मन में है। मन आभास सत्ता है। वह कभी वर्तमान में नहीं होता है। वह या तो अतीत में होता है, या भविष्य में। न अतीत की सत्ता है, न भविष्य की। एक न हो गया है, एक अभी हुआ नहीं है। एक स्मृति में है, एक कल्पना में है। सत्ता में दोनों नहीं हैं। इस असत्ता से 'मैं' का जन्म होता है। 'मैं' विचार की उत्पत्ति है। काल भी विचार की उत्पत्ति है। विचार के कारण, 'मैं' के कारण, आत्मा आवरण में है। वह है, पर खोयी मालूम होती है। फिर यही 'मैं' यही विचार-प्रवाह इस तथाकथित खोयी आत्मा को खोजने चलता है। यह खोज असंभव है, क्योंकि इस खोज से 'मैं' और पुष्ट होता है- सशक्त होता है।

'मैं' के द्वारा आत्मा को खोजना, स्वप्न के द्वारा जागृति को खोजने जैसा है। 'मैं' के द्वारा नहीं, 'मैं' के विसर्जन से उसको पाना है। स्वप्न के जाते ही जागृति है, 'मैं' के जाते ही आत्मा है। आत्मा शून्यता है, क्योंकि पूर्णता है। उसमें 'स्व', 'पर' नहीं है। वह अद्वैत है। वह कालातीत है। विचार के, मन के जाते ही जाना जाता है कि उसे कभी खोया नहीं था।

इसलिए उसे खोजना नहीं है। खोज छोड़नी है और खोजने वाले को छोड़ना है। खोज और खोजी के मिटते ही खोज पूरी हो जाती है। 'मैं' को खोकर उसे पा लिया जाता है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

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