शनिवार, 26 दिसंबर 2009

हम नन्हें-मुन्ने बच्चे ही, इस देश की तकदीर हैं

राजस्थान के डूंगरपुर जिले के रास्तपाल गाँव की 19 जून, 1947 की घटना हैःउस गाँव की 10 वर्षीय कन्या काली अपने खेत से चारा सिर पर उठाकर आ रही थी। हाथ में हँसिया था। उसने देखा कि 'ट्रक के पीछे हमारे स्कूल के मास्टर साहब बँधे हैं और घसीटे जा रहे हैं।'

काली का शौर्य उभरा, वह ट्रक के आगे जा खड़ी हुई और बोली- "मेरे मास्टर को छोड़ दो।"

सिपाही- "ऐ छोकरी ! रास्ते से हट जा।" "नहीं हटूँगी। मेरे मास्टर साहब को ट्रक के पीछे बाँधकर क्यों घसीट रहे हो?" "मूर्ख लड़की ! गोली चला दूँगा।"

सिपाहियों ने बंदूक सामने रखी। फिर भी उस बहादुर लड़की ने उनकी परवाह न की और मास्टर को जिस रस्सी से ट्रक से बाँधा गया था उसको हँसिये काट डाला !

लेकिन निर्दयी सिपाहियों ने, अंग्रेजों के गुलामों ने धड़ाधड़ गोलियाँ बरसायीं। काली नाम की उस लड़की का शरीर तो मर गया लेकिन उसकी शूरता अभी भी याद की जाती है।

काली के मास्टर का नाम था सेंगाभाई। उसे क्यों घसीटा जा रहा था? क्योंकि वह कहता था कि 'इन वनवासियों की पढ़ाई बंद मत करो और इन्हें जबरदस्ती अपने धर्म से च्युत मत करो।'

अंग्रेजों ने देखा कि 'यह सेंगाभाई हमारा विरोध करता है सबको हमसे लोहा लेना सिखाता है तो उसको ट्रक से बाँधकर घसीटकर मरवा दो।'

वे दुष्ट लोग गाँव के इस मास्टर की इस ढँग से मृत्यु करवाना चाहते थे कि पूरे डूंगरपुर जिले मे दहशत फैल जाय ताकि कोई भी अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज न उठाये। लेकिन एक 10 वर्ष की कन्या ने ऐसी शूरता दिखाई कि सब देखते रह गये ! कैसा शौर्य ! कैसी देशभक्ति और कैसी धर्मनिष्ठा थी उस 10 वर्षीय कन्या की। बालको ! तुम छोटे नहीं हो।

हम बालक हैं तो क्या हुआ, उत्साही हैं हम वीर हैं।
हम नन्हें-मुन्ने बच्चे ही, इस देश की तकदीर हैं।।

तुम भी ऐसे बनो कि भारत फिर से विश्वगुरु पद पर आसीन हो जाय। आप अपने जीवनकाल में ही फिर से भारत को विश्वगुरु पद पर आसीन देखो

राजेन्द्रबाबू

राजेन्द्र बाबू बचपन में जिस विद्यालय में पढ़ते थे, वहाँ कड़ा अनुशासन था। एक बार राजेन्द्रबाबू मलेरिया के रोग से पीड़ित होने से परीक्षा बड़ी मुश्किल से दे पाये थे। एक दिन प्राचार्य उनके वर्ग में आकर कहने लगेः "प्यारे बच्चो ! मैं जिनके नाम बोल रहा हूँ वे सब विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं।" प्राचार्य ने नाम बोलना शुरु कर दिया। पूरी सूची खत्म हो गयी फिर भी राजेन्द्रबाबू का नाम नहीं आया। तब राजेन्द्रबाबू ने उठकर कहा- "साहब ! मेरा नाम नहीं आया।"

प्राचार्य ने गुस्से होकर कहा- "तुमने अनुशासन का भंग किया है। जो विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए हैं उनका ही नाम सूचि में है, समझे ? बैठ जाओ।" "लेकिन मैं पास हूँ।" "5 रूपये दंड।"

"आप भले दंड दीजिए, परंतु मैं पास हूँ।" "10 रूपये दंड।"

"आचार्यदेव ! भले मैं बीमार था, मुझे मलेरिया हुआ था लेकिन मैंने परीक्षा दी है और मैं उत्तीर्ण हुआ हूँ।" "15 रूपये दंड।" "मैं पास हूँ.... सच बोलता हूँ।" "20 रूपये दंड।"

"मैंने पेपर ठीक से लिखा था।" प्राचार्य क्रोधित हो गये कि मैं दंड बढ़ाता जा रहा हूँ फिर भी यह है कि अपनी जिद नहीं छोड़ता ! "25 रूपये दंड।" "मेरा अंतरात्मा नहीं मानता है कि मैं अनुत्तीर्ण हो गया हूँ।" जुर्माना बढ़ता जा रहा था। इतने में एक क्लर्क दौड़ता-दौड़ता आया और उसने प्राचार्य के कानों में कुछ कहा। फिर क्लर्क ने राजेन्द्रबाबू के करीब आकर कहाः "क्षमा करो। तुम पहले नंबर से पास हुए हो लेकिन साहब की इज्जत रखने के लिए अब तुम चुपचाप बैठ जाओ।

" राजेन्द्रबाबू नमस्कार कर के बैठ गये।

राजेन्द्रबाबू ने अपने हाथ से पेपर लिखा था। उन्हें दृढ़ विश्वास था कि मैं पास हूँ तो उन्हें कोई डिगा नहीं सका। आखिर उनकी ही जीत हुई। दृढ़ता से उन्हें कोई डिगा नहीं सका। आखिर उनकी ही जीत हुई। दृढ़ता में कितनी शक्ति है ! मानव यदि किसी भी कार्य को तत्परता से करे और दृढ़ विश्वास रखे तो अवश्य सफल हो सकता है।

चन्द्रशेखर आजाद

महान देशभक्त, क्रांतिकारी, वीर चन्द्रशेखर आजाद बड़े ही दृढ़प्रतिज्ञ थे। उनके गले में यज्ञोपवीत, जेब में गीता और साथ में पिस्तौल रहा करती थी। वे ईश्वरपरायण, बहादुर, संयमी और सदाचारी थे। एक बार वे अपने एक मित्र के घर ठहरे हुए थे। उनकी नवयुवती कन्या ने उन्हें कामजाल में फँसाना चाहा, आजाद ने डाँटकर कहा- 'इस बार तुम्हें क्षमा करता हूँ, भविष्य में ऐसा हुआ तो गोली से उड़ा दूँगा।' यह बात उन्होंने उसके पिता को भी बता दी और उनके यहाँ ठहरना तक बंद कर दिया। जिन दिनों आजाद भूमिगत होकर मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए ब्रिटिश हुकूमत से संघर्ष कर रहे थे, उन दिनों उनकी माँ जगरानी देवी अत्यन्त विपन्नावस्था में रह रही थीं। तन ढँकने को एक मोटी धोती तथा पेट भरने को दो रोटी व नमक भी उन्हें उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। अड़ोस-पड़ोस के लोग भी उनकी मदद नहीं करते थे। उन्हें भय था कि अंग्रेज पुलिस आजाद को सहायता देने के संदेह में उनकी ताड़ना करेगी। माँ की इस कष्टपूर्ण स्थिति का समाचार जब क्रांतिकारियों को मिला तो वे पीड़ा से तिलमिला उठे। एक क्रांतिकारी ने, जिसके पास संग्रहित धन रखा होता था, कुछ रुपये चन्द्रशेखर की माँ को भेज दिये। रुपये भेजने का समाचार जब आजाद को मिला तो वे क्रोधित हो गये और उस क्रांतिकारी की ओर पिस्तौल तानकर बोले- 'गद्दार ! यह तूने क्या किया ? यह पैसा मेरा नहीं है, राष्ट्र का है। संग्रहित धन का इस प्रकार अपव्यय कर तूने हमारी देशभक्ति को लांछित किया है। चन्द्रशेखर इसमें से एक पैसा भी व्यक्तिगत कार्यों में नहीं लगा सकता।' आजाद की यह अलौकिक प्रमाणिकता देखकर वह क्रांतिकारी दंग रह गया। अपराधी की भाँति वह नतमस्तक होकर खड़ा रहा। क्षणभर बाद आजाद पिस्तौल बगल में डालते हुए बोले-

'आज तो छोड़ दिया, परंतु भविष्य में ऐसी भूल की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए।'

देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले चन्द्रशेखर आजाद जैसे संयमी, सदाचारी देशभक्तों के पवित्र बलिदान से ही भारत अंग्रेजी शासन की दासता से मुक्त हो पाया है।

लाल बहादुर शास्त्री

एक लड़का काशी में हरिश्चन्द्र हाई स्कूल में पढ़ता था। उसका गाँव काशी से 8 मील दूर था। वह रोजाना वहाँ से पैदल चलकर आता, बीच में जो गंगा नदी बहती है उसे पार करता और फिर विद्यालय पहुँचता। उस जमाने में गंगा पार करने के लिए नाववाले को दो पैसे देने पड़ते थे। दो पैसे आने के और दो पैसे जाने के, कुल चार पैसे यानी पुराना एक आना। महीने में करीब दो रुपये हुए। जब सोने के एक तोले का भाव सौ रुपयों से भी कम था तब के दो रुपये। आज के तो पाँच-पच्चीस रुपये हो जायें। उस लड़के ने अपने माँ-बाप पर अतिरिक्त बोझा न पड़े इसलिए एक भी पैसे की माँग नहीं की। उसने तैरना सीख लिया। गर्मी हो, बारिश हो कि ठण्डी हो गंगा पार करके हाई स्कूल में जाना उसका क्रम हो गया। ऐसा करते-करते कितने ही महीने गुजर गये। एक बार पौष मास की ठण्डी में वह लड़का सुबह की स्कूल भरने के लिए गंगा में कूदा। तैरते-तैरते मझधार में आया। एक नाव में कुछ यात्री नदी पार कर रहे थे। उन्होंने देखा कि छोटा सा लड़का अभी डूब मरेगा। वे नाव को उसके पास ले गये और हाथ पकड़कर उसे नाव में खींच लिया। लड़के के मुख पर घबराहट या चिन्ता का कोई चिन्ह नहीं था। सब लोग दंग रह गये कि इतना छोटा है और इतना साहसी ! वे बोले-"तू अभी डूब मरता तो ? ऐसा साहस नहीं करना चाहिए।"

तब लड़का बोला- "साहस तो होना ही चाहिए ही। अगर अभी से साहस नहीं जुटाया तो जीवन में बड़े-बड़े कार्य कैसे कर पायेंगे ?" लोगों ने पूछा- "इस समय तैरने क्यों आये? दोपहर को नहाने आते ?" लड़का बोलता है- "मैं नदी में नहाने के लिए नहीं आया हूँ, मैं तो स्कूल जा रहा हूँ।"

"फिर नाव में बैठकर जाते ?" "रोज के चार पैसे आने-जाने के लगते हैं। मेरे गरीब माँ-बाप पर मुझे बोझ नहीं बनना है। मुझे तो अपने पैरों पर खड़े होना है। मेरा खर्च बढ़ेगा तो मेरे माँ-बाप की चिन्ता बढ़ेगी, उन्हें घर चलाना मुश्किल हो जायेगा।" लोग उस लड़के को आदर से देखते ही रह गये। वही साहसी लड़का आगे चलकर भारत का प्रधानमंत्री बना। वह लड़का था लाल बहादुर शास्त्री। शास्त्री जी उस पद पर भी सच्चाई, साहस, सरलता, ईमानदारी, सादगी, देशप्रेम आदि सदगुण और सदाचार के मूर्तिमन्त स्वरूप थे। ऐसे महामानव भले फिर थोड़े समय ही राज्य करें पर एक अनोखा प्रभाव छोड़ जाते हैं जनमानस पर।

महाराणा प्रताप की महानता


बात उन दिनों की है जब भामाशाह की सहायता से राणा प्रताप पुनः सेना एकत्र करके मुगलों के छक्के छुड़ाते हुए डूंगरपुर, बाँसवाड़ा आदि स्थानों पर अपना अधिकार जमाते जा रहे थे।

एक दिन राणा प्रताप अस्वस्थ थे, उन्हें तेज ज्वर था और युद्ध का नेतृत्व उनके सुपुत्र कुँवर अमर सिंह कर रहे थे। उनकी मुठभेड़ अब्दुर्रहीम खानखाना की सेना से हुई। खानखाना और उनकी सेना जान बचाकर भाग खड़ी हुई। अमर सिंह ने बचे हुए सैनिकों तथा खानखाना परिवार की महिलाओं को वहीं कैद कर लिया। जब यह समाचार महाराणा को मिला तो वे बहुत क्रुद्ध हुए और बोले- "किसी स्त्री पर राजपूत हाथ उठाये, यह मैं सहन नहीं कर सकता। यह हमारे लिए डूब मरने की बात है।" वे तेज ज्वर में ही युद्ध-भूमि के उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ खानखाना परिवार की महिलाएँ कैद थीं। राणा प्रताप खानखाना के बेगम से विनीत स्वर में बोलेः

"खानखाना मेरे बड़े भाई हैं। उनके रिश्ते से आप मेरी भाभी हैं। यद्यपि यह मस्तक आज तक किसी व्यक्ति के सामने नहीं झुका, परंतु मेरे पुत्र अमर सिंह ने आप लोगों को जो कैद कर लिया और उसके इस व्यवहार से आपको जो कष्ट हुआ उसके लिए मैं माफी चाहता हूँ और आप लोगों को ससम्मान मुगल छावनी में पहुँचाने का वचन देता हूँ।"

उधर हताश-निराश खानखाना जब अकबर के पास पहुँचा तो अकबर ने व्यंग्यभरी वाणी से उसका स्वागत किया- "जनानखाने की युद्ध-भूमि में छोड़कर तुम लोग जान बचाकर यहाँ तक कुशलता से पहुँच गये?" खानखाना मस्तक नीचा करके बोलेः "जहाँपनाह ! आप चाहे जितना शर्मिन्दा कर लें, परंतु राणा प्रताप के रहते वहाँ महिलाओं को कोई खतरा नहीं है।" तब तक खानखाना परिवार की महिलाएँ कुशलतापूर्वक वहाँ पहुँच गयीं। यह दृश्य देख अकबर गंभीर स्वर में खानखाना से कहने लगा- "राणा प्रताप ने तुम्हारे परिवार की बेगमों को यों ससम्मान पहुँचाकर तुम्हारी ही नहीं, पूरे मुगल खानदान की इज्जत को सम्मान दिया है। राणा प्रताप की महानता के आगे मेरा मस्तक झुका जा रहा है। राणा प्रताप जैसे उदार योद्धा को कोई गुलाम नहीं बना सकता।"

भाई मतिदास की धर्मनिष्ठा


औरंगजेब ने पूछा- "मतिदास कौन है ?"....तो भाई मतिदास ने आगे बढ़कर कहा- "मैं हूँ मतिदास। यदि गुरुजी आज्ञा दें तो मैं यहाँ बैठे-बैठे दिल्ली और लाहौर का सभी हाल बता सकता हूँ। तेरे किले की ईंट-से-ईंट बजा सकता हूँ।"

औरंगजेब गुर्राया और उसने भाई मतिदास को धर्म-परिवर्तन करने के लिए विवश करने के उद्देश्य से अनेक प्रकार की यातनाएँ देने की धमकी दी। खौलते हुए गरम तेल के कड़ाहे दिखाकर उनके मन में भय उत्पन्न करने का प्रयत्न किया, परंतु धर्मवीर पुरुष अपने प्राणों की चिन्ता नहीं किया करते। धर्म के लिए वे अपना जीवन उत्सर्ग कर देना श्रेष्ठ समझते हैं।

जब औरंगजेब की सभी धमकियाँ बेकार गयीं, सभी प्रयत्न असफल रहे, तो वह चिढ़ गया। उसने काजी को बुलाकर पूछा, "बताओ इसे क्या सजा दी जाये ?"

काजी ने कुरान की आयतों का हवाला देकर हुक्म सुनाया कि 'इस काफिर को इस्लाम ग्रहण न करने के आरोप में आरे से लकड़ी की तरह चीर दिया जाये।'

औरंगजेब ने सिपाहियों को काजी के आदेश का पालन करने का हुक्म जारी कर दिया।

दिल्ली के चाँदनी चौक में भाई मतिदास को दो खंभों के बीच रस्सों से कसकर बाँध दिया गया और सिपाहियों ने ऊपर से आरे के द्वारा उन्हें चीरना प्रारंभ किया। किंतु उन्होंने 'सी' तक नहीं की। औरंगजेब ने पाँच मिनट बाद फिर कहा- "अभी भी समय है। यदि तुम इस्लाम कबूल कर लो, तो तुम्हें छोड़ दिया जायेगा और धन-दौलत से मालामाल कर दिया जायेगा।" वीर मतिदास ने निर्भय होकर कहा- "मैं जीते जी अपना धर्म नहीं छोड़ूँगा।" ऐसे थे धर्मवीर मतिदास ! 

जहाँ आरे से चिरवाया गया, आज वह चौक 'भाई मतिदास चौक' के नाम से प्रसिद्ध है।

माथे पर तो भारत ही रहेगा

अपने ढाई वर्ष के अमरीकी प्रवास में स्वामी रामतीर्थ को भेंटस्वरूप जो प्रचुर धनराशि मिली थी, वह सब उन्होंने अन्य देशों के बुभुक्षितों के लिए समर्पित कर दी। उनके पास रह गयी केवल एक अमरीकी पोशाक। स्वामी राम ने अमरीका से वापस लौट आने के बाद वह पोशाक पहनी। कोट पैंट तो पहनने के बजाय उन्होंने कंधों से लटका लिये और अमरीकी जूते पाँव में डालकर खड़े हो गये, किंतु कीमती टोपी की जगह उन्होंने अपना सादा साफा ही सिर पर बाँधा।

जब उनसे पूछा गया कि 'इतना सुंदर हैट तो आपने पहना ही नहीं ?' तो बड़ी मस्ती से उन्होंने जवाब दिया- 'राम के सिर माथे पर तो हमेशा महान भारत ही रहेगा, अलबत्ता अमरीका पाँवों में पड़ा रह सकता है....' इतना कह उन्होंने नीचे झुककर मातृभूमि की मिट्टी उठायी और उसे माथे पर लगा लिया।

सबसे श्रेष्ठ संपत्ति - चरित्र


चरित्र मानव की श्रेष्ठ संपत्ति है, दुनिया की समस्त संपदाओं में महान संपदा है। पंचभूतों से निर्मित मानव-शरीर की मृत्यु के बाद, पंचमहाभूतों में विलीन होने के बाद भी जिसका अस्तित्व बना रहता है, वह है उसका चरित्र। चरित्रवान व्यक्ति ही समाज, राष्ट्र व विश्वसमुदाय का सही नेतृत्व और मार्गदर्शन कर सकता है। आज जनता को दुनियावी सुख-भोग व सुविधाओं की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी चरित्र की। अपने सुविधाओं की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी की चरित्र की। अपने चरित्र व सत्कर्मों से ही मानव चिर आदरणीय और पूजनीय हो जाता है।

स्वामी शिवानंद कहा करते थे-

"मनुष्य जीवन का सारांश है चरित्र। मनुष्य का चरित्रमात्र ही सदा जीवित रहता है। चरित्र का अर्जन नहीं किया गया तो ज्ञान का अर्जन भी किया जा सकता। अतः निष्कलंक चरित्र का निर्माण करें।"

अपने अलौकिक चरित्र के कारण ही आद्य शंकराचार्य, महात्मा बुद्ध, स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुष आज भी याद किये जाते हैं।

व्यक्तित्व का निर्माण चरित्र से ही होता है। बाह्य रूप से व्यक्ति कितना ही सुन्दर क्यों न हो, कितना ही निपुण गायक क्यों न हो, बड़े-से-बड़ा कवि या वैज्ञानिक क्यों न हो, पर यदि वह चरित्रवान न हुआ तो समाज में उसके लिए सम्मानित स्थान का सदा अभाव ही रहेगा। चरित्रहीन व्यक्ति आत्मसंतोष और आत्मसुख से वंचित रहता है। आत्मग्लानि व अशांति देर-सवेर चरित्रहीन व्यक्ति का पीछा करती ही है। चरित्रवान व्यक्ति के आस-पास आत्मसंतोष, आत्मशांति और सम्मान वैसे ही मंडराते हैं. जैसे कमल के इर्द-गिर्द भौंरे, मधु के इर्द-गिर्द मधुमक्खी व सरोवर के इर्द-गिर्द पानी के प्यासे।

चरित्र एक शक्तिशाली उपकरण है जो शांति, धैर्य, स्नेह, प्रेम, सरलता, नम्रता आदि दैवी गुणों को निखारता है। यह उस पुष्प की भाँति है जो अपना सौरभ सुदूर देशों तक फैलाता है। महान विचार तथा उज्जवल चरित्र वाले व्यक्ति का ओज चुंबक की भाँति प्रभावशाली होता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर सम्पूर्ण मानव-समुदाय को उत्तम चरित्र-निर्माण के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में दैवी गुणों का उपदेश किया है, जो मानवमात्र के लिए प्रेरणास्रोत हैं, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म अथवा संप्रदाय का हो। उन दैवी गुणों को प्रयत्नपूर्वक अपने आचरण में लाकर कोई भी व्यक्ति महान बन सकता है।

निष्कलंक चरित्र निर्माण के लिए नम्रता, अहिंसा, क्षमाशीलता, गुरुसेवा, शुचिता, आत्मसंयम, विषयों के प्रति अनासक्ति, निरहंकारिता, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि तथा दुःखों के प्रति अंतर्दृष्टि, निर्भयता, स्वच्छता, दानशीलता, स्वाध्याय, तपस्या, त्याग-परायणता, अलोलुपता, ईर्ष्या, अभिमान, कुटिलता व क्रोध का अभाव तथा शाँति और शौर्य जैसे गुण विकसित करने चाहिए।

कार्य करने पर एक प्रकार की आदत का भाव उदय होता है। आदत का बीज बोने से चरित्र का उदय और चरित्र का बीज बोने से भाग्य का उदय होता है। वर्तमान कर्मों से ही भाग्य बनता है, इसलिए सत्कर्म करने की आदत बना लें।

चित्त में विचार, अनुभव और कर्म से संस्कार मुद्रित होते हैं। व्यक्ति जो भी सोचता तथा कर्म करता है, वह सब यहाँ अमिट रूप से मुद्रित हो जाता है। व्यक्ति के मरणोपरांत भी ये संस्कार जीवित रहते हैं। इनके कारण ही मनुष्य संसार में बार-बार जन्मता-मरता रहता है।

दुश्चरित्र व्यक्ति सदा के लिए दुश्चरित्र हो गया – यह तर्क उचित नहीं है। अपने बुरे चरित्र व विचारों को बदलने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है। आम्रपाली वेश्या, मुगला डाकू, बिल्वमंगल, वेमना योगी, और भी कई नाम लिये जा सकते हैं। एक वेश्या के चँगुल में फँसे व्यक्ति बिल्वमंगल से संत सूरदास हो गये। पत्नी के प्रेम में दीवाने थे लेकिन पत्नी ने विवेक के दो शब्द सुनाये तो वे ही संत तुलसीदास हो गये। आम्रपाली वेश्या भगवान बुद्ध की परम भक्तिन बन कर सन्मार्ग पर चल पड़ी।

बिगड़ी जनम अनेक की सुधरे अब और आज।

यदि बुरे विचारों और बुरी भावनाओं का स्थान अच्छे विचारों और आदर्शों को दिया जाए तो मनुष्य सदगुणों के मार्ग में प्रगति कर सकता है। असत्यभाषी सत्यभाषी बन सकता है, दुष्चरित्र सच्चरित्र में परिवर्तित हो सकता है, डाकू एक नेक इन्सान ही नहीं ऋषि भी बन सकता है। व्यक्ति की आदतों, गुणों और आचारों की प्रतिपक्षी भावना (विरोधी गुणों की भावना) से बदला जा सकता है। सतत अभ्यास से अवश्य ही सफलता प्राप्त होती है। दृढ़ संकल्प और अदम्य साहस से जो व्यक्ति उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ता है, सफलता तो उसके चरण चूमती है।

चरित्र-निर्माण का अर्थ होता है आदतों का निर्माण। आदत को बदलने से चरित्र भी बदल जाता है। संकल्प, रूचि, ध्यान तथा श्रद्धा से स्वभाव में किसी भी क्षण परिवर्तन किया जा सकता है। योगाभ्यास द्वारा भी मनुष्य अपनी पुरानी क्षुद्र आदतों को त्याग कर नवीन कल्याणकारी आदतों को ग्रहण कर सकता है।

आज का भारतवासी अपनी बुरी आदतें बदलकर अच्छा इन्सान बनना तो दूर रहा, प्रत्युत पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करते हुए और ज्यादा बुरी आदतों का शिकार बनता जा रहा है, जो राष्ट्र के सामाजिक व नैतिक पतन का हेतु है।

जिस राष्ट्र में पहले राजा-महाराजा भी जीवन का वास्तविक रहस्य जानने के लिए, ईश्वरीय सुख प्राप्त करने के लिए राज-पाट, भौतिक सुख-सुविधाओं को त्यागकर ब्रह्मज्ञानी संतों की खोज करते थे, वहीं विषय-वासना व पाश्चात्य चकाचौंध पर लट्टू होकर कई भारतवासी अपना पतन आप आमंत्रित कर रहे हैं।

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

मानवता की मॉंग


स्व. लाल बहादुर शास्त्री जब केंद्रीय गृह मंत्री थे, तब उनकी कोठी ऐसी थी जिसके दो दरवाजे थे, एक जनपथ रोड़ की ओर था दूसरा अकबर रोड़ की ओर। एक दिन सिर पर लकड़ी के बोझ रखे कुछ मजदूर स्त्रियॉं इधर आई और चक्कर से बचने के लिए शास्त्री जी के बंगले में घुस पड़ी। उन्हें देखा तो चौकीदार बिगड़ खड़ा हुआ। वह उन्हें वापस
लौटाने लगा, तो शास्त्री जा आ गये। स्थिति समझते देर न लगी। चौकीदार को शांत करते हुए उन्होंने कहा-``देखो, इनके सिर पर कितना बौझ हैं, यदि इन्हें यहॉं से निकल जाने में थोड़ी राहत होती हैं, तो तुम इन्हें क्यों राकते हो | 

राजनीति में भी सच्चाई

एक दिन ब्रजमोहन व्यास ने मदनमोहन मालवीय से राजनीति के संबंध में कहा कि, महाकवि माघ ने तो अपने एक ही छंद में राजनीति की व्याख्या कर दी हैं। उस छंद में उन्होंने कहा हैं कि अपना उदय और शत्रु का विनाश ही केवल राजनीति हैं। मालवीय जी की मुस्कान घृणा में बदल गई। बोले-छि: ! यह तो टुच्ची राजनीति हैं, सच्ची श्लाघनीय राजनीति तो वह हैं, जिसमें अपने साथ-साथ दूसरों का भी अभ्यूदय होता है।´´

छाता हैं किस काम के लिए ?

कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था और वर्षा की झड़ी लगी थी। एक-एक करके नेता लोग निकले चले जा रहे थे, एक कोने में खड़े श्री व्यंकटेशनारायण तिवारी वर्षा रूकने की प्रतीक्षा में थे, अनेक नेता छाता लगाए हुए, उनके सामने से गुजरे और सभी ने केवल एक बात पूछी-``क्यों व्यंकटेश छाता नहीं लाए ?´´ अंत में आए महामना मालवीय, सिमटे खड़े तिवारी को देखते हुए बोले-``अरे, व्यकटेश, तुम यहॉं खड़े हो, आओ, छाते में हो लो।´´ महामना ने उन्हें खींचकर अपने छाते में ले ही लिया और बोले-``आखिर यह छाता हैं, किस काम के लिए ?´´

स्वर्ग नरक के बीच

मरणासन्न डार्विन को थोड़ा होश हो गया। उन्होंने अपनी पुत्री से कहा-``बेटी, मैं न स्वर्ग जाना चाहता हूं न नरक। मैं तो यदि परलोक कहीं होता होगा, तो उसके द्वार पर अड़ा रहूंगा और इन पंडितो को न स्वर्ग में प्रवेश करने दूंगा और न नरक में। अन्यथा ये इस लोक की तरह परलोक में भी पाखंड फैलाए बिना न मानेंगे।´´

द्रष्टिकोण

एक दार्शनिक से पूछा गया-``आप इस दुखी और असंतुष्ट संसार के बीच सुखी और संतुष्ट कैसे रहते हैं ?´´ उन्होने उत्तर दिया-``मैं अपनी ऑंखो का सही उपयोग जानता हूँ । जब मैं ऊपर देखता हूं, तो मुझे स्वर्ग याद आता हैं, जहॉं मुझे जाना हैं। नीचे देखता हूं तो यह सोचता हूँ कि जब मेरी कब्र बनेगी, तो कितनी कम जगह लगेगी और जब मैं दुनिया में चारों तरफ देखता हूँ तो मुझे मालूम होता हैं कि करोड़ों मनुष्य ऐसे हैं, जो मुझसे भी दु:खी हैं। इसी तरह संतोष पाता हूँ ।´´

भीख नहीं चाहिये



दया भाव दिखाते हुए एक सज्जन ने एक डालर का सिक्का बच्चे के हाथ में रखा और कहा-जाओ बेटे कुछ खाकर अपनी भूख मिटा लो।´´

सिक्का लौटाते हुए बच्चे ने स्वाभिमानपूर्वक कहा-``साहब ! मैं भीख मॉंगने नहीं आया, आपसे विनय करने आया हूँ कि मुझे किसी स्कूल में भरती करा दो, जहॉं में पढ़ सकूं।´´

उन सज्जन ने बच्चे से प्रभावित होकर उसे एक स्कूल में दाखिल करा दिया। दोनों पॉंवों का लंगड़ा यह लड़का ही एक दिन कुशल हवाबाज सैंडर्स के नाम से विख्यात हुआ।

निस्वार्थ निष्काम

निस्वार्थ समाज सेवा का दम भरने वाले एक अधकचरे समाजसेवी अपना बड़प्पन प्रदर्शित कर रहे थे-``मैं समाज के लिए सब कुछ करके भी प्रतिदान में कुछ नहीं चाहता, यश भी नहीं ?

उनके वक्तव्य के बाद इनके सामने एक पर्चा आया। उस पर लिखा था``यह वक्तव्य देने में क्या आपका यशभाव नहीं हैं, कि लोग आपकी निस्वार्थ सेवा भावना का लोहा मान जाये ?´´

इस पर उस सज्जन को कुछ बोलते न बना। 

यहॉं धन गड़ा हैं

मृत्यु के समय बेबीलोन की रानी नोटीक्रिस ने अपनी कब्र पर निम्न पंक्तियॉं लिखने का संकेत किया-``यहॉं पर अपार धन गड़ा हुआ हैं, कोई भी निर्धन और अशक्त मनुष्य कब्र खोदकर धन प्राप्त कर सकता हैं।´´

बहुत लम्बे समय के पश्चात् ईरान के बादशाह डेरियस ने जब बेबीलोन को जीत लिया, तो उसने कब्र खोदने का कार्य आरंभ किया, पर उसे एक भी पैसा नहीं मिला, केवल एक पत्थर मिला, जिस पर लिखा हुआ था-``तू मनुष्य नहीं हैं, नही तो तू मरे हुए को नहीं सताता।´´

मेड इन हांगकांग

खेड़ा (गुजरात) की बात हैं, एक जापानी व्यापारी किसी खरीद के लिए आए थे, एक दिन जब वह सज्जन हिसाब लिख रहे थे, तो उनकी पेंसिल टूट गई। पास ही खड़े एक भारतीय महोदय ने उन्हें दूसरी पेंसिल दे दी। जापानी भाई ने पेंसिल ले तो ली, पर लिखने की अपेक्षा उसके अक्षर पढ़ने लगे, लिखा था-``मेड इन हांगकांग।´´ उस पेंसिल को लौटाते हुए उन्होंने कहा-``नहीं भाई ! यह जापान की बनी नहीं हैं।´´ और आगे का हिसाब उन्होंने तभी लिखा, जब बाजार में दूसरी ``मेड इन जापान´´ पेंसिल आई। उनके इस देश प्रेम से भारतीय बहुत प्रभावित हुए।

प्यास वहीं बुझाना

गुरू गोविंद सिंह ने अपने 16 वर्षीय बड़े पुत्र अजीत सिंह को आज्ञा दी कि तलवार लो और युद्ध में जाओ। पिता की आज्ञा पाकर अजीत सिंह युद्ध में कूद पड़ा और वहीं काम आया। इसके बाद गुरू ने अपने द्वितीय पुत्र जोझार सिंह को वही आज्ञा दी। पुत्र ने इतना ही कहा-``पिता जी प्यास लगी हैं, पानी पी लूं।´´ इस पर पिता ने कहा, ``तुम्हारे भाई के पास खून की नदियॉं बह रही हैं। वहीं प्यास बुझा लेना।´´ जोझार सिंह उसी समय युद्ध क्षेत्र को चल दिया और वह अपने भाई का बदला लेते हुए मारा गया। 

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

जंगल का फूल

एक दिन पं. जवाहरलाल नेहरू जी ने शास्त्री को जंगल का फूल कह दिया। शास्त्री जी ने उत्तर दिया-:पंडित जी, जंगल में जो आजादी और स्वच्छता है, वह बगीचे में कहाँ ?

लेकिन पूजा में प्रयुक्त होते है बगीचे के फूल, देवों के शीश चढ़ते है बगीचे के फूल - पंडित जी ने तर्क दिया।

स्वाभाविक हास-परिहास में शास्त्री जी ने उत्तर दिया-`` देवता के सिर पर चढ़ने की अपेक्षा, क्या विश्व कल्याण के लिए सुंगन्ध बिखेरना क्या कम है। फूल देवताओ के लिए ही क्यो खिले, क्या दूसरे जीव तुच्छ है ।

पुत्री नही भानजी

हरिनारायण आप्टे बड़े उदार थे। उनकी भोजन बनाने वाली की पाँच-छह वर्ष की पुत्री का उनसे बड़ा स्नेह था। भोजन वे उसी के साथ करते थे। एक बार आप्टेजी के घर एक मेहमान आया। बच्ची को आप्टैजी के साथ भोजन करते देख उसने कहा-: प्रतीत होता है, यह आपकी प्रथम पुत्री की सुपुत्री है।´´आप्टेजी ने जवाब दिया-::पुत्री नही, यह मेरी भानजी है।´´

सेवा की साध

देशबंधु चितरंजनदास के दादा जगबंधु एक परोपकारी पुरूष थे। थके माँदे मुसाफिरों के लिए उन्होनें अपने गाँव में एक धर्मशाला बनावा रखी थी। उनके हृदय में सभी प्रकार के दुखिया मनुष्यों के प्रति सहानुभूति थी। एक दिन पालकी में बैठकर वे गाँव जा रहे थे। रास्ते में गर्मी से बेहाल और चलने में असमर्थ एक ब्राह्मण जा रहा था। जगबंधुदास स्वयं पालकी से उतर गए और उस ब्राह्मण को पालकी में बैठाकर गाँव पहुँचाया। 

अपना मुँह गंदा क्यो करूँ

पं. मदनमोहन मालवीय बम्बई में ठहरे हुए थे। रात्रि के समय बम्बई के प्रसिद्ध विद्वान पं. रमापति मिश्र उनसे मिलने के लिए आये। मिश्र जी बोले- ``मालवीय जी! मैंने तो अपने में बहुत सहनशीलता बढ़ा ली है। आप चाहे तो सौ गालियां देकर देख ले,मुझे क्रोध नही आयेगा´´। मालवीय जी हँसते हुए बोले- ``मिश्र जी! आपकी बात तो ठीक हे पर क्रोध की परीक्षा तो सौ गाली देने के बाद होगी। उससे पूर्व ही पहली गाली में मेरा मुँह गंदा हो जाएगा।´´ मालवीय जी के इस उत्तर को सुनकर मिश्र जी नत मस्तक हो गए। 

किसी ने बताया नही

मालोद ताल्लूक के एक गांव में लगभग 50 गाँवों के भीलों को एकत्र कर उन्हें बताया गया कि शराब पीना पाप है। भीलों को इस बात का आश्चर्य हुआ कि उन्हे ऊंची जाति वालों ने पहले क्यों नही बताया ? उन्होनें आजीवन शराब न पीने की प्रतिज्ञा की और 64 वर्ष बीत गए आज भी अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ है ।

प्रिय रस

प्रसिद्ध गुजराती कवि कलापी से एक बार एक शिक्षित व्यक्ति ने पूछा-``श्रृंगार, करूणा, वीर, आदि में से कौन सा रस आपको अधिक प्रिय है ?´´ समाज के लिए हितकर हो,मुझे वही रस प्रिय है, चाहे वह करूण रस हो या वीर रस। `कवि कलापी´ ने उत्तर दिया।

परोपकार के लिए स्वयं संकट में

स्वामी विवेकानन्द उन दिनों इंग्लैंड में थे। एक दिन वो अपने कुछ मित्रो के साथ देहात का भ्रमण करने कि लिए गये, तब अचानक एक बलिष्ठ सांड उधर से ही दौडता आ रहा था। उसे आता देखकर उनके साथ के लोग घबराकर इधर-उधर भागने लगे। 

इस भगदड़ में एक छोटी सी लड़की टक्कर खाकर नीचे गिर गई।वह सांड उस बालिका की ओर ही आ रहा था । स्वामी जी यह देखकर सावधान हो गये और दौड़कर सांड के सामने डट गए। सांड एकदम रूक गया और दूसरी ओर चल दिया। बच्ची के बचाव के लिए अपने को खतरे में डालने वाले स्वामी जी का यह साहस देखकर उनके सब साथी चकित रह गये।

वीर-प्रसविनी वीर माता


चित्तोड़ के राजकुमार अरि सिंह एक सुअर का पीछा कर रहे थे, सुअर एक खेत में घुस गया, जिसकी एक किसान बालिका रखवाली कर रही थी। बालिका ने कहा-``खबरदार घोड़े वाले शिकारी ! खेत में घुस कर फसल बरबाद न करना, मैं खुद सुअर को निकाल देती हूं।´´ 

वीर बालिका मोटा डंडा लेकर खेत में घुसी और डंडे से ही सुअर को मार डाला। राजकुमार युवती की वीरता पर मुग्ध हो गया, उसी से विवाह कर लिया। वीर हम्मीर देव इसी बालिका की सन्तान थे।

भीख लेना अपमान

एक हाथ, एंक पांव से अपंग लड़का रेल के डिब्बे में घुसा, एक सज्जन ने दयाभाव दिखाते हुए एक रूपया देना चाहा, तो उस बच्चे ने कहा-``श्रीमानजी ! भगवान् के दिये 12 अंगो में से 2 खराब हैं।´´ मुंगफली बेचकर उद्योग करने वाला यही लड़का ब्रेसब्रेन का महान् उद्योगपति हुआ।

निन्दा की चिन्ता

एक बार एक व्यक्ति ने स्वामी दयानंद से पूछा-``बहुत से व्यक्ति आपकी निन्दा करते हैं, इन्हें कैसे रोका जाये ?´´

स्वामी जी ने कहा-``निन्दा से तो ईश्वर भी नहीं बच सका, फिर हमारी तो बात ही क्या हैं ? यदि मनुष्य अपनी आत्मा के सामने सच्चा हैं तो उसे सारी दुनिया की परवाह नहीं करनी चाहिए ।´´

मनुष्य की शक्ति बड़ी हैं या बीमारी की

कलकत्ता में प्लेग फैला था। स्वामी विवेकानन्द जी सारी साधना-उपासना छोड़कर पीड़ितों की सेवा के लिए कलकत्ता चल पड़े, एक भक्त ने उन्हें रोकते हुए कहा-``आपको कुछ हो गया तो ?´´ स्वामी जी बीच में ही बोल पड़े-``चलों देखे तो मनुष्य की शक्ति बड़ी हैं या बीमारी की।´´ 

शिक्षा का समय

एक महिला शिकागो के प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री फ्रांसिस वेलेंड पार्कर से यह पूछने गई कि वह अपने बच्चों की शिक्षा कब से प्रारंभ करे ? पार्कर ने पूछा, आपका बच्चा कब जन्म लेगा ? महिला ने कहा,-``वह तो पॉंच वर्ष का हो गया हैं।´´ इस पर पार्कर ने कहा-``मेडम ! अब पूछने से क्या फायदा ? शिक्षा का सर्वोत्तम समय तो पॉंच वर्ष तक ही होता हैं, सो आपने यो ही गँवा दिया।´´ 

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