राजेन्द्र बाबू बचपन में जिस विद्यालय में पढ़ते थे, वहाँ कड़ा अनुशासन था। एक बार राजेन्द्रबाबू मलेरिया के रोग से पीड़ित होने से परीक्षा बड़ी मुश्किल से दे पाये थे। एक दिन प्राचार्य उनके वर्ग में आकर कहने लगेः "प्यारे बच्चो ! मैं जिनके नाम बोल रहा हूँ वे सब विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं।" प्राचार्य ने नाम बोलना शुरु कर दिया। पूरी सूची खत्म हो गयी फिर भी राजेन्द्रबाबू का नाम नहीं आया। तब राजेन्द्रबाबू ने उठकर कहा- "साहब ! मेरा नाम नहीं आया।"
प्राचार्य ने गुस्से होकर कहा- "तुमने अनुशासन का भंग किया है। जो विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए हैं उनका ही नाम सूचि में है, समझे ? बैठ जाओ।" "लेकिन मैं पास हूँ।" "5 रूपये दंड।"
"आप भले दंड दीजिए, परंतु मैं पास हूँ।" "10 रूपये दंड।"
"आचार्यदेव ! भले मैं बीमार था, मुझे मलेरिया हुआ था लेकिन मैंने परीक्षा दी है और मैं उत्तीर्ण हुआ हूँ।" "15 रूपये दंड।" "मैं पास हूँ.... सच बोलता हूँ।" "20 रूपये दंड।"
"मैंने पेपर ठीक से लिखा था।" प्राचार्य क्रोधित हो गये कि मैं दंड बढ़ाता जा रहा हूँ फिर भी यह है कि अपनी जिद नहीं छोड़ता ! "25 रूपये दंड।" "मेरा अंतरात्मा नहीं मानता है कि मैं अनुत्तीर्ण हो गया हूँ।" जुर्माना बढ़ता जा रहा था। इतने में एक क्लर्क दौड़ता-दौड़ता आया और उसने प्राचार्य के कानों में कुछ कहा। फिर क्लर्क ने राजेन्द्रबाबू के करीब आकर कहाः "क्षमा करो। तुम पहले नंबर से पास हुए हो लेकिन साहब की इज्जत रखने के लिए अब तुम चुपचाप बैठ जाओ।
" राजेन्द्रबाबू नमस्कार कर के बैठ गये।
राजेन्द्रबाबू ने अपने हाथ से पेपर लिखा था। उन्हें दृढ़ विश्वास था कि मैं पास हूँ तो उन्हें कोई डिगा नहीं सका। आखिर उनकी ही जीत हुई। दृढ़ता से उन्हें कोई डिगा नहीं सका। आखिर उनकी ही जीत हुई। दृढ़ता में कितनी शक्ति है ! मानव यदि किसी भी कार्य को तत्परता से करे और दृढ़ विश्वास रखे तो अवश्य सफल हो सकता है।
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