देशबंधु चितरंजनदास के दादा जगबंधु एक परोपकारी पुरूष थे। थके माँदे मुसाफिरों के लिए उन्होनें अपने गाँव में एक धर्मशाला बनावा रखी थी। उनके हृदय में सभी प्रकार के दुखिया मनुष्यों के प्रति सहानुभूति थी। एक दिन पालकी में बैठकर वे गाँव जा रहे थे। रास्ते में गर्मी से बेहाल और चलने में असमर्थ एक ब्राह्मण जा रहा था। जगबंधुदास स्वयं पालकी से उतर गए और उस ब्राह्मण को पालकी में बैठाकर गाँव पहुँचाया।
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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