आत्मज्ञानी संत एक गांव में पहुँचे। एक युवक आत्मज्ञान पाने के लिए उस संत की कुटिया में दौडा-दौड़ा पहुँचा। उसने जूतों को साइड में पटका, धड़ाम से दरवाजा खोला और संत को प्रणाम करते हुए कहने लगा- मुझे आत्मज्ञान देने की कृपा कीजिए। संत ने उसे भलीभाँति देखा और कहा-पहले जूतों की व्यवस्थित रखकर आओ और दरवाजे से माफी मांगो। उसने कहा-भला आत्मज्ञान का जूतों और दरवाजे से क्या संबंध ? संत ने कहा-जो व्यक्ति अपने जूतों तक को सही ढंग से उतारना नहीं जानता और दरवाजे को भी आदरपूर्वक नहीं खोलता वह भला आत्मज्ञान पाने का उत्तराधिकारी कैसे बन पाएगा और ऐसा व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त भी कर लेगा तो कौनसा तीर मार लेगा।
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें