शनिवार, 1 जनवरी 2011

रूपांतरण

प्रभु का स्मरण सतत हो, उनमें समर्पण निरंतर हो तो जीवन में अनोखा रूपांतरण घटित होता हैं, कुछ ऐसा, जैसे कि मिट्टी फूल बन जाती हैं और गंदगी खाद बनकर सुगंध में बदल जाती हैं। मनुष्य के विकार भी शक्तिया हैं, जो प्रभु के स्मरण और प्रभु में समर्पण से रूपांतरित हो जाती हैं। आज जो मनुष्य में पशु जैसा दीखता हैं, वहीं दिशा परिवर्तित होने से दिव्यता को उपलब्ध हो जाता हैं। 

जीवन का आध्यात्मिक सच यही हैं कि इसमें जो अदिव्य दीखता हैं, वह भी बीजरूप में दिव्य हैं। अपने दृष्टिकोण में यदि आध्यात्मिकता आ सके तो पता चलता हैं कि वस्तुतः अदिव्य एवं अपवित्र कुछ भी नहीं हैं। सभी कुछ यहां दिव्य हैं, भेद केवल उस दिव्यता की अभिव्यक्ति के हैं।

भगवान का स्मरण और भगवान में समर्पण होने से कुछ भी घृणा, द्वेष एवं बैर योग्य नहीं रह जाता । सच तो यह हैं कि जो एक छोर पर पशु हैं, वही दूसरे छोर पर प्रभु हैं। पशु और प्रभु में विरोध नहीं, विकास हैं। यह सत्य आत्मसात् हो सके तो फिर आत्मदमन, उत्पीड़न और संघर्ष व्यर्थ हो जाते हैं भला कहीं कोई अपने को टुकड़ों में तोड़कर सुखी होता हैं। यह तरीका आत्मशांति का नहीं, बल्कि आत्म-संताप का हैं। इससे ज्ञान नहीं, अज्ञान गहरा होता हैं।

स्वयं की चेतना के किसी अंश को नष्ट नहीं किया जा सकता। इसका दमन भी अधिक समय के लिए संभव नहीं हैं, क्योंकि जिसका दमन किया गया हैं, जिसे हराया गया हैं, उसका निरंतर दमन करना पड़ता, उसे निरंतर पराजित करना होता। यह पूर्ण विजय का मार्ग नहीं हैं। पूर्ण विजय का मार्ग तो रूपांतरण हैं। इसमें दमन नहीं, बोध हैं। इसमें गंदगी को हटाना नहीं, उसे खाद बनाना होता हैं। परमात्मा का निरंतर स्मरण और उनमें सतत समर्पण ही वह रसायनशास्त्र हैं, जिससे यह संभव हैं। 

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