सोमवार, 20 दिसंबर 2010

विवेक के चक्षु

युवराज भद्रबाहु अति सुंदर-सुगठित काया के स्वामी थे। एक दिन सरिता-विहार करते हुए श्मशान के सामने से गुजरे, जहा किसी मृतक का दाह-संस्कार हो रहा था। युवराज ने सहज ही कहा कि कोई कुरूप रहा होगा, जिसे जलाया जा रहा हैं। साथ चल रहे महामंत्री पुत्र सुकेशी ने कहा-‘‘नहीं युवराज ! यह हश्र तो सभी का होता हैं, नहीं तो सभी मृत शरीर सड़-गल जायेंगे।’’ न जाने कहा युवराज को गहरे में यह बात लग गई। किसी ने कभी यह बात उनसे नहीं कही थी। उन्हें अपना सौंदर्य अपना यौवन निरर्थक लगने लगा एवं वे उदास रहने लगे। राजा भी चिंतित व महारानी भी चिंतित। 
राजगुरू ने सब मामला समझ लिया। बुलाया, बैठाया और पूछा-‘‘युवराज ! आज तुम उस महल में रहते हो, कल वह रहने योग्य न रहे, तो दूसरे भवन में, प्रासाद में जाओगे या नहीं ?’’ भद्रबाहु ने कहा-‘‘जाना ही होगा गुरूवर !’’ ‘‘इसके बाद वह भवन गिर जाये-आग लग जाये तो तुम्हार कुछ बिगड़ा ?’’ युवराज बोले-‘‘कुछ भी नहीं गुरूदेव !’’ ‘‘तो फिर तुम आत्मा के भवन इस शरीर के जरा-जीर्ण होने की चिंता क्यों करते हो ? आत्मा द्वारा इसका त्याग और नाश तो स्वाभाविक हैं।’’ भद्रबाहु के विवेक के चक्षु खुल गए और वे आत्मा के महत्व को समझकर जीवन सार्थक करने हुत प्रयत्नशील हो गए।

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