अद्वैत का ज्ञान दरअसल अपनी आत्मा और आत्मीयता के अनंत, असीमित विस्तार का अनुभव हैं। ऐसा अनुभव, जिसमें जड़-चेतन सभी स्वयं की आत्मचेतना में समाए नजर आते हैं। पर्वत-नदी-झरने, वृक्ष-वनस्पति, देव-दानव-मानव, पशु-पक्षी, यहा तक कि कीट-पतंगो में अपनी ही आत्मा प्रकाशित नजर आती है। छोट-बड़े, ऊच-नीच, कुल-जाति, यहा तक कि जड़-चेतन का कोई भेद यहा मिथ्या और मायिक अनुभव होता है। आत्मा का यह अनंत विस्तीर्ण अनुभव ही ब्रम्ह हैं। जिन्हे कठिन तप से यह अनुभूति मिली, उन्होने इसे अभिव्यक्त करते हुए कहा-
‘अहं ब्रह्मास्मि’।
परन्तु जिन्होने तप और साधना को दरकिनार कर केवल पोथियों के पन्ने उलटे, उन्होने इस महान् अनुभव को अपने तर्को से विकृत और भौंडा बना दिया। वे सब ब्रह्मास्मि को भूल अहं में अटक गये। अपनी इस भटकन को उन्होने सही साबित करने के लिए शास्त्र रचे, तर्कजाल फैलाया। इसका प्रभाव जहा और जिन पर भी पड़ा, उन सभी के हृदय संवेदना रस से शून्य होते गये। इससे कुछ ऐसा हो गया, जैसे कि उतप्त गरमी के दिन आते हैं और सूरज की तपन से घरती सूख जाती हैं और दरारें पड़ जाती हैं।
इस शुष्कता से, कंठ सुखाने वाली तृषा से उबरने के लिए भक्ति की वर्षा चाहिये। अद्वैत ज्ञान के अनुभव को विकृत बनाने वाले सभी प्रयासों को समाप्त करने के लिए अनन्य भक्ति चाहिये। अनन्य का अर्थ हैं - अन्य अन्य न रहा, अब अनन्य हो गया। कहीं कोई अब दूसरा न रहा, सभी एक हो गये।
इस पथ पर चलने वाला भक्त पहले भक्ति में भीगकर स्वयं प्रभु के साथ अनन्य अनुभव करता हैं, फिर वह अपने प्रियतम परमात्मा में अनंत-अनंत ब्रम्हांडो की एकात्मता को अनुभव करता हैं। वह यह अनुभव कर लेता हैं कि अहंता के विसर्जित होते ही परमात्चेतनपा का अद्वैत स्वतः प्रकट हो जाता हैं। अद्वैत की इस मिठास में उसे केवल ‘ब्रह्मास्मि ’ का अनुभव होता हैं, ‘अहं’ तो यहा ढूढ़ने पर भी नहीं मिलता।
अखण्ड ज्योति जनवरी 2010
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