रविवार, 14 सितंबर 2008

जीवन जीने की कला

यदि जीवन में गंतव्य का बोध न हो तो भला गति सही कैसे हो सकती है। और यदि कहीं पहुंचना ही न हो तो संतुष्टि कैसे पायी जा सकती है। जो जीवन जीने की कला से वंचित है समझना चाहिए कि उनके जीवन में न तो दिशा है और न कोई एकता है। उनके समस्त अनुभव निरे आणविक रह जाते है। उनसे कभी भी उर्जा का जन्म नहीं हो पाता, जो कि ज्ञान बनकर प्रकट होती। ऐसा व्यक्ति सुख-दु:ख तो जानता है, पर उसे कभी भी आनन्द की अनुभूति नहीं होती। जीवन में यदि आनन्द पाना है तो जीवन को फूलों की माला बनाना होगा। जीवन के समस्त अनुभवों को एक लक्ष्य के धागे में कलात्मक रीति से गूंथना होगा। जो जीने की इस कला को नहीं जानते है, वे सदा के लिए जिंदगी की सार्थकता एवं कृतार्थता से वंचित रह जाते है।

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