रविवार, 14 सितंबर 2008

स्थायी मिलन का रहस्य

प्यार के अंकुरित होते ही पिय मिलन की एक हूक उठती है। छटपटाता दिल अपने प्रिय से मिलने के लिए तड़पता है। भावाकुल हृदय मिलते भी है पर हर मिलन उनमे एक अतृप्ति पैदा करता है। प्यास को बुझाने के बजाये उसे और गहरा करता है। प्रत्येक मिलन के बाद उनकी छटपटाहट, बैचेनी और बढती जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि वे स्थायी मिलन के रहस्य से अनजान हैं।

प्यार इबादत है, आराधना है, उपासना है। इसके रहस्य को जान लिया जाय तो वह स्वयं परमेश्वर है। जो प्रेमी को पवित्रता, सजलता, शान्ति, एकात्मता और अनन्तता का वरदान देने से नहीं चूकता। प्रेम के रहस्य जानने वाला प्रेमी ' रसो वै सः ' के तत्व को समझ कर स्वयं रसमय-परमेश्वरमय हो जाता है।

प्यार के अनेकों किस्से दुनिया मैं प्रचलित है। शीरी-फरहाद, लैला-मजनूँ, हीर-राँझा, रोमियो-जूलियट की अमर कथाएँ बड़े चाव से कही-सुनी जाती है पर प्रेम की रहस्यमय महिमा को जानने वालों को मालूम है की यह तो प्रेम-साधना का सिर्फ़ पहला चरण है, जिसे इन अमर विभूतियों ने अनुभव किया। परस्पर हित के लिए उत्सर्ग, स्वार्थ नहीं बलिदान इनका मूल मन्त्र था, जिसे अपनाकर वे मानवीय प्रेम के चरम बिन्दु तक पहुँच सके।

प्रेमदीवानी मीरा का प्यार प्रेमसाधना का सर्वोच्च प्रकार था। उनके प्रियतम प्रभु श्रीकृष्ण का उनके समय कोई स्थूल अस्तित्व न था। चर्मचक्षुओं से उन्हें न देख पाने पर भी उनकी भाव-साधना निरंतर गहराती गई। द्दैवी प्रेम से की गई शुरुआत ईश्वरीय प्रेम के सर्वोच्च प्रेम तक जा पहुँची। उन्होंने अपनी भावनाओं मैं यो मन पश्यति सर्वत्र, सर्वं च मयी पश्यति सत्य का अनुभव किया। चिरवियोग-चिर्मिलन मैं बदल गया।

वह एक सत्य दे गयी-प्यार मैं देह की क्या डरकर। प्यार तो भावनाओं मैं ही अंकुरित, प्रस्फुटित एवम विकसित होता हैं। यदि प्रिय को भावनाओं मैं पाने का यातना किया जाया तो भावों की ऊष्मा अंतःकरण मैं हूक, छातापताहत, ह्रदय के फट पड़ने की-सी

अनुभूति देती है। बाह्य मिलन हाथ न करके यदि इसे धेर्यपूर्वक सह लिया जाया तो इस टाप मैं साडी वासनाएं, जन्मा-जन्मान्तर के संचित कुसंस्कार भस्म हो जाते है। पवित्र हुई मानवीय भावनाएं दैवी भावनाएं का रूप ले लेती है और ईश्वरीय प्रेम के सर्वोच्च प्रेम के बिन्दु तक जा पहुंचती हैं।

अपने प्रिय आराध्य परमपूज्य गुरुदेव मीरा के कृष्ण की ही भांति स्थूल में नहीं है, परन्तु भावुक भक्तों के भावजगत मैं हर पल उपस्तिथ हैं। प्रेमी साधक अपनी प्रेमसाधना में भावमय गुरुमूर्ति एवं भावमय परमेश्वर की अनन्ता मैं जब स्वयं को विलीन होते हुए अनुभव करता है, तब कबीर के स्वरों में गा उठता है, मन मगन भया फ़िर क्यों बोले।

अखंड ज्योति १९९७

कोई टिप्पणी नहीं:

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin