रविवार, 14 सितंबर 2008

साधना से सिद्धि

साधना की गई , पर सिद्धि नहीं मिली। तप तो किया गया पर तृप्ति नहीं मिली। अनेक साधकों की विकलता यही है। लगातार सालों-साल साधना करने के बाद वे सोचने लगते है, क्या साधना का विज्ञान मिथ्या है ? क्या इसकी तकनीको में कोई त्रुटि है ? ऐसे अनेको प्रश्न-कंटक उनके अन्त:करण में हर पल चुभते रहते है। निरन्तर की चुभन से उनकी अंतरात्मा में घाव हो जाता है। जिससे वेदना रिसती रहती है। बड़ी ही असह्य होती है चुभन और रिसन की यह पीड़ा। बड़ा ही दारुण होता है यह दरद !!

महायोगी गोरखनाथ का एक युवा शिष्य भी एक दिन ऐसी ही पीड़ा से ग्रसित था। वेदना की विकलता की स्पष्ट छाप उसके चेहरे पर थी। एक छोटे-से नाले को पार करके वह एक खेत की मेड़ पर हताश बैठा था। तभी उसे पास के खेत से ही गोरखनाथ आते दिखाई दिये।

उनके चरणों में सिर रखकर प्रणाम करते हुए उसने पूछा ,‘‘ गुरुदेव, मेरी वर्षों की साधना निष्फल क्यों हुई ? भगवान मुझसे इतना रुठे क्यों है ?’’ महायोगी हँसे और कहने लगे,‘‘ पुत्र, कल मैं एक बगीचे में गया था। वहा कुछ दूसरे युवक भी थे। उनमें से एक को प्यास लगी थी। उसने बाल्टी कुई में डाली, कुँआ गहरा था। बाल्टी खींचने में भारी श्रम करना पड़ा,लेकिन जब बाल्टी लौटी तो खाली थी। उस युवक के सभी साथी हंसने लगे।

मैनें देखा, बस वह कहने भर को बाल्टी थी, उसमें छेद-ही-छेद थे। बाल्टी कुईं में गई, पानी भी भरा, पर सब बह गया। वत्स, साधक के मन की यही दशा है। इस छेद वाले मन से कितनी ही साधना करो, पर छेदों के कारण सिद्धि नहीं मिलती। इससे कितना ही तप करो, पर तृप्ति नहीं मिलती। भगवान कभी भी किसी से रुठे नहीं रहते। बस साधक के मन की बाल्टी ठीक होनी चाहिए। कुँआ तो सदा ही पानी देने के लिए तैयार है। उसकी ओर से कभी भी इन्कार नहीं है।’’

कोई टिप्पणी नहीं:

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin