कोई उपदेश तभी प्रभावशाली हो सकता है जब उसका देने वाला, सुनने वालों का श्रद्धास्पद हो। वह श्रद्धा जितनी ही तीव्र होगी उतना ही अधिक उपदेश का प्रभाव पड़ेगा। प्रथम कक्षा के मन्त्र दीक्षित को यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि वह गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा रखेगा। उसे वह देवतुल्य या परमात्मा का प्रतीक मानेगा।
अश्रद्धालु के मन पर ब्रह्मा का उपदेश भी कुछ प्रभाव नहीं डाल सकता। श्रद्धा के अभाव में किसी महापुरुष के दिन-रात साथ रहने पर भी कोई व्यक्ति कुछ लाभ नहीं उठा सकता है और श्रद्धा होने पर दूरस्थ व्यक्ति भी लाभ उठा सकता है। इसलिए आरम्भिक कक्षा के मन्त्र दीक्षित को गुरु के प्रति तीव्र श्रद्धा भी धारण करनी पड़ती है।
विचारों को मूर्तिमान रुप देने के लिए उनको प्रकट रुप से व्यवहार में लाना पड़ता है। जितने भी धार्मिक कर्मकाण्ड, दानपुण्य, व्रतउपवास, हवनपूजन, कथाकीर्तन आदि है वे सब इसी प्रयोजन के लिए है कि आन्तरिक श्रद्धा व्यवहार में प्रकट होकर साधक के मन में परिपुष्ट हो जाय। दीक्षा के समय स्थापित हुई श्रद्धा कर्म काण्ड के द्वारा सजग रहे इसी प्रयोजन के लिए समय-समय पर गुरु पूजन किया जाता है। क्रिया और विचार दोनो के समिश्रण से एक संस्कार बनता है।
निर्धन व्यक्ति भले ही न्यूनतम मूल्य की वस्तुऐं ही क्यों न भेंट करे, उन्हें सदैव गुरु को बार-बार अपनी श्रद्धान्जलि अर्पित करना चाहिए।
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