पूजा अर्चा प्रतीक मात्र हैं, जो बताती है कि वास्तविक उपासक का स्वरुप क्या होना चाहिए और उसके साथ क्या उद्देश्य और क्या उपक्रम जुडा रहना चाहिए।
देवता के सम्मुख दीपक जलाने का तात्पर्य यहॉं हमें दीपक की तरह जलने और सर्वसाधारण के लिए प्रकाश प्रदान करने की अवधारणा हृदयंगम कराता है।
`पुष्प´ चढाने का तात्पर्य यह है कि जीवनक्रम को सर्वांग सुन्दर, कोमल, सुशोभित रहने में कोई कमी न रहने दी जाये।
`अक्षत´ चढाने का तात्पर्य हैं कि हमारे कार्य का एक नियमित अंशदान परमार्थ प्रयोजन के लिए लगता रहेगा।
`चंदन लेपन´ का तात्पर्य हैं कि सम्पर्क क्षेत्र में अपनी विशिष्टता सुगंध बनकर अधिक विकसित हो।
`नैवेद्य´ चढाने का तात्पर्य है-अपने स्वभाव और व्यवहार में मधुरता का अधिकाधिक समावेश करना।
`जप´ का उद्देश्य हैं अपने मन:क्षेत्र में निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने की निष्ठा का समावेष करने के लिए लिए उसकी रट लगाये रहना।
`ध्यान´ का अर्थ है अपनी मानसिकता को लक्ष्य विशेष पर अविचल भाव से केन्द्रीभूत किये रहना।
`प्राणायाम´ का प्रयोजन अपने आपको हर दृष्टि से प्राणवान, प्रखर, प्रतिभासम्पन्न बनाये रखना।
अक्षत, चन्दन, पुष्प, धूप-दीप तो पूजा के प्रतीक मात्र हैं, असली पूजा तो लोकमंगल के लिए किए गये उदार सत्प्रयत्नों से ही ऑकी जाती है। समूचे साधना विज्ञान का तत्वदर्शन इस बात पर केन्द्रीभूत है कि जीवनचर्या का बहिरंग और अंतरंग पक्ष निरन्तर मानवी गरिमा के उपयुक्त ढॉंचे में ढलता रहे। कषाय-कल्मषों के दोष-दुर्गुण जहॉं भी छिपे हुए हो उनका निराकरण होता चले।
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