रविवार, 14 सितंबर 2008

राखी का धागा

पुरूष का पुरुषार्थ और नारी की मर्यादा, दोनों ही राखी के धागे से बंधे हैं। यह राखी का धागा कमजोर हुआ अथवा टूटा तो न केवल पुरूष का पुरुषार्थ भटकेगा, बल्कि नारी की मर्यादाएँ भी आहत होंगी, क्षत-विक्षत होंगी। इस धागे की मजबूती और दृढ़ता पर ही सामाजिक सरसता-समरसता और सौन्दर्य की इन्द्रधनुषी छटा चहुँ और छाई रहती है। इसमें यदि किसी भी तरह की टूटन या दरकन आई तो इस बहुरंगी रसमय छटा को रसहीन गाढे धुंधलके मैं खोते देर न लगेगी।

पुरूष और नारी के बीच स्वाभाविक नाता सृष्टि के आदि से हैं। जब से ग्रहपिंड अस्तित्व मैं आए, जब से धरती की हरी-भरी गोद विनिर्मित हुई, तभी से पुरूष और नारी भी है और तभी से उनमें परस्पर आकर्षण, आसक्ति और पवित्र प्रेम से पूर्ण सम्बन्ध भी हैं। हालाँकि इस सम्बन्ध में बहुविधि विविधताएँ मानवीय भावनाओं के बहुआयामों के अनुरूप सदा से रहीं हैं। पुरूष पति, प्रेमी, पुत्र, भ्राता बनकर अपने पुरुषार्थ के लिए सचेष्ट रहा हैं और नारी पत्नी, प्रेमिका, पुत्री व भगिनी बनकर अपनी मर्यादाओं के संरक्षण के लिए प्रयासरत रही हैं।

पुरूष और नारी के बीच इन अनगिनत नातों मैं भ्राता और भगिनी अथवा भाई व बहिन के नाते का अपना विशिष्ट सौन्दर्य हैं। इस नाते में आकर्षण अनन्त हैं, पर वासना का विष नहीं हैं। इसमें आसक्ति और मोह की जगह भावपूर्ण बलिदान है। इसके पवित्र प्रेम में भावों के सभी रंग और रूप होते हुऐ भी किसी भी तरह के कलुष की कालिमा नहीं हैं। भावमय भावनाओं से भरा, पवित्र प्रेम से पूरित सम्बन्धों का यह संसार राखी के धागों से उपजता हैं और इसी के रंगों के अनुरूप अपने अनगिनत रूपों की सृष्टि करता हैं। इस धागे में बंधकर और इसे बांधकर पुरूष और नारी, दोनों ही अपने पुरुषार्थ और अपनी मर्यादाओं के खोते जा रहे स्वधर्म को पुनः प्राप्त कर सकते हैं।

अखंड ज्योति अगस्त २००८

कोई टिप्पणी नहीं:

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin