ज्ञान की चाहत बहुतों को होती हैं, पर ज्ञान की प्राप्ति विरले करते हैं। दरअसल ज्ञान और ज्ञान में भारी भेद हैं। एक ज्ञान हैं-केवल जानकारी इकट्ठी करना, यह बोद्धिक समझ तक सीमित हैं और दूसरी ज्ञान हैं-अनुभूति, जीवंत प्रतीति। एक मृत तथ्यों का संग्रह हैं; जबकि दूसरा जीवंत सत्य का बोध हैं। इन दोनो में बडा अन्तर हैं-पाताल और आकाश जितना। सच तो यह हैं कि बोद्धिक ज्ञान कोई ज्ञान नहीं हैं, यह तो बस, ज्ञान का झूठा अहसास भर हैं । भला अन्धे व्यक्ति को प्रकाश का ज्ञान कैसे हो सकता हैं ? बोद्धिक ज्ञान कुछ ऐसा ही हैं।
सच्चा ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता, यह भीतर से जागता हैं। इसे सीखना नहीं उघाडना होता हैं। सीखा हुआ ज्ञान जानकारी हैं; जबकि उघाडा हुआ ज्ञान अनुभूति हैं। जिस ज्ञान को सीखा जाये, उसके अनुसार जीवन को जबरदस्ती ढालना पड़ता है, फ़िर भी वह कभी संपूर्णतया उसके अनुकूल नही बन पाता। उस ज्ञान और जीवन में हमेशा एक अंतर्द्वंद बना ही रहता हैं, पर जो ज्ञान उघाड़ा जाता हैं उसके आगमन से ही आचरण सहज उसके अनुकूल हो जाता हैं। सच्चे ज्ञान के विपरीत जीवन का होना एक असंभावना हैं, ऐसा कभी हो ही नहीं सकता।
श्री रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों को एक कथा सुनाते थे। एक घने बीहड़ वन में दो मुनि जा रहे थे। सांसारिक संबंधो की दृष्टि से वे पिता-पुत्र थे। पुत्र आगे चल रहा था, पिता पीछे था। तभी वन में सिंह का गर्ज़न सुने दिया। ब्रह्मज्ञान की बातें करने वाले पिता को घबराहट हुई , उसने पुत्र को सचेत किया- “चलो ! कहीं पेड़ पर चढ़ जायें, आगे खतरा हैं।" पुत्र पिता की इन बातों पर हँसा । हँसते हुए बोला- ‘आप तो हमेशा यही कहते रहे हैं कि शरीर नश्वर हैं और आत्मा अमर, साक्षी और द्रष्टा हैं। फिर भला खतरा किसे हैं ! जो नश्वर हैं, वह तो मरेगा ही और जो अमर हैं, उसे कोई मार नहीं सकता,’’ पर पिता के मुख में भय की छाया गहरा चुकी थी। अब तक वह पेड़ पर जा चढ़ा था। इधर पुत्र पर सिंह का हमला भी हो गया, पर वह हँसता रहा। अपनी मृत्यु में भी वह दृष्टा था। उसे न दु:ख था और न पीड़ा, क्योंकि उसे ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी थी ; जबकि उसके पिता के पास ब्रह्मज्ञान का झूठा एहसास भर था। इसीलिए कहा जाता हैं कि ज्ञान की प्राप्ति विरल हैं।
अखंड ज्योति नवम्बर २००५
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