प्रेम-भाव की प्राप्ति न पुस्तको से होती है और न उपदेशो से। उसकी प्राप्ति धन अथवा संपत्ति से भी नही होती और न मान और पद प्रतिष्ठा ही उसको संभव बना सकती है। भक्ति और सत्ता द्वारा भी प्रेम-भाव की सिद्धि नही हो सकती। जबकि लोग प्रायः इन्ही साधनों द्वारा ही प्रेम-भाव को पाने का प्रयत्न किया करते है। पुस्तके पढ़कर लेखक के प्रति, शक्ति और वैभव देखकर सत्ताधारी के प्रति जो आकर्षण अनुभव होता है, उसका कारण प्रेम नही होता है। उसका कारण होता है-प्रभाव, लोभ और भय। वास्तविक, प्रेम-भाव वहीँ संभव है, जहाँ न कोई प्रभाव होगा, न स्वार्थ अथवा आशंका।
ऐसा वास्तविक और निर्विकार प्रेम-भाव केवल सेवा द्वारा ही पाया जा सकता है। सेवा और प्रेम वस्तुतः दो भिन्न-भिन्न वस्तुएँ नही है। यह एक भाव के ही दो पक्ष है। जहाँ प्रेम होगा, वहाँ सेवा भाव होगा और जहाँ सेवा-भाव होगा वहाँ प्रेम-भाव का होना अनिर्वाय है। जिसके प्रति मनुष्य के ह्रदय मे प्रेम-भाव नही होगा, उसके प्रति सेवा-भाव का भी जागरण नही हो सकता और जो सेवा-भाव सेव्य के प्रति प्रेम-भाव नही जमाता, वह सेवा नही, स्वार्थपरक चाकरी का ही एक रूप होगा। जिसकी सेवा करने में सुख, शान्ति और गौरव का अनुभव हो, समझ लेना चाहिए की उस सेव्य के प्रति ह्रदय मे प्रेम-भाव अवश्य है।
अखंड ज्योति, जून १९६८
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