लोग उपासना का एक अंश ही सीखे हैं-कर्मकांड । जप, हवन, पूजन, स्तवन आदि शरीर एवं पदार्थों से सम्पन्न हो सकने वाली विधि-व्यवस्था तो कर लेते है, पर उस साधना को प्राणवान सजीव बनाने वाली भावना के समन्वय की बात सोचते तक नहीं। सोचे तो तब, जब भावना नाम की कोई चीज उनके पास हो। बडी मछली छोटी मछली को निगल जाती हैं और कामना-भावना को, कामनाओं की नदी में आमतोर से लोगो की भाव कोमलता जल-भुनकर खाक होती रहती हैं तथ्य यह हैं कि भावना पर श्रद्धा विश्वास पर आन्तरिक उत्कृष्टता पर ही अध्यात्म की, साधना की और सिद्धियों की आधारशिला रखी हुयी है। यह मूल तत्व ही न रहे तो साधनात्मक कर्मकांड, मात्र धार्मिक क्रिया-कलाप बन कर रह जाते हैं। उनका थोडा सा मनोवेज्ञानिक प्रभाव ही उत्पन्न होता हैं। साधना के चमत्कार श्रद्धा पर अवलम्बित है।
-आचार्य श्रीरामशर्मा
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