सोमवार, 29 सितंबर 2008

ध्या‍न और सेवा

एक बार ज्ञानेश्‍वर महाराज सुब‍‍ह-सुबह‍ नदी तट पर टहलने निकले। उनहोनें देखा कि एक लड़का नदी में गोते खा रहा है। नजदीक ही, एक सन्‍यासी ऑखें मूँदे बैठा था। ज्ञानेश्वर महाराज तुरंत नदी में कूदे, डूबते लड़के को बाहर निकाला और फिर सन्‍यासी को पुकारा। संन्‍यासी ने आँखें खोलीं तो ज्ञानेश्वर जी बोले- क्‍या आपका ध्‍यान लगता है ? संन्‍यासी ने उत्तर दिया- ध्‍यान तो नही लगता, मन इधर-उधर भागता है। ज्ञानेश्वर जी ने फिर पूछा लड़का डूब रहा था, क्‍या आपको दिखाई नही दिया ? उत्‍तर मिला- देखा तो था लेकिन मैं ध्‍यान कर रहा था। ज्ञानेश्वर समझाया- आप ध्‍यान में कैसे सफल हो सकते है ? प्रभु ने आपको किसी का सेवा करने का मौका दिया था, और यही आपका कर्तव्‍य भी था। यदि आप पालन करते तो ध्‍यान में भी मन लगता। प्रभु की सृष्टि, प्रभु का बगीचा बिगड़ रहा है1 बगीचे का आनन्‍द लेना है, तो बगीचे का संवारना सीखे।

यदि आपका पड़ोसी भूखा सो रहा है और आप पूजा पाठ करने में मस्‍त है, तो यह मत सोचिये कि आपके द्वारा शुभ कार्य हो रहा है क्‍योकि भूखा व्‍यक्ति उसी की छवि है, जिसे पूजा-पाठ करके आप प्रसन्‍न करना या रिझाना चाहते है। क्‍या वह सर्व व्‍यापक नही है ? ईश्‍वर द्वारा सृजित किसी भी जीव व संरचना की उपेक्षा करके प्रभु भजन करने से प्रभु कभी प्रसन्‍न नही होगें।

जैसी दृष्टि

रामदास रामायण लिखते जाते और शिष्यों को सुनाते जाते थे | हनुमान जी भी उसे गुप्त रुप से सुनने के लिये आकर बैठते थे | समर्थरामदास ने लिखा, “हनुमान अशोक वन में गये, वहाँ उन्होंनें सफेद फूल देखे |”

यह सुनते ही हनुमान जी झट से प्रकट हो गये और बोले, “मैंने सफेद फूल नहीं देखे थे | तुमने गलत लिखा है, उसे सुधार दो|”

समर्थ ने कहा, “मैंने ठीक ही लिखा है| तुमने सफेद फूल ही देखे थे|”

हनुमान ने कहा, “कैसी बात करते हो! मैं स्वयं वहाँ गया और मैं ही झूठा!”

अन्त में झगडा श्री रामचंद्र्जी के पास पहुँचा| उन्होंने कहा की, “फूल तो सफेद ही थे, परन्तु हनुमान की आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं, इसलिए वे उन्हें लाल दिखाई दिये|” 

इस मधुर कथा का आशय यही है कि संसार की ओर देखने की जैसी हमारी दृष्टि होगी, संसार हमें वैसा ही दिखाई देगा|

सोमवार, 22 सितंबर 2008

शक्तिशाली कौन

एक बार गौतम बुद्ध अपने शिष्यों के साथ किसी पर्वतीय स्थल पर ठहरे थे। शाम के समय वह अपने एक शिष्य के साथ भ्रमण के लिए निकले। दोनों प्रकृति के मोहक दृश्य का आनंद ले रहे थे। विशाल और मजबूत चट्टानों को देख शिष्य के भीतर उत्सुकता जागी। उसने पूछा, ‘इन चट्टानों पर तो किसी का शासन नहीं होगा क्योंकि ये अटल, अविचल और कठोर हैं।’ शिष्य की बात सुनकर बुद्ध बोले, ‘नहीं, इन शक्तिशाली चट्टानों पर भी किसी का शासन है। 

लोहे के प्रहार से इन चट्टानों के भी टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं।’ इस पर शिष्य बोला, ‘तब तो लोहा सर्वशक्तिशाली हुआ?’ बुद्ध मुस्कराए और बोले, ‘नहीं। अग्नि अपने ताप से लोहे का रूप परिवर्तित कर सकती है।’ उन्हें धैर्यपूर्वक सुन रहे शिष्य ने कहा, ‘मतलब अग्नि सबसे ज्यादा शक्तिवान है।’

‘ नहीं।’ बुद्ध ने फिर उसी भाव से उत्तर दिया, ‘जल, अग्नि की उष्णता को शीतलता में बदलता देता है तथा अग्नि को शांत कर देता है।’ शिष्य कुछ सोचने लग गया। बुद्ध समझ गए कि उसकी जिज्ञासा अब भी पूरी तरह शांत नहीं हुई है। शिष्य ने फिर सवाल किया, ‘आखिर जल पर किसका शासन है?’ बुद्ध ने उत्तर दिया, वायु का। वायु का वेग जल की दिशा भी बदल देता है। शिष्य कुछ कहता उससे पहले ही बुद्ध ने कहा, ‘अब तुम कहोगे कि पवन सबसे शक्तिशाली हुआ। नहीं, वायु सबसे शक्तिशाली नहीं है। 

सबसे शक्तिशाली है मनुष्य की संकल्पशक्ति क्योंकि इसी से पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि को नियंत्रित किया जा सकता है। अपनी संकल्पशक्ति से ही अपने भीतर व्याप्त कठोरता, ऊष्णता और शीतलता के आगमन को नियंत्रित किया जा सकता है, इसलिए संकल्पशक्ति ही सर्वशक्तिशाली है। जीवन में कुछ भी महत्वपूर्ण कार्य संकल्पशक्ति के बगैर असंभव है। इसलिए अपने भीतर संकल्पशक्ति का विकास करो।’ यह सुनकर शिष्य की जिज्ञासा शांत हो गई।

कर्म की महानता

एक बार बुद्ध एक गांव में अपने किसान भक्त के यहां गए। शाम को किसान ने उनके प्रवचन का आयोजन किया। बुद्ध का प्रवचन सुनने के लिए गांव के सभी लोग उपस्थित थे, लेकिन वह भक्त ही कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। गांव के लोगों में कानाफूसी होने लगी कि कैसा भक्त है कि प्रवचन का आयोजन करके स्वयं गायब हो गया। प्रवचन खत्म होने के बाद सब लोग घर चले गए। रात में किसान घर लौटा। बुद्ध ने पूछा, कहां चले गए थे ? गांव के सभी लोग तुम्हें पूछ रहे थे।

किसान ने कहा, दरअसल प्रवचन की सारी व्यवस्था हो गई थी, पर तभी अचानक मेरा बैल बीमार हो गया। पहले तो मैंने घरेलू उपचार करके उसे ठीक करने की कोशिश की, लेकिन जब उसकी तबीयत ज्यादा खराब होने लगी तो मुझे उसे लेकर पशु चिकित्सक के पास जाना पड़ा। अगर नहीं ले जाता तो वह नहीं बचता। आपका प्रवचन तो मैं बाद में भी सुन लूंगा। अगले दिन सुबह जब गांव वाले पुन: बुद्ध के पास आए तो उन्होंने किसान की शिकायत करते हुए कहा, यह तो आपका भक्त होने का दिखावा करता है। प्रवचन का आयोजन कर स्वयं ही गायब हो जाता है।

बुद्ध ने उन्हें पूरी घटना सुनाई और फिर समझाया, उसने प्रवचन सुनने की जगह कर्म को महत्व देकर यह सिद्ध कर दिया कि मेरी शिक्षा को उसने बिल्कुल ठीक ढंग से समझा है। उसे अब मेरे प्रवचन की आवश्यकता नहीं है। मैं यही तो समझाता हूं कि अपने विवेक और बुद्धि से सोचो कि कौन सा काम पहले किया जाना जरूरी है। यदि किसान बीमार बैल को छोड़ कर मेरा प्रवचन सुनने को प्राथमिकता देता तो दवा के बगैर बैल के प्राण निकल जाते। उसके बाद तो मेरा प्रवचन देना ही व्यर्थ हो जाता। मेरे प्रवचन का सार यही है कि सब कुछ त्यागकर प्राणी मात्र की रक्षा करो। इस घटना के माध्यम से गांव वालों ने भी उनके प्रवचन का भाव समझ लिया।


रविवार, 21 सितंबर 2008

अहम्

राजा जनश्रुति को चिडिया की भाषा समझने की सामर्थ्य प्राप्त थी। हंसों की जोड़ी बात कर रही थी की जनश्रुति से तो बड़े मुनि रैक्य हैं, जो सदा परमार्थ में लगे रहते है। गाडीवान रैक्य के बड़ा होने की बात से उन्हें बड़ा कष्ट हुआ। दूसरे दिन उन्होंने उस गाडीवान की खोज कराई और बहुत-सा धन, अश्व और आभूषण लेकर मुनि रैक्य के पास गए और बोले- "आपकी कीर्ति सुनकर यहाँ आए हैं, हमें ब्रह्म विद्या का उपदेश दीजिये। "रैक्य मुनि ने उत्तर दिया- "राजन ! ब्रह्म-विद्या सीखनी है, तो अपना अन्तरंग पवित्र बनाओ। अंहकार को मिटाकर, श्रद्धा-विश्वास तथा नम्रता को धारण कर ही तुम सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त कर सकोगे।" जनश्रुति को अपनी भूल ज्ञात हुई और वे सिद्धि-संपादन का अहम् त्यागकर अन्दर से स्वयं को महान बनने में लग गए।

धर्मात्मा का बल

मरते समय बालि अंगद को भगवान् राम को सौंप गए थे। अंगद राम की सेना के वरिष्ठ सेनापतियों में से थे। उन्होंने रावण की सभा में अपने बल का प्रदर्शन करके रावण को भी चुनौती दी। छोटे से धर्मात्मा का बल अनीतिवान राज्याध्यक्ष से भी बड़ा होता हैं। वानर स्वल्प शक्तिवान थे, तो भी उन्होंने अधर्म का प्रतिरोध करने में अपना सर्वस्व झोंक दिया और मारे जाने की तनिक भी परवाह नहीं की। ऐसे शूरवीर धर्मात्मा का जीवन संसार में धन्य माना जाता हैं।

संगति

अजामिल अपनी दुष्टता एवं दुराचार के लिए विख्यात हुआ, पर आरंभ में वह एक सदाचारी ब्राह्मण था। किसी कारणवश विदेश गया तो वह कुलटा स्त्रियों और दुरात्मा लोगों की संगति में पड़ गया। कुसंग बड़े बड़ो का पतन कर देता हैं। बुरों का सुधरना कठिन हैं, पर अच्छों का बिगड़ जाना सरल हैं। कुसंग से अजामिल इतना पतित हुआ कि कसाई तक का काम करने लगा। कथा है कि वह पीछे सत्संग से सुधरा और भगवद्भक्त बना। कुसंग-सत्संग का मनुष्य पर भारी प्रभाव पड़ता है। इसलिऐ कुसंग से बचने और सत्संग खोजने का प्रयत्न करना चाहिए।

शनिवार, 20 सितंबर 2008

धर्म

श्रावस्ती नरेश चन्द्रचूड़ को विभिन्न धर्मो और उनके प्रवक्ताओ से बड़ा लगाव था। राज-काज से बचा हुआ समय वे उन्हे ही पढ़ने और सुनने में लगाते थे। यह क्रम चलते बहुत दिन बीते थे कि राजा असमंजस में पड़ गये, जब धर्म शाश्वत हैं तो उनके बीच मतभेद और विग्रह क्यो ?

समाधान के लिए वे भगवान बुद्ध के पास गये और अपना असमंजस कह सुनाया। बुद्ध हंसें उन्हे सत्कारपूर्वक ठहराया और दूसरे दिन प्रात:काल उनके समाधान का वचन दिया।

दिनभर के प्रयास से एक हाथी और पॉँच जन्मांध जुटा लिये गये। प्रात:काल तथागत सम्राट को लेकर उस स्थान पर पहुँचें। किसी जन्मांध का इससे पूर्व कभी हाथी से संपर्क नहीं हुआ था। उनसे कहा गया कि वह सामने खड़ा है, उसे छुओ और उसका स्वरुप बतलाओ। अंधें ने उसे टटोला और जितना जिसने स्पष्ट किया, उसी अनुरुप उसे खंभे जैसा, रस्सी जैसा, सूप जैसा, टीले जैसा आदि बताया।

तथागत ने कहा, ‘‘राजन् ! संप्रदाय अपनी सीमित क्षमता के अनुरुप ही धर्म की एकांगी व्याख्या करते है। और अपनी मान्यता के प्रति हठी होकर झगड़ने लगते है।

जिस प्रकार हाथी एक है और उसका अंधविवेचन भिन्नतायुक्त। धर्म तो समता, सहिष्णुता, एकता, उदारता और सज्जनता में है। यही हाथी का समग्र रुप है। व्याख्या कोई कुछ भी करता रहे।’’

उपदेश की योग्यता

साधु आत्मानंद की कुटिया गाँव के पास ही थी। प्राय: प्रतिदिन सायंकाल ग्रामीण लोग उनके पास जाते और धर्म-चर्चा का लाभ प्राप्त करते। जब संध्या भजन का समय आता, गाँव के दो नटखट लड़के जा धमकते और कहते, महात्मन् ! आपसे ज्ञान प्राप्त करने आये है, फिर शुरु करते गप्पें। बीच-बीच में साधु को चिढ़ाने, गुस्सा दिलाने वाली बातें भी करते जाते। उनका तो मनोरंजन होता, पर आत्मानंद का भजन-पूजन का समय निकल जाता। यह कर्म महीनों चलता रहा, पर साधु एक दिन भी गुस्सा नहीं हुए। बालकों के साथ बात करते हुए आप भी हँसते रहते।

बहुत दिन बाद भी जब वे नटखट लड़के उन्हें क्रुद्ध न कर सके, तो उन्हें अपने आप पर क्षोभ हुआ, उन्होंने क्षमा मांगते हुए पूछा, ‘‘महात्मन् ! हमने जान-बूझकर आपको चिढ़ाने का प्रयत्न किया, फिर भी आप न कभी खीझे, न क्रुद्ध हुए।’’ आत्मानंद ने हँसते हुए कहा, वत्स ! यदि मैं ही क्रुद्ध हो जाता, तो आप सबको सिखा क्या पाता ?

मौसेरा भाई

राजा के दरबार में एक वृद्ध पहुँचा और बोला, ‘‘भगवन् ! मैं आपका मौसेरा भाई हूँ । कभी आपकी तरह मैं भी था। ३२ नौकर थे, एक-एक करके चले गये। दो मित्र थे, वे भी साथ चलने से कतराने लगे। दो भाई है, सो बडी मुश्किल से थोडा-बहुत काम करते है। पत्नी भी उल्टे-सीधे जवाब देती है। मेरी मुसीबत देखते हुए यदि आप कुछ सहायता कर सकें तो कर दे।’’

राजा ने उसका आदर किया और रुपयों की एक थैली थमा दी। सभासदों ने साश्चर्य कहा, ‘‘ यह दरिद्री आपका मौसेरा भाई कैसे हो सकता है !’’

राजा ने कहा, ‘‘इसने मुझे मेरे कर्तव्यों का ज्ञान कराया है। इसके मुंह में मेरी ही तरह ३२ दांत थे, सो भी उखड गये। दो पैर मित्र थे, सो डगमगा गये। दो भाई हाथ है, जो अशक्त होने के कारण थोडा-बहुत ही काम करते है। बुद्धि इसकी पत्नी थी, सो वह भी अब सठिया गयी है, कुछ-का-कुछ जवाब देती है। मेरी माँ अमीरी और उसकी गरीबी है। ये दोनो बहने हैं, इसलिए हम दोनो मौसेरे भाई है। वृद्ध का कहना गलत नहीं है।’’

इन संकेतो ने राजा ने स्वयं के लिए एक संदेश पाया और अपना शेष समय सत्कार्यो में, प्रजाजनो के कल्याण हेतु नियोजित करने का संकल्प लिया।

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

भामाशाह

मेवाड़ की रक्षा के लिये महाराणा प्रताप अंतिम प्रयत्न करते हुए निराश हो गए। महाराणा प्रताप ने दो-चार हजार सैनिकों को लेकर बड़ी बादशाही सेनाओं का मुंह मोड़ दिया। मुगल सल्तनत के साधन बहुत अधिक थें। अंत में ऐसा समय आया, जब प्रताप को अपने साथियों के लिए सूखी रोटी मिलना भी असंभव हो गया। अत: उन्होंने मेवाड़ छोड़कर सिंध की तरफ जाने का निश्चय किया। प्रताप देश त्याग कर अरावली पर्वत को पार कर जाने लगे, तो किसी ने पीछे से पुकारा- ओ मेवाड़पति ! राजपूती वीरता की शान दिखाने वाले ! हिन्दू धर्म के रक्षक ! ठहर जाओ। आगंतुक राज्य के पुराने मंत्री भामाशाह आँखों में आंसू लिए बोले- स्वामी, आप कहाँ जा रहे हैं ? एक बार आप फिर अपने घोड़े की बाग मेंवाड़ की तरफ मोड़िये और नए सिरे से तैयारी करके मातृभूमि का उद्धार करिए। आपके पूर्वजों की दी हुई पर्याप्त संपत्ति में आपके चरणों में भेंट करता हूँ. भामाशाह के भंडार में इतना धन था कि पच्चीस हजार की सेना का बारह वर्ष तक खर्चा चल सकता था। भामाशाह ने अपना सुख ठुकरा दिया और सारे देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपना सब कुछ दान कर दिया।

कृतघ्नता

एक शिकारी हिरन का पीछा करता हुआ आ रहा था। जान बचाने के लिए हिरन अंगूर की लताओं में छिप गया। शिकारी को गया जानकर उसने अंगूर की सारी बेल चर ली, इस पर शिकारी ने उसे देख लिया और मार दिया। मरते समय हिरन कह रहा था कि जो आश्रय देने वाले के साथ कृतघ्नता करता है, उसकी मेरी जैसी ही दशा होती हैं। 

स्वार्थपरता

एक बालक की मृत्यु हो गई । अभिभावक उसे नदी तट वाले श्मशान में ले पहुंचे । वर्षा हो रही थी। विचार चल रहा था कि इस स्थिति में संस्कार कैसे किया जाए।

उनकी पारस्परिक वार्ता में निकट उपस्थित प्राणियों ने हस्तक्षेप किया और बिना पूछे ही अपनी-अपनी सम्मति भी बता दी।

सियार ने कहा, ‘‘ भूमि में दबा देने का बहुत महात्म्य है। धरती माता की गोद में समर्पित करना श्रेष्ठ हैं। ’’कछुये ने कहा, ‘‘गंगा से बढ़कर और कोई तरण-तारणी नहीं। आप लोग शव को प्रवाहित क्यों नहीं कर देते ?’’ गिद्ध की सम्मति थी, ‘‘सूर्य और पवन के सम्मुख उसे खुला छोड़ देना उत्तम है। पानी और मिट्टी में अपने स्नेही की काया को क्यो सड़ाया-गलाया जाए ?’’

अभिभावको को समझते देर न लगी कि तीनों के कथन परामर्श जैसे दीखते हुए भी कितनी स्वार्थपरता से सने हुए है। उनने तीनों परामर्शदाताओं को धन्यवाद देकर विदा कर दिया। बादल खुलते ही चिता में अग्नि संस्कार किया।

मनोबल

महाभारत युद्ध में प्रधान सेनापति कर्ण था। उसे हराना असम्भव ठहराया गया था। चतुरता से उसके बल का अपहरण किया गया। कर्ण का सारथी शल्य था। श्री कृष्ण के साथ तालमेल बिठाकर उसने एक योजना स्वीकार कर ली। जब कर्ण जीतने को होता तब शल्य चुपके से दो बाते कह देता, यह कि-तुम सूत पुत्र हो। द्रोणाचार्य ने विजयदायिनी विद्या राजकुमारो को सिखाई है। तुम राजकुमार कहाँ हो जो विजय प्राप्त कर सको। जीत के समय भी शल्य हार की आशंका बताता । इस प्रकार उसका मनोबल तोडता रहता। मनोबल टूटने पर वह जीती बाजी हार जाता। अन्तत: विजय के सारे सुयोग उस के हाथ से निकलते गये और पराजय का मुहँ देखने का परिणाम भी सामने आ खडा हुआ।

परिवारिक सहयोग-सहकार

ऋषि अंगिरा के शिष्य उदयन बड़े प्रतिभाशाली थे, पर अपनी प्रतिभा के स्वतंत्र प्रदर्शन की उमंग उनमें रहती थी। साथी-सहयोगियो से अलग अपना प्रभाव दिखाने का प्रयास यदा-कदा किया करते थे। ऋषि ने सोचा, यह वृति इसे ले डूबेगी, समय रहते समझाना होगा।

सरदी का दिन था। बीच में रखी अंगीठी में कोयले दहक रहे थे। सत्संग चल रहा था। ऋषि बोले, कैसी सुन्दर अंगीठी दहक रही हैं। इसका श्रेय इसमें दहक रहे कोयलों को है न ? सभी ने स्वीकार किया।

ऋषि पुन: बोले, देखो अमुक कोयला सबसे बड़ा, सबसे तेजस्वी है। इसे निकालकर मेरे पास रख दो। ऐसे तेजस्वी का लाभ अधिक निकट से लूँगा।

चिमटे से पकड़कर वह बड़ा तेजस्वी अंगार ऋषि के समीप रख दिया, पर यह क्या , अंगार मुरझा-सा गया। उस पर राख की परतें आ गई और वह तेजस्वी अंगार काला कोयला भर रह गया।

ऋषि बोले, बच्चो, देखो तुम चाहे जितने तेजस्वी हो, पर इस कोयले जैसी भूल मत कर बैठना। अंगीठी में सबके साथ रहता तो अन्त तक तेजस्वी रहता और सबके बाद तक गरमी देता, पर अब न इसका श्रेय रहा और न इसकी प्रतिभा का लाभ हम उठा सके।

शिष्यों को समझाया गया, परिवार वह अंगीठी है , जिसमें प्रतिभाएँ संयुक्त रुप से तपती है। व्यक्तगित प्रतिभा का अहंकार न टिकता है, न फलित होता है। परिवार के सहकार-सहयोग में वास्तविक बल है।

बचत

मधुमक्खी और तितली एक ही पेड़ पर रहती थीं। अक्सर वाटिका में फूलों के पास भी मिल जातीं। एक-दूसरे की कुशल पूछतीं और अपने काम पर लग जाती।

बरसात आ गई। लगातार झड़ी लगी थी। तितली उदास बैठी थी। मधुमक्खी ने पूछा, बहन क्या बात है ? ऐसे सुन्दर मौसम में उदासी कैसी ?

तितली बोली, मौसम की सुन्दरता से पेट की भूख अधिक प्रभावित कर रही है। कहीं भोजन लेने जा नहीं सकती, इसीलिए परेशान हूँ ।

मधुमक्खी बोली, बहन, ऐसे समय के लिए कुछ बचत क्यों नहीं की ? कल की बात न सोचने वाले यों ही परेशान होते है। ऐसा समझाकर मधुमक्खी ने अपने संचित कोष में से तितली की भी भूख शांत की।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

धन लक्ष्मी और सौभाग्य लक्ष्मी

धन लक्ष्मी वहीं विराजती हैं, जहाँ दुरुपयोग न होता हो, जहाँ सदैव पुरुषार्थ में निरत रहने वाले व्यक्ति बसते हो।

बलि अपने समय के धर्मात्मा राजा थे। उनके राज्य में सतयुग विराजता था। सौभाग्य लक्ष्मी बहुत समय तो उस क्षेत्र में रहीं, पर पीछे अनमनी होकर किसी अन्य लोक को चली गई । इन्द्र को असमंजस हुआ और इस स्थान-परिवर्तन का कारण पूछ ही बैठे। 

सौभाग्य लक्ष्मी ने कहा, मैं उद्योगलक्ष्मी से भिन्न हूँ। मात्र पराक्रमियों के यहाँ ही उसकी तरह नहीं रहती। मेरे निवास में चार आधार अपेक्षित होते है।- 
१- परिश्रम में रस, 
२- दूरदर्शी निर्धारण,
३- धैर्य और साहस तथा 
४- उदार सहकार।

बलि के राज्य में जब तक ये चारों आधार बने रहे, तब तक वहां रहने में मुझे प्रसन्नता थी। पर अब, जब सुसंपन्नों द्वारा उन गुणों की उपेक्षा होने लगी तो मेरे लिए अन्यत्र चले जाने के अतिरिक्त और कोई चारा न था।

महात्मा बनने के गुण

गाँधीजी के आश्रम में सफाई और व्यवस्था के कार्य हर व्यक्ति को अनिवार्य रुप से करने पड़ते थे। एक समाज को समर्पित श्रद्धावान बालक उनके आश्रम में आकर रहा। स्वच्छता- व्यवस्था के काम उसे भी दिए गए। उन्हें वह निष्ठापूर्वक करता भी रहा। जो बतलाया गया, उसे जीवन का अंग बना लिया।

जब आश्रम निवास की अवधि पूरी हुई तो गाँधी जी से भेंट की और कहा, ‘‘ बापू, मैं महात्मा बनने के गुण सीखने आया था, पर यहाँ तो सफाई व्यवस्था के सामान्य कार्य ही करने को मिले। महात्मा बनने के सूत्र न तो बतलाए गए, न उनका अभ्यास कराया गया।’’

बापू ने सिर पर हाथ फेरा, समझाया, कहा, ‘‘बेटे, तुम्हें यहाँ जो संस्कार मिले हैं, वे सब महात्मा बनने के सोपान है। जिस तन्मयता से सफाई तथा छोटी-छोटी बातों में व्यवस्था-बुद्धि का विकास कराया गया, वही बुद्धि मनुष्य को महामानव बनाती है।’’

गाँधी जी ने इसी प्रकार छोटे-छोटे सदगुणों के महात्म्य समझाते हुऐ अनेक लोकसेवियों के जीवनक्रम को ढाला, उन्हें सच्चे निरहंकारी स्वयंसेवक के रूप में विकसित किया।

हिम्मता मर्दे मददे खुदा

एक टिटहरी अपनी चोंच में मिट्टी भरती और समुद्र में डाल आती। उसका यह अनवरत श्रम देखकर महर्षि अगस्त्य को आश्चर्य हुआ। उन्होंने उससे इसका कारण पूछा, तो वह बोली-महाराज ! समुद्र मेरे अण्डों को बहा ले गया है। उसको सुखाने के लिए समुद्र में रेत डाल रही हूं। महर्षि अगस्त्य उस छोटे से पक्षी के प्रयत्न और साहस पर प्रसन्न होकर उसकी सहायता के लिए तत्पर हो गए । उन्होंने सारे समुद्र को अंजलि में भरकर पी लिया और टिटहरी को अपने अण्डे वापस मिल गए। 
ठीक ही कहा गया है कि साहसी की सहायता दूसरे लोग भी करते हैं।
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सोमवार, 15 सितंबर 2008

रोगोपचार

एक रोगी राजवैद्य शार्गंधर के समक्ष अपनी गाथा सुना रहा था। अपच, बेचैनी, अनिद्रा, दुर्बलता जैसे अनेक कष्ट व उपचार में ढेरों राशि नष्ट कर कोई लाभ न मिलने के कारण की वह राजवैद्य शार्गंधर के पास आया था। वैद्यराज ने उसे संयमयुक्त जीवन जीने व आहार-विहार के नियमों का पालन करने को कहा। रोगी बोला, ``यह सब तो मैं कर चुका हूँ । आप तो मुझे कोई औषधि दीजिए, ताकि मैं कमजोरी पर नियंत्रण पा सकूँ । पौष्टिक आहार आदि भी बना सकें तो ले लूंगा, पर आप मुझे फिर वैसा ही समर्थ बना दीजिए।´´वैद्यराज बोले, ``वत्स ! तुमने संयम अपनाया होता तो मेरे पास आने की स्थिति ही नहीं आती। तुमने जीवनरस ही नहीं, जीने की सामर्थ्य एवं धन-संपदा भी इसी कारण खोई है। बाह्योपचारों से, पौष्टिक आहार आदि से ही स्वस्थ बना जा सका होता तो विलासी-समर्थों में कोई भी मधुमेह-अपच आदि का रोगी न होता । मूल कारण तुम्हारे अंदर है, बाहर नहीं। पहले अपने छिद्र बंद करो, अमृत का संचय करो और फिर देखो वह शरीर निर्माण में किस प्रकार जुट जाएगा।´´ रोगी ने सही दृष्टि पाई और जीवन को नए सॉंचे में ढाला। अपने बहिरंग व अंतरंग की अपव्ययी वृतियों पर रोक-थाम की और कुछ ही माह में स्वस्थ समर्थ हो गया।

दृढ़ संकल्प

कालिदास एक गया-बीता व्यक्ति था, बुद्धि की दृष्टि से शून्य एवं काला-कुरुप। जिस डाल पर बैठा था, वह उसी को काट रहा था। जंगल में उसे इस प्रकार बैठे देख राज्यसभा से विद्योत्तमा द्वारा अपमानित पंडितों ने उस विदुषी को शास्त्रार्थ में हराने व उसी से विवाह कराने का षडयंत्र रचने के लिए कालिदास को श्रेष्ठ पात्र माना। शास्त्रार्थ में अपनी कुटिलता से उसे मौन विद्वान बताकर उन्होंने प्रत्येक प्रश्न का समाधान इस तरह किया कि विद्योत्तमा ने उस महामूर्ख से हार मान उसे अपना पति स्वीकार कर लिया। पहले ही दिन जब उसे वास्तविकता का पता चला तो उसने उसे घर से निकाल दिया। धक्का देते समय जो वाक्य उसने उसकी भर्त्सना करते हुए कहे, वे उसे चुभ गये। दृढ़ संकल्प अर्जित कर वह अपनी ज्ञान वृद्धि में लग गया। अंत में वही महामूर्ख अपने अध्ययन से कालांतर में ``महाकवि कालिदास´´ के रुप में प्रकट हुआ और अपनी विद्वता की साधना पूरी कर विद्योत्तमा से उसका पुनर्मिलन हुआ

क्रिया की प्रतिक्रिया

एक लड़का जंगल में गया हुआ था। चारों ओर सुनसान, उस बियाबान जंगल में हवाओं और पेड़ों के झूमने की ही आवाज आती थी। वह लड़का डरा और चिल्लाया, `भूत।´ तो उसकी आवाज पहाड़ियों से टकराकर लौट आई और उसे सुनाई दिया, `भूत।´ लड़का समझा सचमुच भूत है। अब की बार उसने मुटि्ठयॉं कसीं और जोर से चिल्लाया, ``तू मुझे खायेगा।´´ पहाड़ो से टकराकर उसकी आवाज फिर लौट आई और उसने यही समझा कि भूत मुझसे पूछ रहा है। तब वह बोला, ``हॉं मैं तुझे खाउंगा।´´ यही आवाज जब फिर उस तक लौटी तो लड़का डरकर अपने घर चला गया और उसने अपनी मॉं से सारी बात कह दी। माँ ने वस्तुस्थिति समझकर कहा, ``बेटा अब की बार तुम जंगल में जाओ तो उस भूत से कहना मेरे प्यारे दोस्त मैं तुझे प्रेम करता हूँ। दोबारा जब वह जंगल में गया तो चिल्लाया,``मेरे अजीज दोस्त।´´पहाड़ों से उन्ही शब्दों की प्रतिध्वनि सुनाई दी और लड़के ने समझा, इस बार भूत उसे डरा नहीं रहा है। फिर वह बोला ``मैं तुझे प्यार करता हूँ।´´ पहाड़ो से यही बात फिर टकराकर लौटी तो लड़का खुशी से नाच उठा। क्रिया की प्रतिक्रिया प्रकृति का एक शाश्वत नियम है।

रविवार, 14 सितंबर 2008

स्थायी मिलन का रहस्य

प्यार के अंकुरित होते ही पिय मिलन की एक हूक उठती है। छटपटाता दिल अपने प्रिय से मिलने के लिए तड़पता है। भावाकुल हृदय मिलते भी है पर हर मिलन उनमे एक अतृप्ति पैदा करता है। प्यास को बुझाने के बजाये उसे और गहरा करता है। प्रत्येक मिलन के बाद उनकी छटपटाहट, बैचेनी और बढती जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि वे स्थायी मिलन के रहस्य से अनजान हैं।

प्यार इबादत है, आराधना है, उपासना है। इसके रहस्य को जान लिया जाय तो वह स्वयं परमेश्वर है। जो प्रेमी को पवित्रता, सजलता, शान्ति, एकात्मता और अनन्तता का वरदान देने से नहीं चूकता। प्रेम के रहस्य जानने वाला प्रेमी ' रसो वै सः ' के तत्व को समझ कर स्वयं रसमय-परमेश्वरमय हो जाता है।

प्यार के अनेकों किस्से दुनिया मैं प्रचलित है। शीरी-फरहाद, लैला-मजनूँ, हीर-राँझा, रोमियो-जूलियट की अमर कथाएँ बड़े चाव से कही-सुनी जाती है पर प्रेम की रहस्यमय महिमा को जानने वालों को मालूम है की यह तो प्रेम-साधना का सिर्फ़ पहला चरण है, जिसे इन अमर विभूतियों ने अनुभव किया। परस्पर हित के लिए उत्सर्ग, स्वार्थ नहीं बलिदान इनका मूल मन्त्र था, जिसे अपनाकर वे मानवीय प्रेम के चरम बिन्दु तक पहुँच सके।

प्रेमदीवानी मीरा का प्यार प्रेमसाधना का सर्वोच्च प्रकार था। उनके प्रियतम प्रभु श्रीकृष्ण का उनके समय कोई स्थूल अस्तित्व न था। चर्मचक्षुओं से उन्हें न देख पाने पर भी उनकी भाव-साधना निरंतर गहराती गई। द्दैवी प्रेम से की गई शुरुआत ईश्वरीय प्रेम के सर्वोच्च प्रेम तक जा पहुँची। उन्होंने अपनी भावनाओं मैं यो मन पश्यति सर्वत्र, सर्वं च मयी पश्यति सत्य का अनुभव किया। चिरवियोग-चिर्मिलन मैं बदल गया।

वह एक सत्य दे गयी-प्यार मैं देह की क्या डरकर। प्यार तो भावनाओं मैं ही अंकुरित, प्रस्फुटित एवम विकसित होता हैं। यदि प्रिय को भावनाओं मैं पाने का यातना किया जाया तो भावों की ऊष्मा अंतःकरण मैं हूक, छातापताहत, ह्रदय के फट पड़ने की-सी

अनुभूति देती है। बाह्य मिलन हाथ न करके यदि इसे धेर्यपूर्वक सह लिया जाया तो इस टाप मैं साडी वासनाएं, जन्मा-जन्मान्तर के संचित कुसंस्कार भस्म हो जाते है। पवित्र हुई मानवीय भावनाएं दैवी भावनाएं का रूप ले लेती है और ईश्वरीय प्रेम के सर्वोच्च प्रेम के बिन्दु तक जा पहुंचती हैं।

अपने प्रिय आराध्य परमपूज्य गुरुदेव मीरा के कृष्ण की ही भांति स्थूल में नहीं है, परन्तु भावुक भक्तों के भावजगत मैं हर पल उपस्तिथ हैं। प्रेमी साधक अपनी प्रेमसाधना में भावमय गुरुमूर्ति एवं भावमय परमेश्वर की अनन्ता मैं जब स्वयं को विलीन होते हुए अनुभव करता है, तब कबीर के स्वरों में गा उठता है, मन मगन भया फ़िर क्यों बोले।

अखंड ज्योति १९९७

जीवन-मृत्यु

जो जीवन के रहस्य को जान लेते हैं, वे मृत्यु के रहस्य को भी जान लेते हैं। इस जीवन का प्रत्येक क्षण बोध का एक अवसर हैं। जिन्दगी का हर पल किसी नए रहस्य को अनावृत करने के लिए, उसे जानने के लिए हैं। जो इस सच से अनजान रहकर जिन्दगी के क्षण-पल को, दिवस-रात्रि को यों ही चुका देते है, वे दरअसल जीवन से चुक जाते हैं। मृत्यु भी उनके लिए केवल रहस्यमय भयावह अँधेरा बन कर रह जाती हैं।

चीनी संत लाओत्से के जीवन का एक प्रसंग है। साँझ के समय उसके पास एक युवक ची-लू एक उलझन लेकर आया। लाओत्से ने साँझ के झुटपुटे में उसके चेहरे की और ताकते हुऐ कहा-" अपनी बात कहो ! " इस पर उस युवक ने पूंछा- " मृत्यु क्या हैं ? " लाओत्से ने अपने उत्तर मैं थोडी हैरानी व्यक्त करते हुऐ कहा-" अरे ! समस्या तो जीवन की होती है, मृत्यु की कैसी समस्या ! " फ़िर थोडी देर रूककर लाओत्से ने धीमे से कहा-"मृत्यु उनके लिए समस्या बनी रहती है, जो जीवन की समस्या का समाधान नहीं जान लेते। "

ची-लू लाओत्से के कथन को ध्यान से सुन रहा था। वृद्ध लाओत्से उससे कह रहा था-" अपनी शक्तियों को केवल जीवन जी लेने में नहीं, बल्कि उसे ज्ञात करने मैं लगाओ। मृत्यु एवम् मृतात्माओं की चिंता करने के बजाय जीवन एवम् जीवित मनुष्यों की समस्याओं के समाधान की खोज करो। अरे ! जब तुम अभी जीवन से ही परिचित नहीं हो, तब तुम मृत्यु से भला कैसे परिचित हो सकते हो ! "

लाओत्से के कथन की गहराई का अहसास ची-लू को होने लगा। उसने अनुभव किया की जो जीवन को जान लेते हैं, केवल वे ही मृत्यु को जान पाते हैं। जीवन का रहस्य जिन्हें ज्ञात हो जाता है, उन्हें मृत्यु भी रहस्य नहीं रह जाती ; क्योंकि वह तो उसी सच का दूसरा पहलु है। मृत्यु का भय केवल उन्हें सताता है, जो जीवन को नहीं जानते। मृत्यु के भय से जो मुक्त हो सका, समझना की उसने जीवन का बोध पा लिया।

अखंड ज्योति- जून २००८

स्वाध्याय एक अनिवार्य दैनिक कृत्य

मानव जीवन में सुख की वृद्धि करने के उपायों में स्वाध्याय एक प्रमुख उपाय है। स्वाध्याय से ज्ञान की वृद्धि होती है। मन में महानता, आचरण में पवित्रता और आत्मा में प्रकाश आता है। स्वाध्याय एक प्रकार की साधना है, जो अपने साधक को सिद्धि के द्वार तक पहुँचाती है। जीवन को सफल, उत्कृष्ट एवं पवित्र बनाने के लिए स्वाध्याय की बड़ी आवश्यकता है। प्रतिदिन नियम पूर्वक सद्ग्रंथों का अध्ययन करते रहने से बुद्धि तीव्र होती है, विवेक बढ़ता है और अंत:करण की शुद्धि होती है, अत: प्रतिदिन चिंतन-मनन के साथ स्वयं पढ़ें एवं दूसरों को पढ़ाने का प्रयास करें।
-पं.श्रीराम शर्मा आचार्य।

उठो! हिम्मत करो

स्मरण रखिए, रुकावट और कठिनाइयाँ आपकी हितचिंतक हैं। वे आपकी शक्तियों का ठीक-ठीक उपयोग सिखाने के लिए हैं। वे मार्ग के कंटक हटाने के लिए हैं। वे आपके जीवन को आनंदमय बनाने के लिए हैं। जिनके रास्ते में रूकावटें नहीं पड़ीं, वे जीवन का आनंद ही नहीं जानते। उनको जिंदगी का स्वाद ही नहीं आया। जीवन का रस उन्होंने ही चखा है, जिनके रास्ते में बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ आई हैं। वे ही महान् आत्मा कहलाए हैं, उन्हीं का जीवन, जीवन कहला सकता है।

उठो ! उदासीनता त्यागो, प्रभु की ओर देखो। वे जीवन के पुंज हैं। उन्होंने आपको इस संसार में निरर्थक नहीं भेजा। उन्होंने जो श्रम आपके ऊपर किया है, उसको सार्थक करना आपका काम है। यह संसार तभी तक दु:खमय दीखता है, जब तक कि हम इसमें अपना जीवन होम नहीं करते। बलिदान हुए बीज पर ही वृक्ष का उद्भव होता है। फूल और फल उसके जीवन की सार्थकता सिद्ध करते हैं। सदा प्रसन्न रहो। मुसीबतों का खिले चेहरे से सामना करो। आत्मा सबसे बलवान है, इस सच्चाई पर दृढ़ विश्वास रखो। यह विश्वास ईश्वरीय विश्वास है। इस विश्वास द्वारा आप सब कठिनाइयों पर विजय पा सकते हैं। कोई कायरता आपके सामने ठहर नही सकती। इसी से आपके बल की वृद्धि होगी। यह आपकी आतंरिक शक्तियों का विकास करेगा।

-अखण्ड ज्योति

पहले दो, पीछे पाओ

यह प्रश्न विचारणीय है कि महापुरुष अपने पास आने वालों से सदैव याचना ही क्यों करता है ? मनन के बाद मेरी निश्चित धारणा हो गई कि त्याग से बढ़कर प्रत्यक्ष और तुरंत फलदायी और कोई धर्म नहीं है। त्याग की कसौटी आदमी के खोटे-खरे रूप को दुनिया के सामने उपस्थित करती है। मन में जमे हुए कुसंस्कारों और विकारों के बोझ को हलका करने के लिए त्याग से बढ़कर अन्य साधन हो नहीं सकता।

आप दुनिया से कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, विद्या, बुद्धि संपादित करना चाहते हैं, तो त्याग कीजिए। गाँठ में से कुछ खोलिए। ये चीजें बड़ी महंगी हैं। कोई नियामक लूट के माल की तरह मुफ्त नहीं मिलती। दीजिए, आपके पास पैसा, रोटी, विद्या, श्रद्धा, सदाचार, भक्ति, प्रेम, समय, शरीर जो कुछ हो, मुक्त हस्त होकर दुनिया को दीजिए, बदले में आप को बहुत मिलेगा। गौतम बुद्ध ने राजसिंहासन का त्याग किया, गाँधी ने अपनी बैरिस्टरी छोड़ी, उन्होंने जो छोड़ा था, उससे अधिक पाया।

विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी एक कविता में कहते हैं, ``उसने हाथ पसार कर मुझ से कुछ माँगा। मैंने अपनी झोली में से अन्न का एक छोटा दाना उसे दे दिया। शाम को मैंने देखा कि झोली में उतना ही छोटा एक सोने का दाना मौजूद था। मैं फूट-फूट कर रोया कि क्यों न मैंने अपना सर्वस्व दे डाला, जिससे मैं भिखारी से राजा बन जाता।’’

-अखण्ड ज्योति मार्च

उद्देश्य ऊँचा रखें

मिट्टी के खिलौने जितनी आसानी से मिल जाते हैं, उतनी आसानी से सोना नहीं मिलता। पापों की ओर आसानी से मन चला जाता है, किंतु पुण्य कर्मों की ओर प्रवृत्त करने में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पानी की धारा नीचे पथ पर कितनी तेजी से अग्रसर होती है, किन्तु अगर ऊँचे स्थान पर चढ़ाना हो, तो पंप आदि लगाने का प्रयत्न किया जाता है।

बुरे विचार, तामसी संकल्प, ऐसे पदार्थ हैं, जो बड़ा मनोरंजन करते हुए मन में धॅस जाते हैं और साथ ही अपनी मारकशक्ति को भी ले आते हैं। स्वार्थमयी नीच भावनाओं का वैज्ञाननिक विश्लेषण करके जाना गया है कि वे काले रंग की छुरियों के समान तीक्ष्ण एवं तेजाब की तरह दाहक होती हैं। उन्हें जहाँ थोड़ा-सा भी स्थान मिला कि अपने सदृश और भी बहुत-सी सामग्री खींच लेती हैं। विचारों में भी पृथ्वी आदि तत्त्वों की भाँति खिंचने और खींचने की शक्ति होती है। तदनुसार अपनी भावना को पुष्ट करने वाले उसी जाति के विचार उड़-उड़ कर वहीं एकत्रित होने लगते हैं।

यही बात भले विचारों के संबंध में है। वे भी अपने सजातियों को अपने साथ इकट्ठे करके बहुकुटुंबी बनने में पीछे नहीं रहते। जिन्होंने बहुत समय तक बुरे विचारों को मन में स्थान दिया है, उन्हें चिंता, भय और निराशा का शिकार होना ही पड़ेगा।

-अखण्ड ज्योति

राखी का धागा

पुरूष का पुरुषार्थ और नारी की मर्यादा, दोनों ही राखी के धागे से बंधे हैं। यह राखी का धागा कमजोर हुआ अथवा टूटा तो न केवल पुरूष का पुरुषार्थ भटकेगा, बल्कि नारी की मर्यादाएँ भी आहत होंगी, क्षत-विक्षत होंगी। इस धागे की मजबूती और दृढ़ता पर ही सामाजिक सरसता-समरसता और सौन्दर्य की इन्द्रधनुषी छटा चहुँ और छाई रहती है। इसमें यदि किसी भी तरह की टूटन या दरकन आई तो इस बहुरंगी रसमय छटा को रसहीन गाढे धुंधलके मैं खोते देर न लगेगी।

पुरूष और नारी के बीच स्वाभाविक नाता सृष्टि के आदि से हैं। जब से ग्रहपिंड अस्तित्व मैं आए, जब से धरती की हरी-भरी गोद विनिर्मित हुई, तभी से पुरूष और नारी भी है और तभी से उनमें परस्पर आकर्षण, आसक्ति और पवित्र प्रेम से पूर्ण सम्बन्ध भी हैं। हालाँकि इस सम्बन्ध में बहुविधि विविधताएँ मानवीय भावनाओं के बहुआयामों के अनुरूप सदा से रहीं हैं। पुरूष पति, प्रेमी, पुत्र, भ्राता बनकर अपने पुरुषार्थ के लिए सचेष्ट रहा हैं और नारी पत्नी, प्रेमिका, पुत्री व भगिनी बनकर अपनी मर्यादाओं के संरक्षण के लिए प्रयासरत रही हैं।

पुरूष और नारी के बीच इन अनगिनत नातों मैं भ्राता और भगिनी अथवा भाई व बहिन के नाते का अपना विशिष्ट सौन्दर्य हैं। इस नाते में आकर्षण अनन्त हैं, पर वासना का विष नहीं हैं। इसमें आसक्ति और मोह की जगह भावपूर्ण बलिदान है। इसके पवित्र प्रेम में भावों के सभी रंग और रूप होते हुऐ भी किसी भी तरह के कलुष की कालिमा नहीं हैं। भावमय भावनाओं से भरा, पवित्र प्रेम से पूरित सम्बन्धों का यह संसार राखी के धागों से उपजता हैं और इसी के रंगों के अनुरूप अपने अनगिनत रूपों की सृष्टि करता हैं। इस धागे में बंधकर और इसे बांधकर पुरूष और नारी, दोनों ही अपने पुरुषार्थ और अपनी मर्यादाओं के खोते जा रहे स्वधर्म को पुनः प्राप्त कर सकते हैं।

अखंड ज्योति अगस्त २००८

विचार

ध्यान रहे, धनुष के तीरों की भाँति मन से विचार निकलते हैं। वे लक्ष्य भेद करने के बाद फिर से उसी व्यक्ति के पास वापस लौट आते हैं, जिसने उन विचारों को उत्पन्न किया हैं। इसलिए यदि हम शुभ, सकारात्मक एवं रचनात्मक विचार प्रेषित कर रहे हैं तो ये वैचारिक जगत में चलते हुए उन लोगो तक पहुँचते हैं, जिनकी ओर लक्षित किये गये थे। रचनात्मक विचारों के तीर पुन: हमारे पास लोगों के आशीर्वाद, सद्भावना और शुभकामना लेकर लौट आते हैं और हमारा मन अधिक-से-अधिक प्रेरित, प्रसन्न और उत्साहित हो जाता है। इसके विपरीत जब विध्वंसात्मक विचार अपने लक्ष्य की ओर जाते हैं तो फल भिन्न होता हैं। यदि लक्ष्य अधिक सशक्त हैं तो हमारे ऋणात्मक विचार उसका भेदन नहीं कर पाते और वे विचारो के बाण लक्ष्य से टकराकर दोगने वेग से हमारे अपने उपर ही वार करते हैं। यदि इन्होने अपने लक्ष्य पर आघात कर भी दिया तो भी इनकी प्रतिक्रिया में विध्वंसक विचारो का दोगना वेग हम पर प्रहार करता है।

धर्म क्या हैं ?

धर्म क्या हैं ? :- धर्म प्रवचन नहीं है। बोद्धिक तर्क -विलास वाणी का वाक्जाल भी धर्म नहीं है। धर्म तप हैं। धर्म तितिक्षा है। धर्म कष्ट-सहिष्णुता है। धर्म परदु:खकातरता है। धर्म सचाइयों और अच्छाइयों के लिए जीने और इनके लिए मर मिटने का साहस हैं, धर्म मर्यादाओं की रक्षा के लिए उठने वाली हुकारे हैं धर्म सेवा की सजल संवेदना है। धर्म पीडा-निवारण के लिए स्फुरित होने वाला महासंकल्प है। धर्म पतन-निवारण के लिए किए जाने वाले युद्ध का महाघोष हैं। धर्म दुष्प्रवर्तियों, दुष्कृत्यों, कुरीतियों के महाविनाश के लिए किए जाने वाले अभियान का शंखनाद है। धर्म सर्वहित के लिए स्वहित का त्याग हैं। ऐसा धर्म केवल तप के वासंती अंगारो में जन्म लेता हैं। बलिदान के वासंती राग में इसकी सुमधुर गूंज सुनी जाती है।

श्रद्धा का महत्त्व

कोई उपदेश तभी प्रभावशाली हो सकता है जब उसका देने वाला, सुनने वालों का श्रद्धास्पद हो। वह श्रद्धा जितनी ही तीव्र होगी उतना ही अधिक उपदेश का प्रभाव पड़ेगा। प्रथम कक्षा के मन्त्र दीक्षित को यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि वह गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा रखेगा। उसे वह देवतुल्य या परमात्मा का प्रतीक मानेगा।

अश्रद्धालु के मन पर ब्रह्मा का उपदेश भी कुछ प्रभाव नहीं डाल सकता। श्रद्धा के अभाव में किसी महापुरुष के दिन-रात साथ रहने पर भी कोई व्यक्ति कुछ लाभ नहीं उठा सकता है और श्रद्धा होने पर दूरस्थ व्यक्ति भी लाभ उठा सकता है। इसलिए आरम्भिक कक्षा के मन्त्र दीक्षित को गुरु के प्रति तीव्र श्रद्धा भी धारण करनी पड़ती है।

विचारों को मूर्तिमान रुप देने के लिए उनको प्रकट रुप से व्यवहार में लाना पड़ता है। जितने भी धार्मिक कर्मकाण्ड, दानपुण्य, व्रतउपवास, हवनपूजन, कथाकीर्तन आदि है वे सब इसी प्रयोजन के लिए है कि आन्तरिक श्रद्धा व्यवहार में प्रकट होकर साधक के मन में परिपुष्ट हो जाय। दीक्षा के समय स्थापित हुई श्रद्धा कर्म काण्ड के द्वारा सजग रहे इसी प्रयोजन के लिए समय-समय पर गुरु पूजन किया जाता है। क्रिया और विचार दोनो के समिश्रण से एक संस्कार बनता है।

निर्धन व्यक्ति भले ही न्यूनतम मूल्य की वस्तुऐं ही क्यों न भेंट करे, उन्हें सदैव गुरु को बार-बार अपनी श्रद्धान्जलि अर्पित करना चाहिए।

साधना से सिद्धि

साधना की गई , पर सिद्धि नहीं मिली। तप तो किया गया पर तृप्ति नहीं मिली। अनेक साधकों की विकलता यही है। लगातार सालों-साल साधना करने के बाद वे सोचने लगते है, क्या साधना का विज्ञान मिथ्या है ? क्या इसकी तकनीको में कोई त्रुटि है ? ऐसे अनेको प्रश्न-कंटक उनके अन्त:करण में हर पल चुभते रहते है। निरन्तर की चुभन से उनकी अंतरात्मा में घाव हो जाता है। जिससे वेदना रिसती रहती है। बड़ी ही असह्य होती है चुभन और रिसन की यह पीड़ा। बड़ा ही दारुण होता है यह दरद !!

महायोगी गोरखनाथ का एक युवा शिष्य भी एक दिन ऐसी ही पीड़ा से ग्रसित था। वेदना की विकलता की स्पष्ट छाप उसके चेहरे पर थी। एक छोटे-से नाले को पार करके वह एक खेत की मेड़ पर हताश बैठा था। तभी उसे पास के खेत से ही गोरखनाथ आते दिखाई दिये।

उनके चरणों में सिर रखकर प्रणाम करते हुए उसने पूछा ,‘‘ गुरुदेव, मेरी वर्षों की साधना निष्फल क्यों हुई ? भगवान मुझसे इतना रुठे क्यों है ?’’ महायोगी हँसे और कहने लगे,‘‘ पुत्र, कल मैं एक बगीचे में गया था। वहा कुछ दूसरे युवक भी थे। उनमें से एक को प्यास लगी थी। उसने बाल्टी कुई में डाली, कुँआ गहरा था। बाल्टी खींचने में भारी श्रम करना पड़ा,लेकिन जब बाल्टी लौटी तो खाली थी। उस युवक के सभी साथी हंसने लगे।

मैनें देखा, बस वह कहने भर को बाल्टी थी, उसमें छेद-ही-छेद थे। बाल्टी कुईं में गई, पानी भी भरा, पर सब बह गया। वत्स, साधक के मन की यही दशा है। इस छेद वाले मन से कितनी ही साधना करो, पर छेदों के कारण सिद्धि नहीं मिलती। इससे कितना ही तप करो, पर तृप्ति नहीं मिलती। भगवान कभी भी किसी से रुठे नहीं रहते। बस साधक के मन की बाल्टी ठीक होनी चाहिए। कुँआ तो सदा ही पानी देने के लिए तैयार है। उसकी ओर से कभी भी इन्कार नहीं है।’’

आनंद का मूल स्त्रोत-प्रेम

प्रेम-भाव की प्राप्ति न पुस्तको से होती है और न उपदेशो से। उसकी प्राप्ति धन अथवा संपत्ति से भी नही होती और न मान और पद प्रतिष्ठा ही उसको संभव बना सकती है। भक्ति और सत्ता द्वारा भी प्रेम-भाव की सिद्धि नही हो सकती। जबकि लोग प्रायः इन्ही साधनों द्वारा ही प्रेम-भाव को पाने का प्रयत्न किया करते है। पुस्तके पढ़कर लेखक के प्रति, शक्ति और वैभव देखकर सत्ताधारी के प्रति जो आकर्षण अनुभव होता है, उसका कारण प्रेम नही होता है। उसका कारण होता है-प्रभाव, लोभ और भय। वास्तविक, प्रेम-भाव वहीँ संभव है, जहाँ न कोई प्रभाव होगा, न स्वार्थ अथवा आशंका।

ऐसा वास्तविक और निर्विकार प्रेम-भाव केवल सेवा द्वारा ही पाया जा सकता है। सेवा और प्रेम वस्तुतः दो भिन्न-भिन्न वस्तुएँ नही है। यह एक भाव के ही दो पक्ष है। जहाँ प्रेम होगा, वहाँ सेवा भाव होगा और जहाँ सेवा-भाव होगा वहाँ प्रेम-भाव का होना अनिर्वाय है। जिसके प्रति मनुष्य के ह्रदय मे प्रेम-भाव नही होगा, उसके प्रति सेवा-भाव का भी जागरण नही हो सकता और जो सेवा-भाव सेव्य के प्रति प्रेम-भाव नही जमाता, वह सेवा नही, स्वार्थपरक चाकरी का ही एक रूप होगा। जिसकी सेवा करने में सुख, शान्ति और गौरव का अनुभव हो, समझ लेना चाहिए की उस सेव्य के प्रति ह्रदय मे प्रेम-भाव अवश्य है।

अखंड ज्योति, जून १९६८

जीवन जीने की कला

यदि जीवन में गंतव्य का बोध न हो तो भला गति सही कैसे हो सकती है। और यदि कहीं पहुंचना ही न हो तो संतुष्टि कैसे पायी जा सकती है। जो जीवन जीने की कला से वंचित है समझना चाहिए कि उनके जीवन में न तो दिशा है और न कोई एकता है। उनके समस्त अनुभव निरे आणविक रह जाते है। उनसे कभी भी उर्जा का जन्म नहीं हो पाता, जो कि ज्ञान बनकर प्रकट होती। ऐसा व्यक्ति सुख-दु:ख तो जानता है, पर उसे कभी भी आनन्द की अनुभूति नहीं होती। जीवन में यदि आनन्द पाना है तो जीवन को फूलों की माला बनाना होगा। जीवन के समस्त अनुभवों को एक लक्ष्य के धागे में कलात्मक रीति से गूंथना होगा। जो जीने की इस कला को नहीं जानते है, वे सदा के लिए जिंदगी की सार्थकता एवं कृतार्थता से वंचित रह जाते है।

एक साधना

एक साधना जिसे करने के लिए हम आपको अनुरोधपूर्वक प्रेरित करते हैं-वह हैं दिन-रात में से कोई भी पन्द्रह मिनट का समय निकाले और एकान्त में शांतिपूर्वक सोचे कि वे क्या हैं ? वे सोचे कि क्या वे उस कर्तव्य को पूरा कर रहे हैं, जो मनुष्य होने के नाते उन्हे सौपा गया था। मन से कहिए कि वह निर्भीक सत्यवक्ता की तरह आपके अवगुण साफ-साफ बतावें।

-परमपूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीराम शर्मा

मृत्यु एक मंगलमय महोत्सव

मृत्यु एक मंगलमय महोत्सव :- सुखपूर्वक एवं शोकरहित मृत्यु वरण करने के लिए एक महामन्त्र है, येनानृत्तनि नोक्तानि प्रीति भेद: कृतो न च। आस्तिक: श्रद्धानश्च स सुखंमृत्युमृच्छति। अर्थात जिसने कभी असत्य आचरण नहीं किया हो, जिसके अन्दर ईर्ष्या-द्वेष का भाव न हो, जो आत्मा में परम विश्वासी हो तथा जो अच्छाइयों पर अनन्य श्रद्धा-आस्था रखता हो, वही सुखपूर्वक-शांतिपूर्वक महामृत्यु को वरण कर सकता हैं। अत: हम भी सद्चिन्तन, सदाचरण और सद्व्यवहार को जीवन में उतारकर मृत्यु को मांगलिक महोत्सव के रुप में मना सकते है।

कर्मकांड

कपडे को रंगने से पूर्व धोना पडता हैं। बीज बोने से पूर्व जमीन जोतनी पडती हैं। भगवान का अनुग्रह अर्जित करने के लिये भी शुद्ध जीवन की आवश्यकता हैं। साधक ही सच्चे अर्थों में उपासक हो सकता हैं। जिससे जीवन साधना नहीं बन पडी उसका चिन्तन, चरित्र, आहार, विहार, मस्तिष्क अवांछनीयताओं से भरा रहेगा। फलत: मन लगेगा ही नहीं। लिप्साएं और तृष्णायें जिसके मन को हर घडी उद्विग्न किये रहती हैं, उससे न एकाग्रता सधेगी और न चित्त की तन्मयता आयेगी। कर्मकांड की चिन्ह पूजा भर से कुछ बात बनती नही। भजन का भावनाओं से सीधा सम्बन्ध हैं। जहाँ भावनाएं होंगी, वहां मनुष्य अपने गुण, कर्म , स्वभाव में सात्विकता का समावेश अवश्य करेगा।

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