शुक्रवार, 4 मार्च 2011

पहले दो, पीछे पाओ

यह प्रश्न विचारणीय है कि महापुरूष अपने पास आने वालों से सदैव याचना ही क्यों करता है ? मनन के बाद मेरी निश्चित धारणा हो गई कि त्याग से बढ़कर प्रत्यक्ष और तुरन्त फलदायी और धर्म नही है। त्याग की कसौटी आदमी के खोटे-खरे रूप को दुनिया के सामने उपस्थित करती है। मन मे जमे हुये कुसंस्कारों और विकारों के बोझ को हलका करने के लिये त्याग से बढकर अन्य साधन हो नही सकता।

आप दुनिया से कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, विद्या, बुद्धि संपादित करना चाहते है, तो त्याग कीजिये। गांठ में से कुछ खोलिये। ये चीजें बड़ी मंहगी हैं। कोई नियामत लूट के माल की तरह मुफ्त नही मिलती। दीजिये, आपके पास पैसा, रोटी, विद्या, श्रद्धा, सदाचार, भक्ति, प्रेम, समय, शरीर जो कुछ हो मुक्तहस्त होकर दुनिया को दीजिये, बदले में आप को बहुत मिलेगा। गौतम बुद्व ने राजसिंहासन का त्याग किया, गांधी ने अपनी बैरिस्टरी छोड़ी, उन्होने जो छोड़ा था, उससे अधिक पाया। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टेगोर अपनी एक कविता मे कहते है, ‘‘उसने हाथ पसार कर मुझ से कुछ मांगा। मैंने अपनी झोली में से अन्न का एक छोटा दाना उसे दिया। शाम को मैने देखा की झोली मे उतना ही छोटा सोने का दाना मोजूद था। मैं फूट-फूट कर रोया कि क्यों न मैंने अपना सर्वस्व दे डाला, जिससे मैं भिखारी से राजा बन जाता।’’

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