स्वार्थ और परमार्थ में बहुत थोड़ा-सा अन्तर है स्वार्थ उसे कहते हैं जो शरीर को तो सुविधा पहुँचाता हो पर आत्मा की उपेक्षा करता हो । चूँकि हम आत्मा ही है शरीर तो हमारा वाहन या उपकरण मात्र है इसलिए वाहन या उपकरण को लाभ पहुँचे किन्तु स्वामी दुःख पावे तो ऐसा कार्यक्रम मूर्खतापूर्ण कहा जाएगा । इसके विपरीत परमार्थ में आत्मा के कल्याण का ध्यान प्रधान रूप से रखा जाता है, आत्मा के उत्कर्ष होने से शरीर को सब प्रकार की सुखी एवं सन्तुष्ट रखने वाली आवश्यक परिस्थितियाँ अपने आप उपस्थित होती रहती हैं । केवल अनावश्यक विलासिता पर ही अंकुश लगता है फिर भी यदि कभी ऐसा अवसर आवे कि शरीर को कष्ट देकर आत्मा को लाभ देना पड़े तो उसमें संकोच न करना ही बुद्धिमानी है, यही परमार्थ है । परमार्थ का अर्थ है परम स्वार्थ ।
जिस कार्य के द्वारा तुच्छ स्वार्थ की, शरीर तक सीमित रहने वाले स्वार्थ की पूर्ति होती है वही त्याज्य है । जो स्वार्थ अपनी आत्मा का, शरीर का परिजनों का एवं सारे समाज का हित साधन करता है, वह तो प्रशंसनीय ही है । ऐसा परमार्थ सर्वत्र अभिनंदनीय माना जाता है । वही मनुष्य की सर्वोत्तम दूरदर्शिता का चिह्न भी है । इसी पथ पर चलते हुए इस सुर-दुर्लभ मानव-जीवन का लक्ष्य पूरा हो सकता है ।
-वाङ्मय ६६-२-६८,६९
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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