एक मित्र साधु हो गए। साधु होने के बाद पहली बार मिलने आए। उन्हें गैरिक वस्त्रों में देखा तो मैने कहा, मैं तो सोचता था कि सच ही तुम साधु हो गए हो, लेकिन यह क्या ? ये वस्त्र क्यों रंग डाले हैं ? मेरे अज्ञान पर मुस्कराते हुए वे बोले, ‘‘साधु का अपना वेश होता हैं।’’ यह सुन मैं सोच में पड़ गया, तो उन्होंने कहा, ‘‘इसमें सोच की क्या बात हैं ? मैंने कहा, ‘‘पहनने की मनाही नहीं हैं, न पहनने की शर्त नहीं हैं। प्रश्न कुछ विशेष पहनने या कुछ भी न पहनने के आग्रह का हैं। मित्र, वेश वस्त्रों में नहीं, आग्रह में हैं।’’ वे बोले, ‘‘वेश से स्मृति रहती हैं कि मैं साधु हूँ।’’ अब हँसने की मेरी बारी थी।
मैने कहा, ‘‘मैं जो हूँ, उसकी स्मृति रखनी ही नही होती है। मैं जो नहीं हूँ उसकी ही स्मृति को संभालना पड़ता हैं। और फिर जो साधुता वस्त्रों से याद रहे, क्या वह भी साधुता हैं ? वस्त्र तो बहुत ऊपर हैं और उथले हैं। चमड़ी भी गहरी नहीं हैं। मांस-मज्जा भी बहुत गहरी नहीं हैं। मन भी गहरा नहीं हैं। आत्मा के अतिरिक्त और कोई ऐसी गहराई नहीं हैं जो साधुता का आवास बन सके। और स्मरण रहे कि ऊपर जिनकी दृष्टि हैं, वे भीतर से वंचित रह जाते हैं। वस्त्रों पर जिनका ध्यान हैं, वे उस ध्यान के कारण ही आत्मा के ध्यान में नहीं जा पाते हैं। संसार और क्या है ? वस्त्रों पर केन्द्रित चित्त ही तो संसार हैं जो वस्त्रों से मुक्त हो जाता हैं, वही साधु हैं।
-ओशो
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