हम आत्म-कल्याण और युग-निर्माण इन दो कार्यक्रमों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं । गाड़ी के दो पहियों की तरह हमारे जीवन के दो पहलू हैं-एक भीतरी दूसरा बाहरी । दोनों के सन्तुलन से ही हमारी सुख-शान्ति स्थिर रह सकती है और इसी स्थिति में प्रगति सम्भव है । मनुष्य आत्मिक दृष्टि से पतित हो, दुर्मति-दुर्गुणी और दुष्कर्मी हो तो बाहरी जीवन में कितनी ही सुविधाएँ क्यों न उपलब्ध हों वह दुःखी ही रहेगा । इस प्रगति की यदि बाह्य परिस्थितियाँ दूषित हैं तो आन्तरिक श्रेष्ठता भी देर तक टिक न सकेगी । असुरों के प्रभुता काल में बेचारे सन्त महात्मा जो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ते थे अनीति के शिकार होते रहते थे । भगवान राम जब वनवास में थे तब उन्होंने असुरों द्वारा मारे गये सन्त महात्माओं की अस्थिओं के ढेर लगे देखकर बहुत द़ुःख मनाया । जिस समाज में दुष्टता और र्दुबुद्धि बढ़ जाती है उसमें सत्पुरुष भी न तो अपनी सज्जनता की और न अपनी ही रक्षा कर पाते हैं । इसलिए जीवन के दोनों पहलू ही रथ से जुते हुए दो घोड़ों की तरह संभालने पड़ते हैं । दोनों में ताल-मेल बिठाना पड़ता है । रथ का एक घोड़ा आगे की ओर चले और दूसरा पीछे की तरफ लौटे तो प्रगति अवरूद्ध हो जाती है । इसी प्रकार हमारा बाह्य जीवन और आन्तरिक स्थिति दोनों का समान रूप से प्रगतिशील होना आवश्यक माना गया है ।
-वाङ्मय ६६-२-५३, ५४
आत्मा सूक्ष्म है, निराकार है । स्थूल वस्तुओं की सहायता से ही उसका अस्तित्व और आकार सामने आता है । शरीर के आधार पर वह कार्य करता है, मन के आधार पर वह सोचता है और संसार क्षेत्र में गतिशील रहता है । शरीर, मन और संसार यह तीनों ही आत्मा के बाह्य शरीर हैं । इन तीनों की सुव्यवस्था पर आत्मिक स्थिरता निर्भर रहती है । आत्म-कल्याण के लिए ईश्वर उपासना एवं योग साधना की आवश्यकता होती है; यह हमारी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है । इसकी पूर्ति के लिए ऋषियों एवं शास्त्रों ने हमें कुछ न कुछ समय नित्य लगाते रहने का आदेश दिया है । उपासना और साधना रहित व्यक्ति की आत्मा मलीन और पतनोन्मुख हो जाती है, स्वार्थ और भोग का नशा उसे पाप की नारकीय ज्वाला में घसीट ले जाता है । इसीलिए अपने अस्तित्व का सही रूप जानने और अपने लक्ष्य के प्रति गतिशील रहने के लिए उसे अध्यात्म का सहारा लेना पड़ता है । आत्म-कल्याण का यही मार्ग है ।
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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