मन की चाल दुमुँही है । जिस प्रकार दुमुँहा साँप कभी आगे चलता है, कभी पीछे । उसी प्रकार मन में दो परस्पर विरोधी वृत्तियाँ काम करती रहती हैं । उनमें से किसे प्रोत्साहन दिया जाए और किसे रोका जाए यह कार्य विवेक-बुद्धि का है । हमें बारीकी के साथ यह देखना होगा कि इस समय हमारे मन की गति किस दिशा में है । यदि सही दिशा में प्रगति हो रही है तो उसे प्रोत्साहन दिया जाये और यदि दिशा गलत है तो उसे पूरी शक्ति के साथ रोका जाए और, इसी में बुद्धिमत्ता है क्योंकि सही दिशा में चलते हुए मन जहाँ हमारे लिए श्रेयस्कर परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है वहाँ कुमार्ग पर चलते रहने में एक दिन दुःखदायी दुर्दिन का सामना भी करना पड़ता है । इसलिए समय रहते चेत जाना ही उचित है ।
-वाङ्मय ६६-२-१०
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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