शुक्रवार, 4 मार्च 2011

युग निर्माण का आधार व्यक्ति-निर्माण

बच्चा आरम्भ में एक पैसा चुराने की आदत सीखता है, बड़ा होने पर वह कुछ बढ़ी-चढ़ी गड़बड़ी करने लगता है, समयानुसार बड़े हाथ मारने की क्षमता प्राप्त करता है और परिस्थितियाँ अनुकूल रहें तो एक दिन नामी चोर होकर जेलखाने पहुंचता है । सभी उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं, कोई अपना नहीं रह जाता । सर्वत्र निन्दा, असहयोग, घृणा ही उसे प्राप्त होती है और कठिनाइयों से पार निकलने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता । एक दूसरा बच्चा उसी का साथी ईमानदारी पर दृढ़ आस्था जमाता है । माँ-बाप उस पर भरोसा करते हैं, अध्यापक उस पर प्रेम और गर्व करते हैं, बड़ा होने पर जहाँ वह कारोबार करता है, वहाँ उसका सम्मान देवता की तरह होता है और अपने कृपालुओं की सहायता से वह बहुत ऊँची स्थिति तक जा पहुँचता है । आरम्भ में इन बालकों के स्वभाव में थोड़ा-सा अन्तर था । एक-दो पैसा चुराने न चुराने या उससे खरीदी जा सकने वाली वस्तु के मिलने न मिलने का कोई बड़ा महत्त्व न था पर इसी भिन्नता ने जब अपनी परिपक्वता प्राप्त की तो दोनों में इतना अन्तर आ गया कि उसका कोई अन्दाजा नहीं । 
-वाङ्मय ६६-२-८ 
बुराई और भलाई की परस्पर विरोधी वृत्तियाँ आरम्भ में बहुत छोटे रूप में होती हैं पर उनका परिपोषण होते रहने से धीरे-धीरे बड़ा विशाल रूप बन जाता है । व्यभिचार का आरम्भ हँसी-दिल्लगी या छोटी उच्छ्रंखलता से होता है, इस मार्ग पर बढ़ते हुए कदम किसी नारी को वेश्या बना सकते हैं । इसके विपरीत यदि सदाचार के प्रति थोड़ी दृढ़ता रहे तो वही वृत्ति उसे आदर्श पतिव्रता के रूप में अजर-अमर बना सकती है । कामचोरी और आलस्य की वृत्ति आरम्भ में छोटी-छोटी उपेक्षा या टालमटोल के रूप में दिखाई पड़ती है पर अन्त में वही व्यक्ति आलस्य, प्रमाद और लापरवाही में अपना सब कुछ गँवा कर दर-दर की ठोकरें खाते-फिरने की स्थिति में पहुंच जाता है । एक-दूसरा व्यक्ति जिसे परिश्रम में अपना गौरव और चमकता भविष्य दीखता है, निरन्तर हँसी-खुशी के साथ परिश्रम करता रहता है और इसी पुरुषार्थ के बल पर वह उन्नति के उच्च शिखर पर पहुंचता है । 
-वाङ्मय ६६-२-८, ९ 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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