भौतिकता और आध्यात्मिकता परस्पर दोनों एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं, एक के बिना दूसरी अधूरी है । जंगल में गुफा में भी रहने वाले विरक्त महात्मा को भोजन, प्रकाश, वस्त्र, माला, कमण्डल, आसन, खड़ाऊँ, पुस्तक, कम्बल, आग आदि वस्तुओं की आवश्यकता रहेगी ही और इन सब को जुटाने को प्रयत्न करना ही पड़ेगा, इसके बिना उसका जीवित रहना भी सम्भव न रहेगा । इतनी भौतिकता तो गुफा निवासी महात्मा को भी बरतनी पड़ेगी और अपने परिवार के प्रति प्रेम और त्याग बरतने की आध्यात्मिकता चोर -उठाईगीर और निरंतर भौतिकवादी को भी रखनी पड़ेगी । भौतिकता को तमतत्व और आध्यात्मिकता को सततत्व माना गया है । दोनों के मिलने से रजतत्व बना है । इसी में मानव की स्थिति है । एक के भी समाप्त हो जाने पर मनुष्य का रूप ही नहीं रहता । तम नष्ट होकर सत ही रह जाए तो व्यक्ति देवता या परमहंस होगा, यदि सत नष्ट होकर तम ही रह जाए तो असुरता या पैशाचिकता ही बची रहेगी । दोनों स्थितियों में मनुष्यत्व का व्यतिरेक हो जाएगा । इसलिए मानव जीवन की स्थिति जब तक है तब तक भौतिकता और आध्यात्मिकता दोनों ही साथ-साथ रहती हैं । अन्तर केवल प्राथमिकता का है । सज्जनो के लिए आध्यात्मिकता की प्रमुखता रहती है, वे उसकी रक्षा के लिए भौतिक आधार की बहुत अंशों तक उपेक्षा भी कर सकते हैं । इसी प्रकार दुर्जनों के लिए भौतिकता का स्थान पहला है । वे उस प्रकार के लाभो के लिए आध्यात्मिक मर्यादाओं का उल्लंघन भी कर देते हैं । इतने पर भी दोनों ही प्रकृति के लोग किसी न किसी रूप में भौतिक और आत्मिक तथ्यों को अपनाते ही हैं, उन्हें अपनाये ही रहना पड़ता है ।
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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