शुक्रवार, 4 मार्च 2011

आनन्द की खोज

आनंद की खोज में भटकता हुआ इंसान, दरवाजे-दरवाजे पर टकराता फिरता हैं बहुत सा रूपया जमा करें, उत्तम स्वास्थ्य रहे, सुस्वाद भोजन करें, सुन्दर वस्त्र पहनें, बढ़िया मकान और सवारिया हों, नौकर-चाकर हों, पुत्र, पुत्रियों, बंधुओं से घर भरा हों, उच्च अधिकार प्राप्त हों, समाज मे प्रतिष्ठा हों, कीर्ति हो। ये चीजे आदमी प्राप्त करता है। जिन्हें ये चीजे प्राप्त नही होती है वे प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। जिनके पास है, वे उससे अधिक लेने का प्रयत्न करते है

इन सब तस्वीरों में आनंद की खोज करते-करते चिरकाल बीत गया, पर राजहंस को ओस ही मिली। मोती ! उसकी तो खोज ही नही की गई, मानसरोवर की और तो मुँह ही नही किया गया, लम्बी उड़ान भरने की हिम्मत तो बांधी ही नही। मन ने कहा-जरा इसे और देख लूँ। आँखों से न दीख पड़ने वाले मानसरोवर से मोती मिल ही जायेगे, इसकी क्या गारंटी है। फिर ओस चाटी और फड़फड़ाया, फिर यही पहिया चलता रहता है। आपने उनमे खोजा, कुछ क्षण पाया भी, परन्तु ओस की बूंदे ठहरी, वे दूसरे ही क्षण जमीन पर गिर पड़ी और धूल मे समा गई।

यही नष्ट होने की आशंका अधिक संचय के लिये प्रेरित करती रहती है, फिर भी नाशवान चीजो का नाश होता ही है।

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