शांतिकुंज एक संस्कारित तपस्थली है, जहाँ करोड़ों गायत्री मंत्र के जप-अनुष्ठान अब तक संपन्न हो चुके हैं व नित्य लाक्षाधिक जप संपन्न होकर नौकुंडी यज्ञशाला में साधकों द्वारा आहुतियाँ दी जाती हैं । यह ब्रह्मऋषि विश्वामित्र की तपस्थली भी है तथा परमपावनी पुण्यतोया भागीरथी के तट पर हिमालय के हृदय उत्तरांखड के द्वारा पर यह अवस्थित है । इसी कारण इसे एक सिद्घाश्रम की, युगतीर्थ की उपमा दी जाती है, जिसके कल्पवृक्ष के तले साधना करने वाला साधक अपनी मनोवांछित कामनाएँ ही नहीं पूरी करता, यथाशक्ति मनोबल-आत्मबल भी संपादित करके लौटता है ।
शांतिकुंज की तीर्थगरिमा एवं स्थान की विशेषता का अनुभव करते हुए जब कभी उपासकों की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है और सीमित आकार के आश्रम में किसी प्रकार ठूँस-ठाँस करके इच्छुकों का तारतम्य बिठाना पड़ता है तो अनुष्ठान को अति संक्षिप्त पाँच दिन का भी कर दिया जाता है और उतने ही दिन में मात्र १०८ माला का अति संक्षिप्त अनुष्ठान करने से भी काम चला लिया जाता है । कुछ साधक ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अत्यधिक व्यस्तता रहती है । उनके लिए भी पाँच दिन शांतिकुंज रहकर अनुष्ठान कर लेने की व्यवस्था बना दी जाती है, पर यह है-आपत्तिकालीन न्यूनतम व्यवस्था ही ।
जिन्हें अत्यधिक व्यस्तता नहीं है और जिन पर काम का अत्यधिक दबाव नहीं है, उनके लिए ९ दिन का २४ हजार जप वाला परंपरागत अनुष्ठान ही उपयुक्त पड़ता है । इतनी अवधि शांतिकुंज के वातावरण में रहकर व्यतीत की जाए तो वह अपेक्षाकृत अधिक फलप्रद और अधिक प्रभावोत्पादक रहती है । इतनी अवधि में सत्संग के लिए प्रवचनपरक वह लाभ भी मिल जाता है, जिसे जीवन-कला का शिक्षण एवं उच्चस्तरीय जीवनयापन का लक्ष्यपूर्ण मार्गदशर्न कहा जा सकता है । कितने ही लोगों की अभिलाषा हरिद्वार, ऋषिकेश, लक्ष्मणझूला, कनखल आदि देखने की भी होती है । वह अवकाश भी तभी मिलता है, जब नौ दिन का संकल्प लेकर अनुष्ठान-प्रक्रिया में प्रवेश किया जाए । जिन्हें सवालक्ष का चालीस दिन में संपन्न होने वाला अनुष्ठान करना हो, उन्हें अपने घर पर ही रहकर उसे करना, चाहिए, क्योंकि शांतिकुंज में इतनी लंबी अवधि तक रहने की सुविधा मिल सकना हर दृष्टि से कठिन पड़ता है ।
इक्कीसवीं सदी में एक लाख प्रज्ञा-संगठन बनाने और एक करोड़ व्यक्तियों की भागीदारी का निश्चित निधार्रण किया गया है । उस निमित्त भी वरिष्ठ भावनाशीलों को बहुत कुछ सीखना, जानना और शक्ति-संचय की आवश्यकता पड़ेगी । यह प्रसंग अधिक विस्तार से समझने और समझाने का है, इसलिए भी नौ दिन का समय निकालकर शांतिकुंज में प्रेरणा, दक्षता एवं क्षमता उपलब्ध करने की आवश्यकता पड़ेगी । अच्छा हो कि जिनके पास थोड़ा अवकाश हो, वे नौ दिन का सत्र हर महीने तारीख १ से ९, ११ से १९ तथा २१ से २९ तक का पूरा करें जो निरंतर जारी रहते हैं किन्तु पाँच दिन के सत्रों में ही जिन्हें आना है, उनके लिए तारीख १ से ५, ७ से ११, १३ से १७ और १९ से २३ तथा २५ से २९ तक का निधार्रण है । ये दोनों साथ-साथ ही चलते रहते हैं । जिन्हें जैसी सुविधा हो, अपने पूरे परिचय समेत आवेदन-पत्र भेजकर समय से पूर्व स्वीकृति प्राप्त कर लेनी चाहिए । बिना स्वीकृति लिए आने वालों को स्थान मिल सके, इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती । अशिक्षितों, जराजीर्ण तथा संक्रामक रोगग्रस्तों को प्रवेश नहीं मिलता ।
पुरूषों की तरह महिलाएँ भी सत्र-साधना के लिए शांतिकुंज आ सकती हैं पर उन्हें छोटे बच्चों को लेकर आने की धमर्शाला-स्तर की व्यवस्था यहाँ नहीं है । साधना, प्रशिक्षण और परामर्श में प्रायः इतना समय लग जाता है कि उस व्यस्तता के बीच छोटे बालकों की साज-सँभाल बन नहीं पड़ती है । अतःमात्र उन्हीं को सत्रों में आना चाहिए, जो निविर्घ्न कुछ समय रहकर साधना कर यहाँ के वातावरण का लाभ ले सकें व अनुशासित व्यवस्था में भी गड़बड़ी न आने दें ।
संस्कारों की सुलभ व्यवस्था
शांतिकुंज में यज्ञोपवीत-संस्कार और विवाह-संस्कार कराने की भी सुव्यवस्था है । इस प्रयोजन में प्रायः आडम्बर बहुत होता देखा जाता है । खरचीले रस्मो-रिवाज भी पूरे करने पड़ते हैं, इसलिए उनकी ओर हर किसी की अपेक्षा बढ़ती जाती है । शांतिकुंज में यह कृत्य भी बिना खरच के होते हैं । परिजनों के परिवारों में यह प्रचलन विशेष रूप से चल पड़ा है कि यज्ञोपवीत धारण के साथ जुड़ी हुई गायत्री मंत्र की अवधारणा इसी पुण्यभूमि में संपन्न कराई जाए ।
स्पष्ट है कि खरचीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं । बिना दहेज और जेवर वाली शादियाँ प्रायः स्थानीय प्रतिगामिता के बीच ठीक तरह बिना विरोध के बन नहीं पड़तीं, इसलिए विगत लंबे समय से चलने वाली ९ कुंडों की यज्ञशाला का दैवी प्रभाव अनुभव करते हुए संस्कार संपन्न कराने के लिए गायत्री माता के संस्कारों से अनुप्राणित यह स्थान ही अधिक उपयुक्त माना जाता है । हर वर्ष बड़ी संख्या में ऐसे विवाह यहाँ संपन्न होते रहते हैं ।
साधना के लिए, विशेषतः गायत्री-उपासना के लिए शांतिकुंज में यह उपक्रम संपन्न करना सोने और सुगंध के समिम्मश्रण जैसा काम देता है ।
इस भूमि में रहकर साधना करने की इसलिए भी अधिक महत्ता है कि उसके साथ युगसंधि महापुरश्चरण की प्रचंड प्रक्रिया भी अनायास ही जुड़ जाती है और प्रतिभा-परिष्कार का वह प्रयोजन भी पूरा होता है, जिसके माध्यम से भावी शातब्दी में महामानवों के स्तर की भूमिका निबाहने का सुयोग बन पड़ता है । युगशक्ति गायत्री का, मिशन के संचालन को दिया गया आश्वासन जो है !
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