ऑपरेशन करने से पूर्व औजारों को उबालना पड़ता है । सिनेमा घर में प्रवेश करने वालों के पास गेटपास होना चाहिए । पूजा-उपासना के कर्मकाण्डों की विधि अपनाने से पूर्व साधक की निजी जीवनचर्या उच्चकोटि की होनी चाहिए । प्राचीनकाल में यह तथ्य आध्यात्मविज्ञान में पहला चरण बढ़ाने वालों को भी समय ये पूर्व जानने होते थे । अब तो लोग मात्र कर्मकाण्डों को ही सब कुछ मानने लगे हैं और सोचते है कि अमुक विधि से अमुक वस्तुओं की, अमुक शब्दों के उच्चारण द्वारा मनोंवांछित अभिलाषाएँ पूरी कर ली जाएँगी । इस सिद्धांतविहीन प्रक्रिया का जब कोई परिणाम नहीं निकलता, समय की बरबादी भर होती है तो दोष जिस-तिस पर लगाते हैं । लोग वर्णमाला सीखना अनावश्यक मानते हैं और एम. ए. का प्रमाण-पत्र झटकने की फिराक में फिरते हैं । समझा जाना चाहिए कि राजयोग के निर्माता महर्षि पतंजलि ने पहले यम और नियमों के परिपालन को प्रमुखता दी है, इसके बाद भी आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि साधनात्मक प्रयोजनों की शिक्षा दी है । गायत्री मंत्र के साधकों को सर्वप्रथम सद्बद्धि धारण करने एवं सत्कर्म अपनाने की प्रक्रिया अपनानी चाहिए । जब प्रथम कक्षा में उतीर्ण होने से सफलता मिल जाए, तब रेखागणित, बीजगणित ,व्याकरण आदि का अभ्यास करना चाहिए । आज की महती विडंवना यह है कि लोग विधि-विधान, कर्मकांडों व उच्चारणो को ही समग्र समझ बैठते हैं और उतने भर से ही यह अपेक्षा कर लेते हैं कि उन पर देवी वरदान बरसने लगेंगे और सिद्धियाँ, विभूतियाँ बटोरने में सफलता मिल जाएगी । समझना चाहिए कि अध्यात्म-विद्या जादूगरी-बाजीगरी नहीं है । उनके पीछे व्यक्तित्व को उभारने, निखारने और उत्कृष्ट बनाने की अनिवार्य शर्त जुड़ी हुई है, जिसे प्रथम चरण में ही पूरा करना पड़ता है ।
बाजार में ऐसी ही मंत्र-तंत्र की पुस्तकें बिकती हैं, जिनमें अमुक कर्मकांड अपनाने पर अमुक सिद्घि मिल जाने की चर्चा होती है । तथाकथित गुरू लोग भी ऐसी ही कुछ क्रिया-प्रक्रिया भर को पूर्ण समझते और शिष्यों को वैसा ही कुछ बताते हैं । इस प्रकार भ्रमग्रस्तों में से एक को धूर्त और दूसरे को मूर्ख कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी । धातुओं को, रसायनों को तथा विष को सर्वप्रथम शोधन, जागरण, मारण आदि के द्वारा प्रयोग में आने योग्य बनाना पड़ता है, तभी उन्हें औषध की तरह प्रयुक्त किया जाता है । मकरध्वज जैसा रसायन बनाने के प्रारंभिक झंझट से बचकर कोई कच्चा पारा खाले तो बलिष्ठता प्राप्त करने की आशा नहीं की जा सकतीं, उलटे हानि ही अधिक होगी ।
परिष्कृत जीवन को परिपुष्ट जीवन कह सकते हैं और पूजा-पाठ को श्रंगार । स्वस्थता के रहते यदि श्रंगार भी सजा लिया जाए तो हर्ज नहीं, पर अकेले श्रंगार सज्जा बनाकर कोई कृषकाय, जराजीर्ण और रोगग्रस्त मात्र उपहासास्पद ही बन सकता है । इन दिनों तो लोग श्रंगार को ही सब कुछ मान बैठे हैं, स्वस्थता की आवश्यकता नहीं समझते और मंत्र-तंत्र का कर्मकांड पूरा करके ही बड़ी-बड़ी आशा-अपेक्षा करने लगते हैं । मान्यता में बेतुकापन रहने से जब कुछ प्रयोजन सिद्घ नहीं होता तो नास्तिकों जैसी मान्यता बनाने या चर्चा करने लगते हैं ।
इन पंक्तियों में विभिन्न प्रकार कर्मकाड़ों की चर्चा इसलिए नहीं की जा रही है कि यदि जीवन-साधना कर ली गई हो तो उलटा नाम जपने वालों को भी ब्रह्म समान बन जाने के तथ्य सामने आते देखे गए हैं । मात्र राम-नाम के प्रभाव से ही पत्थर की शिलाएँ पानी पर तैरने जैसी कथा-गाथाएँ सही रूप में सामने आती देखी जाती हैं । अन्यथा रावण, मारिच, भस्मासुर आदि के द्वारा की गई कठोर शिव-साधना भी परिणाम में मात्र अनर्थ ही प्रस्तुत करती देखी गई है । मातृशक्ति की पवित्रता और उत्कृष्टता अंतःकरण के मर्मस्थल तक जमा ली जाए तो उससे भी इन्हीं नेत्रों द्वारा हर कहीं और कभी भी देवी का साक्षात्कार होने लगता है ।
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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