जितनी आवश्यकता आत्म-कल्याण की है उतनी ही जीवन के तीन आधारों को स्वस्थ रखने की है । शरीर, मन और समाज यही तीन आधार हैं, जिन पर हमारी जीवन-यात्रा गतिमान् रहती है । शरीर अपंग हो जाए, मन उन्मादग्रस्त हो जाए और संसार में युद्ध, दुर्भिक्ष, महामारी, भूकम्प जैसी आपत्तियाँ उत्पन्न हो जाएँ तो कहाँ तो शान्ति रहेगी और कहाँ प्रगति टिकेगी? आत्म-कल्याण का लक्ष्य भी इन परिस्थितियों में किस प्रकार उपलब्ध हो सकेगा?
राज-शासन और सामाजिक संस्थाओं द्वारा यह प्रयत्न किसी न किसी रूप में रहता ही है कि जनता का शरीर मन और सामाजिक स्तर सुस्थिर रहे, इसके बिना भौतिक प्रगति के सारे प्रयत्न निष्फल रहेंगे । जिस देश के निवासी बीमारी और कमजोरी से घिरे हों, मनों में अविवेक, अन्धविश्वास, असन्तोष घर किए हुए हो, समाज में द्वेष असहयोग, अनीति, पाप स्वार्थ जैसी प्रवृत्तियाँ पनप रही हों तो उस देश का भविष्य उज्ज्वल कैसे हो सकता है? चाहे कोई देश हो या समाज, गाँव हो या घर, परिवार हो या व्यक्ति जहाँ भी यह असन्तुलन रहेगा, वहाँ न सुख दृष्टिगोचर होगा न शान्ति । पतन और पीड़ा, विक्षोभ और असफलता ही वहाँ फैली-फूटी दिखाई पड़ेगी ।
-वाङ्मय ६६-२-५४
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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