यह संसार भगवान द्वारा विनिर्मित और उसी से ओत-प्रोत है । यहाँ जो कुछ श्रेष्ठता दिखाई पड़ती है वह सब भगवान की ही विभूति है । जीव ईश्वर का ही पुत्र-अंश है । उसमें जो कुछ तेज और ऐश्वर्य दिखाई पड़ता है वह ईश्वरीय अंशों की अधिकता के कारण ही उपलब्ध होता है । आत्मा की प्रगति उन्नति और विभूति की संभावना भगवान के सान्निध्य में ही संभव होती है ।
समस्त सद्गुणों का केन्द्र परमात्मा है । जिस प्रकार पृथ्वी पर ताप और प्रकाश सूर्य से ही आता है उसी प्रकार मनुष्य की आध्यात्मिक श्रेष्ठताएँ और विभूतियाँ परमात्मा से ही प्राप्त होती है । इस संसार में समस्त दुःख पापों के ही परिणाम है । मनुष्य अपने किये पापों का दण्ड भुगतता है या फिर दूसरों के पापों के लपेट मे आ जाता है । दोनों प्रकार के दुःखों के कारण पाप ही होते हैं । यदि पापों को मिटाया जा सके तो समस्त दुःख दूर हो सकते हैं । यदि पापों को घटाया जा सके तो मानव जाति के दुःखों में निश्चय ही कमी हो सकती है । कुविचारों और कुकर्मों पर नियंत्रण धर्म-बुद्धि के विकसित होने से ही संभव होता है और यह धर्म-बुद्धि परमात्मा पर सच्चे मन से विश्वास रखने से उत्पन्न होती है । जो निष्पक्ष, न्यायकारी,परमात्मा को घट-घटवासी और सर्वव्यापी समझेगा उसे सर्वत्र ईश्वर ही उपस्थित दिखाई पडे़गा, ऐसी दशा में पाप करने का साहस ही उसे कैसे होगा? पुलिस को सामने खडा देखकर तो दुस्साहसी भी अपनी हरकतें बन्द कर देता है । इसी प्रकार जो व्यक्ति परमात्मा को निष्ठापूर्वक कर्म फल देने वाला और सर्वव्यापी समझ लेगा वह आस्तिक व्यक्ति पाप करने की बात सोच भी कैसे सकेगा?
ईश्वर का अविश्वास ही पापों की जड़ है, इस अविश्वास से प्रेरित होकर ही मनुष्य मर्यादाओं का उल्लंघन करके स्वार्थ और अहंकार की पूर्ति के लिए स्वेच्छाचारी बन जाता है । आत्म-नियंत्रण के लिए ईश्वर विश्वास अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है । व्यक्तिगत सदाचार और सामूहिक कर्तव्य-परायणता के पालन के लिए ईश्वरीय विश्वास के अतिरक्ति और कोई मार्ग नहीं हो सकता । इसलिए मनीषियों ने मनुष्य के दैनिक आवश्यक कर्तव्यों में ईश्वर उपासना को सबसे प्रमुख और अनिवार्य माना है । जो इसको उपेक्षा करते हैं उनकी र्भत्सना की है और उन्हें कई प्रकार के दण्डों का भय भी बताया है ।
खेद है कि आज नास्तिकता की सत्यानाशी बाढ़ तेजी से बढ़ती चली जा रही है । भौतिकतावादी विचारधाराओं ने यह प्रतिपादित किया है कि ईश्वर न तो आँखों से दिखाई पड़ता है और न प्रयोगशालाओं की जाँच द्वारा सिद्ध होता है इसलिए उसे मानने की आवश्यकता नहीं । अति उत्साही लोग इतनी बात से बहक जाते हैं, न तो वे कर्म आस्था पर विश्वास करते हैं, और न उपासना की कोई आवश्यकता अनुभव करते हैं ।
दूसरे प्रकार के नास्तिक इनसे भी गये-बीते हैं । वे अपने को आस्तिक कहते और किसी ईश्वर को मानते भी हैं पर उनका यह कल्पित ईश्वर वास्तविक ईश्वर से भिन्न होता है । वे समझते हैं कि ईश्वर तो केवल पूजा-स्तुति ही चाहता है, इतने से ही प्रसन्न होकर मनुष्य के पापों पर ध्यान नहीं देता । पूजा करने वालों के समस्त पाप किसी सामान्य धार्मिक कर्मकाण्ड के कर लेने से दूर हो जाते हैं । साथ ही वे ईश्वर से यह आशा रखते हैं कि जरा से पाठ-पूजन के बदले, बिना उनकी योग्यता, पुरुषार्थ और लगन की जाँच किए, वह मनमाना वरदान दे सकता है । और उनकी समस्त कामनाओं की पूर्ति कर सकता है । यह लोग ऐसा भी सोचते हैं कि साधु ब्राह्मण, परमात्मा के अधिक निकट हैं, इसलिए यदि उन्हें दान-दक्षिणा देकर प्रसन्न कर लिया जाए तो अपनी तगड़ी सिफारिश परमात्मा के यहाँ पहुँच जाती है और फिर तुरन्त ही मनमाने वरदान पाने और पाप के दण्ड से बचने की सुविधा हो सकती है । हम देखते हैं कि आजकल नाममात्र की आस्तिकता इसी विडम्बना की धुरी पर घूम रही है ।
यह प्रच्छन्न नास्तिकता दिखाई तो ईश्वर विश्वास जैसी ही पड़ती है, पर इससे लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है । आस्तिकता का असली लाभ पाप से भय उत्पन्न करना है । इसके विपरीत जिस मान्यता के अनुसार दस-पाँच मिनट में पूरे हो सकने वाले कर्मकाण्डों द्वारा ही समस्त पापों का फल नष्ट हो सकने का आश्वासन दिया गया हो, उससे तो उलटे पाप के प्रति निर्भयता ही बढ़ेगी । जब पाप-फल से बच सकना इतना सरल मान लिया गया तो दुष्कर्मों द्वारा प्राप्त होने वाले आकर्षणों को छोड़ना कौन पसंद करेगा? ऐसी मान्यता से प्रभावित होकर मध्यकालीन राजाओं और सरदारों ने बर्बर अत्याचार और अनैतिक आचारण करने के साथ-साथ पूजा-पाठ के भी बडे़-बड़े आयोजन किए थे । उन्होंने मंदिर भी बनवाये और भगवान को प्रसन्न करने वाले उत्सव आदि भी किये । पंडितों और ब्रह्मणों को कथा-भजन करने के लिए वृत्तियाँ भी दीं । सम्भवतः वे यही समझते थे कि उनका पहाड़ के बराबर अनैतिकता का कार्य-क्रम इस प्रकार धन द्वारा रचाई पूजा-पाठ की धूमधाम के पीछे छिप जाएगा । पंडितों और पुजारियों ने अपनी आजीविका की दृष्टि से ऐसे आश्वासन भी गढ़ कर रख दिए, जिससे कुमार्गगामी व्यक्ति थोड़ा-बहुत दान-पुण्य करते रहने को तत्पर रहें । दान-पुण्य की परिभाषा भी इन लोगों ने बड़े विचित्र ढंग से की कि केवल ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हुये व्यक्ति को जो कुछ दिया जाएगा, वह अवश्य पुण्य माना जाएगा ।
विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रकार की अज्ञानमूलक धारणा व्यक्ति और समाज के लिए हानिकारक परिणाम ही उपस्थित कर सकती है । पापों के दण्ड से बच निकलने का आश्वासन पाकर लोग चरित्रगठन की उपेक्षा करने लगे, पापों का भय जाता रहा । ऐसी अनेक कथा कहानियाँ गढ़ी गईं जिनमें निकृष्ट से निकृष्ट कर्म जीवन भर करते रहने वाले व्यक्ति केवल एक बार अनजाने-धोखे से- 'नारायण' का नाम लेने से मुक्त हो गये । इन कथाओं से सत्कर्मों की व्यर्थता सिद्ध होती है और प्रतीत होने लगता है कि जीवन-शोधन के लिए श्रम और त्याग करने की अपेक्षा थोड़ा-बहुत पूजा पाठ कर लेना ही अधिक सुविधाजनक है । ऐसी शिक्षा देने वाला आध्यात्म वस्तुतः अपने लक्ष्य से ही भ्रष्ट हो जाता है । आस्तिकता का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को सदाचारी और र्कत्तव्य परायण बनना है । यदि इस बात को भुलाकर लोग देवताओं को माँस, मदिरा या मिष्ठान्न की रिश्वत देकर मनमाने लाभ प्राप्त करने की बात सोचने लगें तो यह माना जाएगा कि उन्होंने ईश्वर को भी रिश्वत लेकर उल्टा-सीधा,काम करने वाला मान लिया है, फिर तप, त्याग, संयम, धर्म, कर्तव्य आदि के कष्टसाध्य मार्ग की उपयोगिता क्या रह जाएगी? जब ईश्वर अपनी प्रतिमा के दर्शन करने वाले, स्तुति गाने वाले और भोग लगाने वाले पर ही प्रसन्न होने लगा तो फिर यही मार्ग हर किसी को पसन्द आने लगेगा । फिर कोई क्यों उस सद्धर्म के नाम पर कष्ट सहने को प्रस्तुत होगा जिसमें सर्वस्व त्याग और तिल-तिल कर जलने की अग्निपरीक्षा में होकर गुजरना पड़ता है ।
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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