शुक्रवार, 4 मार्च 2011

युग निर्माण परिवार के सदस्य इस भाँति सोचें

सार्वजनिक जीवन में कई लोग कई उद्देश्यों से प्रवेश करते हैं । कुछ सचमुच ही आत्मकल्याण और परमार्थ प्रयोजन का लक्ष्य सामने रखकर लोक-मंगल के पुण्य क्षेत्र में प्रवेश करते हैं । कुछ को धन अथवा यश कमाने की इच्छा रहती है, इसलिए सेवा एवं परमार्थ परायणता की खाल ओढ़कर लोकसेवी बनने का आडम्बर बनाते हैं । युग निर्माण परिवार के परिजनों को उथले स्तर पर खड़े होकर इस क्षेत्र में प्रवेश करना शक्य न होगा ।
 
हमें समझना चाहिए कि भौतिक उद्देश्य के लिए यह युग निर्माण अभियान नहीं चल रहा है । जन मानस का भावनात्मक नवनिर्माण अपना उद्देश्य है । यह कार्य आत्मनिर्माण से ही आरम्भ हो सकता है । अपना स्तर ऊँचा होगा, तो ही हम दूसरों को ऊँचा उठा सकने में समर्थ हो सकते हैं । जलता हुआ दीपक ही दूसरे दीपक को जला सकता है । जो दीपक स्वयं बुझा पड़ा है, वह दूसरों को जला सकने में समर्थ नहीं हो सकता ।
 
हम आत्मनिर्माण में प्रवृत्त होकर ही समाज निर्माण का लक्ष्य पूरा कर सकेंगे । युग निर्माण परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपनी स्थिति अनुभव करना चाहिए । उसे विश्वास करना चाहिए कि उसने दैवी प्रयोजन के लिए यह जन्म लिया है । इस युग संधिवेला में उसे विशेष उद्देश्य के लिए भेजा गया है । उसे शिश्नोदर परायण नर-कीटकों की पंक्ति में अपने को नहीं बिठाना है, उसे लोभ-मोह के लिये नहीं सड़ना-मरना है ।
 
युग पुरुष के चरणों पर इस परिवार को जो भावभरी माला सवप्रथम समर्पित की जा रही है, उसका अति महत्त्वपूर्ण मणि मुक्तक है । उसे ऐतिहासिक भूमिका सम्पादन करने का अवसर मिला है । इस अभियान के संचालकों ने उसे प्रयत्न पूर्वक ढूँढ़ा, सँभाला और भावभरी अभिव्यञ्जनाओं से सींचा-सँजोया है । उसे तुच्छता से ऊँचा उठना और महानता का वरण करना है । इसके लिए अवसर उसके सामने गोदी पसारे, चुनौती लिए हुए सामने खड़ा है । आत्मबोध की दिव्य ज्योति से अपने आपको ज्योतिर्मय बनाया जाना चाहिए । इतिहास जिन युग निर्माताओं की खोज में है, उसे उनकी पंक्ति में बिना आग-पीछा सोचे साहसपूर्वक जा बैठना चाहिए । 

युग निर्माण परिवार का प्रत्येक सदस्य आत्मचिन्तन करे, आत्मबोध के प्रकाश से अपना अन्तःकरण आलोकित करे । परिवार की सदस्यता के साथ जुड़े हुए उत्तरदायित्व की गरिमा समझे, तभी वह अपनी समुचित भूमिका सम्पादित कर सकेगा । हमें अपने बारे में इस प्रकार सोचना चाहिए कि जन्म-जन्मान्तर से संग्रहीत अपनी उच्च आत्मिक स्थिति आज अग्नि-परीक्षा की कसौटी पर कसी जा रही है । महाकाल अपने संकेतों पर चलने के लिए बार-बार पुकार रहा है, रीछ-वानरों के पथ पर हमें चलना ही चाहिए । अभियान की संचालक सत्ताएँ बड़ी-बड़ी आशाएँ लगाए बैठी हैं, उन्हें निराश नहीं करना चाहिए । युग की गुहार जीवित और जाग्रत् सुसंस्कारी आत्माओं का आह्वान कर रही है । उसे तिरस्कृत नहीं किया जाना चाहिए । यह समय ऐसा है जैसा किसी-किसी सौभाग्यशाली के ही जीवन में आता है । कितने व्यक्ति किन्हीं महत्त्वपूर्ण अवसरों की तलाश में रहते हैं, उन्हें उच्चस्तरीय प्रयोजनों में असाधारण भूमिका सम्पादित करने का सौभाग्य मिले और वे अपना जीवन धन्य बनाएँ । यह अवसर युग निर्माण परिवार के सदस्यों के सामने मौजूद है, उन्हें इसका समुचित सदुपयोग करना चाहिए । इस समय की उपेक्षा उन्हें चिरकाल तक पश्चात्ताप की आग में जलाती रहेगी । 

युग निर्माण परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपने उच्च-स्तर को, महान् कत्तर्व्य और दायित्व को समझना चाहिए । जो कुछ उसे करना है, उसके शुभारम्भ के रूप में आत्मपरिष्कार के लिए आगे बढ़ना चाहिए । अपने आप को हममें से जो जितना उत्कृष्ट, परिष्कृत बना सकेगा, वह उतनी सफलतापूर्वक अपना उत्तरदायित्व पूरा कर सकेगा । समाज का निर्माण, युग का परिवर्तन हमारे अपने निर्माण एवं परिवर्तन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है । यदि हम दूसरे तथाकथित समाजसेवियों की तरह बाहरी दौड़-धूप तो बहुत करें, पर आत्म-चिन्तन, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविकास की आवश्यकता पूरी न करें, तो हमारी सामथ्र्य स्वल्प रहेगी और कुछ कहने लायक परिणाम न निकलेगा । लोकनिर्माण व्यक्ति पर अवलम्बित है और व्यक्तिनिर्माण का पहला कदम हमें अपने निर्माण के रूप में ही उठाना चाहिए । 

जिन्होंने युग निर्माण अभियान का घटक परिजन अपने को माना है, उन्हें अपनी वास्तविकता इसी रूप में देखनी, समझनी और स्वीकार करनी चाहिए । भगवान् कुछ करने जा रहे हैं और विश्व की दिशा उलटने वाली है, उसे सर्वनाशी गर्त में गिरने से बचाकर उज्ज्वल भविष्य की दिशा में लौटने के लिए तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है । 

इन दिनों सूक्ष्म जगत् में दिव्य हलचलें इसी स्तर की हो रही हैं और उनका क्रम तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है, निकट भविष्य में वह तीव्रतम होने जा रहा है । यह मनुष्यकृत आन्दोलन नहीं है, जो आज चले कल ठप्प हो जाए । जिन लोगों ने इस महाप्रयास में भाग लेने की तड़पन अनुभव की है, उन्हें समझ लेना चाहिए कि यह कोई बहकावा या भाववेश नहीं है । सामयिक उत्तेजना भी इसका कारण नहीं है । यह आत्मा का निर्देश और ईश्वर का संकेत है, उसे उन्होंने एक असाधारण सौभाग्य के रूप में उपलब्ध किया है । ऐसे महान् अवसरों पर अग्रदूत बनने का अवसर हर किसी को नहीं मिलता । रामावतार में जो श्रेय अंगद, हनुमान् और नल-नील को मिला, उससे दूसरों को वंचित ही रहना पड़ा । युग परिवर्तन की अग्रिम पंक्ति में जिन्हें घसीटा या धकेला गया है, उन्हें अपने को आत्मा का, परमात्मा का प्रिय भक्त ही अनुभव करना चाहिए और शान्तचित्त से धैयपूवर्क उस पथ पर चलने की सुनिश्चित तैयारी करनी चाहिए । खींचतान में अनावश्यक समय नष्ट नहीं करना चाहिए । 

आत्मा की पुकार अनसुनी करके वे लोभ-मोह के पुराने ढररे पर चलते रहे, तो आत्मधिक्कार की इतनी विकट मार पड़ेगी कि झंझट से बच निकलने और लोभ, मोह को न छोड़ने की चतुरता बहुत महँगी पड़ेगी । अन्तद्वर्न्द्व उन्हें किसी काम का न छोड़ेगा । मौज-मजा का आनन्द आत्मप्रताड़ना न उठाने देगी और साहस की कमी से ईश्वरीय निर्देश पालन करते हुए जीवन को धन्य बनाने का अवसर भी हाथ से निकल जाएगा । इस दुहरी दुर्गति से बचना चाहिए । उनके लिए इस विषम वेला में अतिरिक्त कार्य और अतिरिक्त उत्तरदायित्व नियति ने निर्धारित किया है, इसे बिना मन डुलाए सच्चे मन से स्वीकार कर लेना चाहिए और उसी के अनुरूप अपनी-अपनी गतिविधियों का निर्माण करना चाहिए । 

युग निर्माण परिवार के हर परिजन को अपने भावी जीवन के लिए एक नियत, निर्धारित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और सुनिश्चित कार्यक्रम अपनाना चाहिए । तभी उन्हें शान्ति मिलेगी और वे सन्तोष अनुभव कर सकेंगे । 

श्रेयपथ पर चलने वालों की कुछ आस्थाएँ अत्यन्त सुदृढ़ होनी चाहिए । इस परिवार के प्रत्येक सदस्य की मान्यता यह होनी चाहिए कि वह निःसन्देह एक सुसंस्कारी उच्च आत्मा है । जन्म-जन्मान्तरों से चली आ रही आत्मिक प्रगति के कारण ही उसे जीवित, जाग्रत्, भावनाशील, दूरदर्शी और उदात्त अन्तःकरण मिला है । इस दिव्य परिवार में जुड़ जाना भी इसी शृंखला की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है । 

ऐसी ही समर्थ आत्माओं को युग परिवर्तन जैसे चिरकाल में सभी आने वाले महान् दैवी प्रयासों में अग्रदूत की तरह नियता नियुक्त किया जाता है । 
अपनी यह आस्था चट्टान की तरह अडिग होनी चाहिए कि युग बदल रहा है, पुराने सड़े-गले मूल्यांकन नष्ट होने जा रहे हैं । दुनिया आज जिस लोभ-मोह और स्वार्थ-अनाचार से सवर्नाशी पथ पर दौड़ रही है, उसे वापस लौटना पड़ेगा । अन्धपरम्पराओं और मूढ़-मान्यताओं का अन्त होकर रहेगाअगले दिनों न्याय, सत्य और विवेक की ही विजय वैजयन्ती फहरायेगी । हमें मूढ़ता और दुष्टतावादियों से तनिक भी प्रभावित नहीं होना चाहिए और विश्वास रखना चाहिए कि बदलना उन्हें भी पड़ेगा । महाकाल के हाथ उन्हें करारी चपत लगाने के लिए उठ ही पड़े हैं । हमें अपने को एकाकी, दुर्बल या साधन-हीन नहीं मानना चाहिए, वरन् यह समझकर चलना चाहिए कि पीछे अजेय शक्तियाँ विद्यमान हैं, जो इस महान् अभियान के अपने प्रयासों को पूर्ण सफलता प्रदान करके रहेंगी । 

हमारा सुदृढ़ निश्चय होना चाहिए कि यह संसार ही भगवान् का सच्चा स्वरूप है । लोकमंगल के लिए किये गये प्रयास भगवान् की सर्वोत्तम पूजा है । ईश्वरीय प्यार को प्राप्त करने के लिए अपना आन्तरिक स्तर को परिष्कृत करना ही सवर्श्रेष्ठ तप-साधना है । इन दिनों यही युग साधना है । योग साधनात्मक विशेष तप संचय के लिये अपना एक शक्तिशाली संयन्त्र काम कर रहा है । उसका उपार्जन हम सभी के लिये है । उसमें से जिस-जिस प्रयोजन के लिए जितनी शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी, सहज ही मिलती रहेगी । अलग-अलग, छुट-पुट तप-साधना और योगाभ्यास के झंझट में पड़ने का यह समय बिल्कुल नहीं है । एक बड़ी भट्ठी पर सबका भोजन पक रहा है, तो अलग-अलग चूल्हे जलाने की क्या आवश्यकता ? इन दिनों आत्मकल्याण का सब से उत्तम माध्यम आत्मनिर्माण और युग निर्माण के महान् अभियान का अंग बनकर काम करना चाहिए । 

हमें लोभ और मोह के अवांछनीय अन्धकार से ऊपर उठना ही चाहिए । परिवार के लालन-पालन के लिये शरीर निर्वाह के लिये हमें उचित की सीमा तक ही रहना चाहिए । लोभवश धन कुबेर बनने की आकांक्षा से और अपने स्त्री-बच्चों को राजा-रानी बना जाने की संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊपर उठना चाहिए । अपना उत्तरदायित्व आत्मकल्याण का भी है और समाज का ऋण चुकाने का भी । समाज की ओर से विमुख रहकर आत्मिक स्तर की उपेक्षा बरतकर लोभ और मोह में अन्तःचेतना बुरी तरह डूबी हुई है । परमार्थ प्रयोजन में समय, श्रम, मनोयोग एवं सादगी का उपयोग करने में जी धड़कता है, साहस नहीं उठता और कंजूसी आड़े आती है, तो समझना चाहिए कि अपनी वाचालता और विडम्बना में ही प्रगति हुई है । आत्मिक स्तर तो गढ्ढे में ही पड़ा है । ऐसी हेय स्थिति में हम में से किसी को भी नहीं पड़ा रहना चाहिए । अपनी आधी सम्पदाएँ और विभूतियाँ शरीर निर्वाह और परिवार पालन के भौतिक पथ को और आधी आत्मपरिष्कार, संस्कार, लोक-मंगल के लिये बाँट देना चाहिए । यह बँटवारा न्यायानुकूल है । भौतिकपक्ष के ऊपर सारा जीवन रस टपका दिया जाए और आत्मिक पक्ष एक -एक बूँद के लिये प्यासा मरे, वह जीवन का अत्यन्त दुर्भाग्य और अतीव दुःखात्मक दुर्घटना होगी । हमें नित्य ही लेखा-जोखा लेते रहना चाहिए कि भौतिक पक्ष को हम आधे से अधिक तो नहीं दे रहे हैं । कहीं आत्मिक पक्ष के साथ अन्याय तो नहीं हो रहा है । 

हम अकेले चलें । सूर्य-चन्द्र की तरह अकेले चलने में तनिक भी संकोच न हो । अपनी आस्थाओं को दूसरों के कहे-सुने अनुसार नहीं वरन् अपने स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर विकसित करें । अन्धी भेड़ो की तरह झुण्ड का अनुगमन करने की मनोवृत्ति छोड़ें । सिंह की तरह अपना मार्ग अपनी विवेक चेतना के आधार पर स्वयं निर्धारित करें । सही को अपनाने और गलत को छोड़ देने का साहस ही युग निर्माण परिवार के परिजनों की वह पूँजी है जिसके आधार पर वे युग साधना की वेला में ईश्वर प्रदत्त उत्तरदायित्व का सही रीति से निवार्ह कर सकेंगे । ऐसी क्षमता पैदा करना हमारे लिए उचित भी है, आवश्यक भी । 

हमें भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि ईटों का समूह इमारत के रूप में, बूँदों का समूह समुद्र के रूप में, रेशों का समूह रस्सों के रूप में दिखाई पड़ता है । मनुष्यों के संगठित समूह का नाम ही समाज है । जिस समय के मनुष्य जिस समाज के होते हैं, वैसा ही समूह, समाज, राष्ट्र या विश्व बन जाता है । युग परिवर्तन का अर्थ है मनुष्यों का वर्तमान स्तर बदल देना । 
यदि लोग उत्कृष्ट स्तर पर सोचने लगें, तो कल ही उसकी प्रतिक्रिया स्वर्गीय परिस्थितियों के रूप में सामने आ सकती है । युग परिवर्तन का आधार है, जनमानस का स्तर ऊँचा उठा देना । युग निर्माण का अर्थ है भावनात्मक नवनिर्माण । अपने महान् अभियान का केन्द्र-बिन्दु यही है । युग परिवर्तन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये कार्य व्यक्ति निर्माण से आरम्भ करना होगा और इसका सबसे प्रथम कार्य है आत्मनिर्माण । दूसरों का निर्माण करना कठिन ही है । दूसरे अपना कहना न मानें यह सम्भव है, पर अपने को तो अपना कहना मानने मे कुछ कठिनाई नहीं होनी चाहिए । आपका सबसे समीपवर्ती अपने प्रभाव क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाला सबसे पहला और सबसे उपयुक्त व्यक्ति अपना आपा है । हमें नवनिर्माण का कार्य यहीं से आरम्भ करना चाहिए । अपने आपको बदलकर युग परिवर्तन का श्रीगणेश करना चाहिए । 

किसी को बाहरी जानकारी देना हो, समाचार सुनाना हो, गणित, भूगोल पढ़ाना हो, तो यह कार्य वाणी मात्र से भी हो सकता है । लिखकर भी किया जा सकता है और वह प्रयोजन आसानी से पूरा हो सकता है । पर यदि चरित्रनिर्माण या व्यक्तित्व का परिवर्तन करना है, तो फिर उसके सामने आदर्श उपस्थित करना ही प्रभावशाली उपाय रह जाता है । प्रभावशाली व्यक्तित्व अपनी प्रखर कार्यपद्धति से अनुप्राणित करके दूसरों को अपना अनुयायी बनाते है । संसार के समस्त महामानवों का यही इतिहास है । उन्हें दूसरों से जो कहना था, कराना था, वह उन्होंने पहले स्वयं किया, उसी कृतत्व का प्रभाव पड़ा । 

बुद्ध ने स्वयं घर त्यागा, तो उनके अनुयायी ढाई लाख युवक, युवतियाँ उसी मार्ग पर चलने के लिए तैयार हो गये । गाँधीजी को जो दूसरों से कराना था, पहले उन्होंने उसे स्वयं किया । यदि वे केवल उपदेश करते और अपना आचरण विपरीत प्रकार का रखते, तो उनके प्रतिपादन को बुद्धिसंगत भर बताया जाता, कोई अनुगमन करने को तैयार न होता । जहाँ तक व्यक्ति के परिवर्तन का प्रश्न है, वह परिवर्तित व्यक्ति का आदर्श सामने आने पर ही सम्भव होता है । बुद्ध, गाँधी, हरिश्चन्द्र आदि ने अपने को एक साँचा बनाया, तब कहीं दूसरे खिलौने, दूसरे व्यक्तित्व उसमें ढलने शुरू हुए । 

युग निर्माण परिवार के हर सदस्य को यह देखना है कि वह लोगों को क्या बनाना चाहता है, उनसे क्या कराना चाहता है ? उस भारी कार्यपद्धति को, विचारशैली को पहले अपने ऊपर उतारना चाहिए, फिर अपने विचार और आचरण का सम्मिश्रण एक अत्यन्त प्रभावशाली शक्ति उत्पन्न करेगा । उससे अगणित व्यक्ति प्रभावित होते तथा बनते-ढलते चले जायेंगे । अपनी निष्ठा कितनी प्रबल है, इसकी परीक्षा पहले अपने ऊपर ही करनी चाहिए । यदि आदर्शों को मनवाने के लिए अपना आपा हमने सहमत कर लिया, तो निःसन्देह अगणित व्यक्ति हमारे समर्थक, सहयोगी, अनुयायी बनते चले जाएँ । फिर युग परिवर्तन अभियान की सफलता में कोई व्यतिरेक, व्यवधान शेष न रह जाएगा । बाधा एक ही है कि हम जिस विचारणा को दूसरों से मनवाना चाहते हैं, उसे अपने गले उतारने को तैयार नहीं होते । यदि इस समस्या को हल कर लिया गया, तो समझना चाहिए सफलता की तीन चौथाई मंजिल पार कर ली । 

व्यक्तिगत जीवन मे हर मनुष्य को व्यवस्थित, चरित्रवान, सद्गुणी और सत्प्रवृत्ति सम्पन्न बनाने की अपनी शिक्षा पद्धति है । उसे हमें अपने व्यावहारिक जीवन में उतारना चाहिए । समय की पाबन्दी, नियमितता निरालस्यता, श्रमशीलता, स्वच्छता वस्तुओं की व्यवस्था जैसी छोटी-छोटी आदत ही किसी व्यक्तित्व को निखारती, उभारती हैं । बया पक्षी का सुन्दर घोंसला मामूली तिनकों का होता है, पर उसे बनाया कुशलता, तत्परता और मनोयोग के साथ जाता है । अपनी छोटी-छोटी आदतें यदि परिष्कृत स्तर की हैं, तो उसका प्रभाव परिवार, पड़ोस से आरम्भ होकर हर दूर क्षेत्रों तक फैलता चला जाएगा । 

अपनी वाणी में नम्रता, शिष्टता, मधुरता और शीलता का समावेश होना ही चाहिए । उसमें दूसरों के सम्मान का समुचित पुट रहना चाहिए । ईमानदारी और प्रामाणिकता ही किसी व्यक्ति का वजन बढ़ाती है । बेईमान, लफंगे, झूठे, ठग और चालाक व्यक्ति अपनी इज्जत खो बैठते हैं और फिर उनकी साधारण बातों पर भी कोई भरोसा नहीं करता । लोग यह भी भारी भूल करते हैं कि अपने दोष-दुर्गुणों के छिपे रहने की बात सोचते रहते हैं । यह सर्वथा असम्भव है, पारा पचता नहीं, कोई उसे खा ले तो शरीर में से फूट निकलता है । दुष्प्रवृत्तियाँ और दुर्भावनाएँ, पाप और कुकर्म, निकृष्टता और दुष्टता के जो भी तत्त्व अपने भीतर होंगे, उनके छिपे रहने की कोई सम्भावना नहीं है । पाप छत पर चढ़कर चिल्लाते हैं । यह उक्ति सोलहों आने सच है । शराब पीकर भी दुर्गन्ध न आये, नशा न आये, यह सम्भव नहीं । मक्खी खाने पर कै हो ही जायेगी, पेट का सब बाहर निकल ही जाएगा । मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियाँ कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न न करें, यह सम्भव नहीं । शाश्वत सत्य को झुठलाने का प्रयास न करना ही श्रेयस्कर है । आत्म परिष्कार ही उसका एकमात्र हल है । 

युग परिवर्तन का अर्थ है, व्यक्ति परिवर्तन और यह महान् प्रक्रिया अपने से आरम्भ होकर दूसरों पर प्रतिध्वनित होती है । यह तथ्य हमें हजार बार मान लेना चाहिए और उसे कूट-कूट कर नस-नस में भर लेना चाहिए कि दुनिया को पलटना जिस उपकरण के माध्यम से संभव है, वह अपना परिष्कृत व्यक्तित्व ही है । भले ही अपनी वाणी काम न करे, भले ही प्रचार और भाषण करना न आये पर यदि हम अपने को ढालने में सफल हो गये, तो उतने भर में भी अगणित लोगो को प्रभावित कर सकेंगे । अपना व्यक्तित्व हर दृष्टि में आदर्श, उत्कृष्ट बनाने और सुधारने, बदलने के लिए हम चल पड़े, तो निश्चित रूप से हमें निर्धारित लक्ष्य तक पहुचने में तनिक भी कठिनाई न होगी । 
-वाङ्मय ६६.१.२५-२८ 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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