शुक्रवार, 4 मार्च 2011

उपासना, विधान और तत्त्वदर्शन

सामान्य विधि-विधान में गायत्री मंत्र का ॐकार, व्याहृति समेत त्रिपदा गायत्री का जप ही शांत एकाग्रमन से करने पर अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति हो जाती है । जप के साथ ध्यान भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है । गायत्री का देवता सविता है । सविता प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य को कहते हैं । यही ध्यान गायत्री-जप के साथ किया जाता है, साथ ही यह अभिव्यक्ति भी उजागर करनी होती है कि सविता की स्वर्णिम किरणें अपने शरीर में प्रवेश करके ओजस्, मनःक्षेत्र में प्रवेश करके तेजस् और अन्तःकरण तक पहुँकर वर्चस् की गहन स्थापना कर रही हैं-स्थलू, सूक्ष्म और कारण-शरीरों को समर्थता, पवित्रता और प्रखरता से सरावोर कर रही हैं । यह मान्यता मात्र भावना बनकर ही नहीं रह जाती वरन् अपनी फलित होने वाली प्रक्रिया का भी परिचय देती है । गायत्री की सही साधना करने वालों में ये तीनों विशेषताएँ प्रस्फुटित होती देखी जाती हैं । 

शुद्घ स्थान पर, शुद्घ उपकरणों का प्रयोग करते हुए शुद्घ शरीर से गायत्री-उपासना के लिए बैठा जाता है । यह इसलिए कि अध्यात्म-प्रयोजनों में सर्वतोमुखी शुद्घता का संचय आवश्यक है । उपासना के समय एक छोटा जलपात्र कलश के रूप में और यज्ञ की धूपबत्ती या दीपक अग्नि के रूप में पूजाचौकी पर स्थापित करने की परांपरा है । पूजा के समय अग्नि स्थापित करने का अर्थ-अग्नि को अपना इष्ट मानना एवं तेजस्विता, साहसिकता और आत्मीयता जैसे गुणों से अपने मानस को ओतप्रोत करना । जल का अर्थ है-शीतलता, शांति नीचे की ओर ढलना अर्थात् नम्रता का वरण करना । 

पूजाचौकी पर साकार उपासना वाले गायत्री माता की प्रतिमा रखते हैं । निराकार में वही काम सूर्य का चित्र अथवा दीपक या अग्नि रखने से काम चल जाता है । पूजा के समय धूप, दीप, नैवेद्य पुष्प आदि का प्रयोग करना होता है । ये सब भी किन्हीं आदर्शें के प्रतीक हैं । अक्षत अर्थात् अपनी कमाई का एक अंश भगवान् के लिए अर्पित करते रहना । दीपक अर्थात् स्वयं जलकर दूसरों के लिए प्रकाश उत्पन्न करना । पुष्प शोभायमान भी होते हैं और सुगंधित भी । मनुष्य को भी अपना जीवनयापन इसी प्रकार करना चाहिए । पंचोपचार की पूजा-सामग्री इसलिए समर्पित नहीं की जाती कि भगवान को उनकी आवश्यकता है वरन् उसका प्रयोजन यह है कि दिव्यसत्ता यह अनुभव करे कि साधक यदि सच्चा हो तो भक्तिभावना में इन सद्गुणों का जुड़ा रहना अनिवार्य स्तर का होना चाहिए । 

उपचार-सामग्री यदि न हो तो सब कुछ ध्यानरूप में मानसिक स्तर पर किया जा सकता है । जिस प्रकार बड़े आकार वाली यज्ञ-प्रक्रिया को छोटे दीपयज्ञों के रूप में सिकोड़ लिया गया है, उसी प्रकार कर्मकाण्ड सहित पूजा-उपचार का मात्र भावना-स्तर पर मानसिक कल्पनाओं के आधार पर किया जा सकता है । रास्ता चलते, काम-धाम करते, लेटे-लेटे भी गायत्री-उपासना कर लेने की परंपरा है, पर वह सब होना चाहिए भाव-संवेदना पूर्वक, मात्र कल्पना कर लेना ही पर्याप्त नहीं है । 

गायत्री-अनुष्ठानों की भी एक परंपरा है । नौ दिन में चौबीस हजार जप का विधान है, जिसे प्रायः आश्विन या चैत्र की नवरात्रियों में किया जाता है, पर उसे अपनी सुविधानुसार कभी भी किया जा सकता है । इसमें प्रतिदिन २७ मालाएँ पूरी करनी पड़ती हैं और अंत में यज्ञ-अग्निहोत्र संपन्न करने का विधान है । 

सवालक्ष-अनुष्ठान चालीस दिन में पूरा होता है । उसमें ३१ मालाएँ प्रतिदिन करनी पड़ती हैं । उसके लिए महीने की पूर्णिमा के आरंभ या अंत को चुना जा सकता है । 

सबसे बड़ा अनुष्ठान २४ लाख जप का होता हैं, प्रायः एक वर्ष में पूरा किया जाता है । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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