शुक्रवार, 4 मार्च 2011

हमारा आन्तरिक महाभारत

मनुष्य के अन्तःकरण में दो प्रवृत्तियाँ रहती हैं, जिन्हें आसुरी एवं दैवी प्रकृति कहते हैं । इन दोनों में सदा परस्पर संघर्ष चलता रहता है । गीता में जिस महाभारत का वर्णन है और अर्जुन को जिसमें लड़ाया गया है वह वस्तुतः आध्यात्मिक युद्ध ही है । आसुरी प्रवृत्तियाँ बड़ी प्रबल हैं । कौरवों के रूप में उनकी बहुत बड़ी संख्या है, सेना भी उसकी बड़ी है । पाण्डव पाँच ही थे उनके सहायक एवं सैनिक भी थोड़े ही थे फिर भी भगवान ने युद्ध की आवश्यकता समझी और अर्जुन से कहा-लड़ने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं । तामसिक-आसुरी प्रकृति का दमन किये बिना सतोगुणी दैवी प्रकृति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा । इसलिए लड़ना जरूरी है । अर्जुन पहले तो झंझट में पड़ने से कतराये पर भगवान ने जब युद्ध को अनिवार्य बताया तो उसे लड़ने के लिए कटिबद्ध होना पड़ा । इस लड़ाई को इतिहास 'महाभारत' के नाम से पुकारते हैं । अध्यात्म की भाषा में इसे 'साधना समर' कहते हैं । 

देवासुर-संग्राम की अनेक कथाओं में उसी 'साधना समर' का अलंकारिक निरूपण है । असुर प्रबल होते हैं, देवता उनसे दुःख पाते हैं, अन्त में दोनों पक्ष लड़ते हैं, देवता अपने को हारता-सा अनुभव करते हैं, वे भगवान के पास जाते हैं, प्रार्थना करते हैं, भगवान उनकी सहायता करते हैं । अन्त में असुर सारे मारे जाते हैं, देवता विजयी होते हैं । देवासुर संग्राम के अगणित पौराणिक उपाख्यानों की पृष्ठभूमि यही है । हमारा अन्तःप्रदेश ही वह धर्म क्षेत्र है, जिसमें महाभारत होता रहता है । असुर मायावी है । तमोगुण का असुर हमें माया में फँसाये रहता है । इन्द्रिय-सुखों का लालच देकर वह अपना जाल फैलाता है और अपने मायापाश में जीव को बाँध लेता है । उस असुर के और भी कितने ही अस्त्र-शस्त्र हैं जिनसे जीव को अपने वशवर्ती करके पद-दलित करने में वह सफल होता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर यह छह ऐसे ही सम्मोहन अस्त्र हैं, जिसमें मूर्छित होकर जीव बँध जाता है और वह मूर्छा ऐसी होती है कि उससे निकलने की इच्छा भी नहीं होती है वरन् उसी स्थिति में पड़े रहने को जी चाहता है । 

आत्मा का कल्याण उस तम प्रवृत्ति में पड़े रहने से नहीं हो सकता जिसमें माया-मोहित अगणित जीव पाशबद्ध स्थिति में पड़े रहते हैं । इन बन्धनों को काटे बिना कल्याण का और कोई मार्ग नहीं । आत्मा की पुकार 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की है । वह अन्धकार से प्रकाश की ओर जाना चाहती है । तम अन्धकार और सत ही प्रकाश है, उसको धारण करने का 'प्रयत्न ही साधना' है । साधना को जीवन की अनिवार्य आवश्यकता माना गया है । तम की दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा केवल इस एक ही उपाय से हो सकता है । सच्ची शान्ति और प्रगति का मार्ग भी यही है । 

अन्तरात्मा में निरन्तर चलने वाले देवासुर-संग्राम में तामसिकता का पक्ष भौतिक सुख-साधन इकट्ठे करते रहना और सात्विकता का पक्ष आत्म-कल्याण की दिशा में अग्रसर होने का है । जब दोनों में से एक पक्ष प्रबल हो उठता है तो संग्राम में तेजी दिखाई देने लगती है । यदि असुरता प्रबल हुई तो दुष्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि होकर पतन का नारकीय परिपाक सामने आ जाता है और यदि सुर पक्ष प्रबल हुआ तो सत्प्रवृत्तियों का उभार आता है और मनुष्य सत्पुरुष, महा-मानव ऋषि एवं देवदूत बनकर पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दु्रतगति से आगे बढ़ता है । 

एक बीच की स्थिति ही, रजोगुण ही अवसाद भूमिका कहलाती है । इसमें तम और सत् दोनों मिले रहते हैं । लड़ाई बन्द हो जाती है और काम-चलाऊ समझौता सा करके दैवी और आसुरी तत्व एक ही घर में रहने लगते हैं, भले और बुरे दोनों की तरह काम मनुष्य करता रहता है । पाप के प्रति घृणा न रहने से, आत्मिक प्रगति की ओर कोई विशेष उत्साह न रहने से दिन काटने की जैसी स्थिति बन जाती है । जैसे मन्द विष पीकर मूर्छित हुए अर्द्धमृत प्राणी की होती है । मानव जीवन जैसा अलभ्य अवसर प्राप्त होने पर इस प्रकार का अवसाद चिन्ताजनक ही है । 
-वाङ्मय ६६-२-१४

आज फिर नये सिरे से हमें उसकी चर्चा जारी करनी होगी, सोई हुई शक्ति को फिर से जगाना होगा, अहंकार को दबा कर रखना होगा । हम दिव्य लोक के जीव हैं, यह ज्ञान हमें फिर से पाना होगा, यही सतयुग की स्थापना करेगा, इसीलिए हमें साधना और तपस्या करनी है । यदि इस प्रयत्न से एक बार भी हम लोग उस स्थान तक पहुँच गये तो पीड़ाओं तथा वेदनाओं से छुटकारा पाकर सिद्ध बनकर सत्य और आनन्द की लीला में प्रविष्ट होकर इस मृत्युलोक को ही स्वर्ग में बदल देंगे । सतयुग के लोग स्वर्गलोक का पता लगाकर इस भूलोक को छोड़ कर वहाँ उस महत् लोक में पहुँचते थे । लेकिन हम लोग स्वर्गलोक के अधिकारी बनकर इस पृथ्वी को नहीं त्यागेंगे हम इस मृत्युलोक में ही स्वर्ग की लीला का आनन्द लेंगे । 
-वाङ्मय ६६-२-४५ 

जब तक माया के फंदे से जीव नहीं छूटता है और भेद-भाव के विचार मन में भरे रहते हैं तब तक उसे वास्तविक ज्ञान नहीं होता है । माया के फंदे से छूटकर और भेदभाव के विचारों को भावनाओं को निकालने पर ही उसे ज्ञान होता है, तब दिव्य दृष्टि से देखने लगता है । उसमें तथा ब्रह्म में किसी प्रकार का अन्तर नहीं रह जाता, वास्तव में समस्त ब्रह्माण्ड, यह संसार, हमारा शरीर सभी कुछ ब्रह्ममय है इसलिए इस तरह का ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर मृत्युलोक में विचरण करते हुए एक बार फिर से सतयुग की स्थापना करने का भार हम लोगों के ऊपर है जिसे पूरा करना है । नूतन समाज के निर्माण की-नये युग के निर्माण की-जिम्मेदारी हमें उठानी ही होगी । 
-वाङ्मय ६६-२-४५
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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