सोमवार, 7 मार्च 2011

सक्रिय समपर्ण कैसा हो?


कसक पैदा हुई, इसका चिह्न है विलासिता का पूरी तरह छूटना । जीवन की रंगीली-मौज-मस्ती फिर उसे किसी तरह रास नहीं आ सकती । नवयुवती आंडाल के कलेजे में ऐसी ही कसक उपजी । पिता व सगे-संबंधी विवाह के लिए जोर-जबरदस्ती कर रहे थे । उनसे पूछा विवाह क्यों............? 
''घर बसाने के लिए ।'' 
''तो अभी कौन-सा उजड़ा है?'' 
''बात नया घर बसाने की है ।'' 
''तो विवाह का मतलब घर बसाना है?'' 
''हाँ ।'' 
''तो जब इतने घर उजड़ रहे हैं, स्वयं भगवान का घर टूट-फूट रहा है, ऐसे में नया बसाने की बात सोचना कितनी मूखर्ता है । जब बसाना ही है तो इसी को क्यों न कायदे-करीने से बसाया जाए ।'' 
''घर वालों के पास उसका कोई उत्तर न था । उसने घोषित कर दिया-भगवान ही एकमात्र मेरे पति हैं । 
घर के सदस्यों के मन में अभी एक क्षीण आशा थी कि शायद वह घर में बैठकर कुछ पूजा-पाठ करे । 
पर क्रांतिकारियों का हर कदम अनूठा होता है । उनसे भक्ति की नयी व्याख्या की-''संसार और कुछ नहीं परमात्मा का विराट् स्वरूप है । आत्मा के रूप में वह हर किसी के अंदर विद्यमान है । आत्मचेतना को जगाना और उस भाव-धन को अपिर्त करना ही भक्ति है ।'' 
समपर्ण निष्क्रिय क्यों? आत्मचेतना की सघन भावनाओं का प्रत्येक अंश, मन की सारी सोच, शरीर की प्रत्येक हरकत जब विश्व-उद्यान को सुखद-सुन्दर बनाने के लिए मचल उठे, तब समझना चाहिए कि समपर्ण की क्रिया शुरु हुई । 
उन दिनों मध्यकाल का प्रथम चरण था । उन्होंने अपने प्रयासों से अलवारों में नई चेतना फूँकी । साफ शब्दों में घोषित किया-''भक्त वही है, जिसके लिए जन-जन का दर्द हो अन्यथा वह विभक्त है-भगवान् से सवर्था अलग-थलग । भगवान् हाथी को बचाने नंगे पाँवों भागता है, घायल पड़े गीध को उठाकर गोद में उठाया है और स्वयं भक्त कहने वाले के अंतर में पर-पीड़ा की अनुभूति न उभरे, यह किसी तरह संभव नहीं ।'' 
अलवारों की टोली लेकर वह निकल पड़ी । वाणी माध्यम बनी, उदात्त भावनाओं से दूसरे के अंतराल को रंगने की । वाणी ही नहीं, लेखनी भी उठाई-तिरूप्पावेर्-काव्य की रचना की, जिसके प्रत्येक शब्द से करुणा झरती है । इस काव्य के द्वारा उन्होंने बताया-जिसे शांति कहते हैं, वह क्रियाशीलता की चरम अवस्था है । लट्टू जब पूरी तेजी के साथ घूमता है, तब शान्त-स्थिर दिखता है । 
कावेरी के तटवर्ती समूचे क्षेत्र को उन्होने मथ डाला । स्वयं के और अपने सहयोगियों के सम्मिलित प्रयासों से प्रत्येक के अंतर में सोए दिव्यभावों को उभारती-विकसित करने का प्रयास करती । भक्ति की भाषा में हरेक से कहती-''क्षीरसागर तुम्हारे अपने अंदर है । इस शेषशायी को झकझोर कर उठाओ-फिर देखे तुम्हारा अपना घर बैकुंठ हो जाएगा ।'' विजय नगरम् का स्वणर्काल उन्हीं के अथक् प्रयासों की परिणति था बाद में वहाँ के महाराज कृष्णदेव राय ने 'आभुक्तभाल्दम्' की रचना कर उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अपिर्त की । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

कोई टिप्पणी नहीं:

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin