रविवार, 25 जुलाई 2010

जीवन का कर्तव्य समय का मूल्य और सदुपयोग


श्रीपरमात्माकी इस विचित्र सृष्टि में मनुष्य-शरीर एक अमूल्य एवं विलक्षण वस्तु है। यह उन्नति करने का एक सर्वोत्तम साधन है। इसको प्राप्त करके सर्वोत्तम सिद्धि के लिये सदा सतत चेष्टा करनी चाहिये। इसके लिये सर्वप्रथम आवश्यकता है-ध्येय के निश्चय करने की। जब तक मनुष्य जीवन का कोई ध्येय-उद्देश्य ही नहीं बनाता, तब तक वह वास्तव में मनुष्य कहलाने योग्य ही नहीं: क्योंकि उद्देश्यविहीन जीवन पशु-जीवन से भी निकृष्ट है, किन्तु जैसे मनुष्य-शरीर सर्वोत्तम है, वैसे इसका उद्देश्य भी सर्वोत्तम ही होना चाहिये। 

सर्वोत्तम वस्तु है, परमात्मा। इसलिये मानव-जीवन का सर्वोत्तम ध्येय है-परमात्मा की प्राप्ति, जिसके लिये भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत

इस परमात्मा की प्राप्ति के लिये सबसे पहला और प्रधान साधन है-‘जीवन के समय का सदुपयोग।’ समय बहुत ही अमूल्य वस्तु है। जगत् के लोगों ने पैसों को तो बड़ी वस्तु समझा है, किन्तु समय को बहुत ही कम मनुष्यों ने मूल्य दिया है; पर वस्तुत: विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि समय बहुत ही मूल्यवान् वस्तु है। विचार कीजिये-अपना समय देकर हम पैसे प्राप्त कर सकते हैं, पर पैसे देकर समय नहीं खरीद सकते। अन्तकाल में जब आयु शेष हो जाती है, तब लाखों रूपये देने पर भी एक घंटे समय की कौन कहे एक मिनट भी नहीं मिल सकता। समय से विद्या प्राप्त की जा सकती है, पर विद्या से समय नहीं मिलता। समय पाकर एक मनुष्य से कई मनुष्य बन जाते हैं, अर्थात् बहुत बड़ा परिवार बढ़ सकता है; पर समस्त परिवार मिलकर भी मनुष्य की आयु नहीं बढ़ा सकता। समय खर्च करने से संसार में बड़ी भारी प्रसिद्धि हो जाती है, पर उस प्रसिद्धि से जीवन नहीं बढ़ सकता। समय लगाकर हम जमीन-जायदाद, हाथी-घोड़े, धन-मकान आदि अनेक चल-अचल सामग्री एकत्र कर सकते हैं, पर उन सम्पूर्ण सामग्रियों से भी आयु-वृद्धि नहीं हो सकती। यहाँ एक बात और ध्यान देने की है कि रुपये, विद्या, परिवार-प्रसिद्धि, अनेक सामग्री आदि के रहते हुए भी जीवन का समय न रहने से मनुष्य मर जाता है, किन्तु उम्र रहने पर तो सर्वस्व नष्ट हो जाने पर भी मनुष्य जीवित रह सकता है। 

इसलिये जीवन के आधारभूत इस समय को बड़ी ही सावधानी के साथ सदुपयोग में लाना चाहिये, नहीं तो यह बात-ही-बात में बीत जायगा, क्योंकि यह तो प्रतिक्षण बड़ी तेजी के साथ नष्ट हुआ जा रहा है। रुपये आदि तो जब हम खर्च करते हैं तभी खर्च होते हैं, नहीं तो तिजोरी में पड़े रहते हैं, पर समय तो अपने-आप ही खर्च होता चला जा रहा है, उसका खर्च होना कभी बंद होता ही नहीं। अन्य वस्तुएँ तो नष्ट होने पर भी पुन: उत्पन्न की जा सकती हैं, पर गया हुआ समय किसी प्रकार भी लौटाया नहीं जा सकता। अत: हमें उचित है कि बचे हुए समय के एक क्षण को निरर्थक नष्ट न होने देकर अति-कृपण के धन की तरह उसकी कीमत समझकर उसे ऊँचे-से-ऊँचे काम में लगायें। प्रथम श्रेणी का सर्वोत्कृष्ट काम है-सांसारिक निर्वाह के लिये न्यायपूर्वक द्रव्योपार्जन। इनमें से दूसरी श्रेणी के काम में लगाया हुआ समय भी भाव के सर्वथा निष्काम होने पर पहली श्रेणी में ही गिना जा सकता है। इसके लिये हमें समय का विभाग कर लेना चाहिये, जैसे कि भगवान् ने कहा है-

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्रावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।-
(गीता 6/17)

‘दु:खों का नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।’ इस श्लोक में अवश्य करने की चार बातें बतलायी गयी हैं- 

1. युक्ताहारविहार,
2. शरीर-निर्वाहार्थ उचित चेष्टा,
3. यथायोग्य सोना और
4. यथायोग्य जागना।

पहले विभाग में शरीर को सशक्त और स्वस्थ रखने के लिये शौच, स्नान, व्यायाम, खान-पान, औषध-सेवन आदि चेष्टाएँ सम्मिलित हैं। दूसरा विभाग है- जीविका पैदा करने के लिये; जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और वैश्य आदि के लिये अपने-अपने वर्ण-धर्म के अनुसार न्याययुक्त कर्तव्यकर्मों का पालन करना बतलाया गया है। तीसरा विभाग है-शयन करने के लिये, इसमें कोई विशेष उल्लेखनीय बात नहीं है। अब चौथा प्रमुख विभाग है-जगाने का। इस श्लोक में ‘अवबोध’ का अर्थ तो रात्रि में छ: घंटे सोकर अन्य समय में जागते रहना और उनमें प्रात:-सायं दिन भर में छ: घंटे साधन करना है। परन्तु ‘अवबोध’ से यहाँ वस्तु मोहनिद्रा से जागकर परमात्मा की प्राप्ति करने की बात को ही प्रधान समझना चाहिये। श्रीशंकराचार्यजी ने भी कहा है-‘जागर्ति को वा सदसद्विवेकी।’

अब इस पर विचार कीजिये। हमारे पास समय है चौबीस घंटे और काम है चार। तब समान विभाग करने से एक-एक कार्य के लिये छ:-छ: घंटे मिलते हैं। उपर्युक्त चार कामों में आहार-विहार और शयन-ये दो तो खर्च के काम हैं और व्यापार तथा अवबोध (साधन करना)-ये दो उपार्जन के काम है। इस प्रकार खर्च और उपार्जन दोनों के लिये क्रमश: बारह-बारह घंटे मिलते हैं। इनमें लगाने के लिये हमारे पास पूँजी हैं दो-एक समय और दूसरा द्रव्य; इनमें से द्रव्य तो लौकिक पूँजी है और समय अलौकिक पूँजी है।

-स्वामी रामसुखदास

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