रविवार, 25 जुलाई 2010

स्वागत करो मृत्यु का

सजग होकर अपने जीवन को देखना एक कला है। इस प्रतिक्रिया में अपने आप समाधि लग जाती है। एक ऐसी समाधि जिसमें आदमी को स्वयं का बोध हो जाता है और संसार की फालतू बातें छूट जाती हैं। संसार का जो अनर्गल है वह हमें बहुत भारी बना देता है। जब हम दूर खड़े होकर तटस्थ भाव से अपने ही जीवन को देखने लगते हैं तो सब कुछ बहुत हल्का हो जाता है। 

सुकरात के जीवन की एक कथा है। जब उनका अंतिम समय आया, शिष्य रोने लगे। तब सुकरात ने कहा, ‘‘रोना बंद करें। मेरा शरीर शिथिल हो रहा है। लेकिन मैं लगातार प्रयास कर रहा हूं कि मैं अपनी इस मृत्यु को होशपूर्वक देखूं। अब सब कुछ छूट रहा है। जितना छूटेगा उतना ही स्वयं बच जाएगा। जगत का बोध समाप्त होगा और स्वयं का बोध जागने लगेगा। सुकरात ने कहा कि मैं आज मृत्यु को प्राप्त नहीं हो रहा, सिर्फ यह देख रहा हूँ कि मरना होता क्या है ? यह मौका मुझे आज मिला है, इसलिए आप लोग रोते हुए मेरी समाधि में व्यवधान पैदा न करें, और सचमुच तो बचते चले गए मौत होती चली गई। वे संदेश दे गए मृत्यु प्रतिदिन निकट आ रही है और जिंदगी प्रतिदिन घट रही है। इसलिए मृत्यु का भय न करें, उसके स्वागत की तैयारी की जाए।’’

सूखा नारियल अपनी खोल के भीतर पक जाता है। खोलने पर वह पूरा बाहर आता है। किंतु जो गीला नारियल होता है उसक फोड़ने पर वह अपनी खोल से चिपका रहता है। कई बार तो उसको निकालने के लिए उसके टुकड़े हो जाते हैं। ऐसा ही शरीर और आत्मा के साथ हैं। स्वयं शरीर से अलग हो जाने का अर्थ है पका हुआ होना, अपने आत्मभाव में पहुंच जाना और शरीर से चिपकते हुए मृत्यु वरण का अर्थ है गीलें खोल की तरह टुकड़े-टुकड़े होकर पिलपिले होना। इसलिए शांति से जीवन में इस बोध को लाना बड़ा उपयोगी होता है।

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