रविवार, 11 अक्टूबर 2009

ज्ञानदान की पुण्य परम्परा पुनर्जीवित हो

वाङ्मय क्रमांक-६६ 'युग निर्माण योजना-दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम' (पृष्ठ २-५९ से २.६१) से संपादित 

इस संसार की सर्वोत्कृष्ट वस्तु 'ज्ञान' है । ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से महान बनता है, बन्धन से मुक्त होता है । इस ज्ञान के अभाव की जो 'अज्ञान' स्थिति है, उसमें डूबा रहने से ही मनुष्य पतन के, पाप के, अन्धकार के गर्त में डूबकर दुर्गति को प्राप्त होता है । इसलिए शास्त्रों ने और आप्त पुरुषों ने सदा एक स्वर से ज्ञानप्रप्ति के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने के लिए हर व्यक्ति को आदेश दिया है । गीताकार का कथन है कि-''इस संसार में ज्ञान से बढ़कर श्रेष्ठ और कोई वस्तु नहीं है ।'' ज्ञान दान को बह्मदान कहते हैं । प्राचीनकाल में ब्राह्मण और साधु ज्ञानदान का परम पुनीत सत्कर्म निरन्तर किया करते थे । जब तक वे अपना कर्तव्य पालन ठीक प्रकार करते रहे, तब तक हम अपने गुण, कर्म और स्वभाव की श्रेष्ठता के कारण विश्व के नेता भी रहे और प्रचुर भौतिक सम्पदाओं के अधिपति भी । बुद्धिमान को ही बलवान कहा जाता है । बुद्धिहीन का बल तो एक क्षणभंगुर दिखावा मात्र है । 

जैसे लोहे को किसी अन्य आकृति में ढालना हो तो उसे गरम करके नरम बनाना पड़ता है, तब वह पिछली आकृति को छोड़कर किसी अन्य आकृति में ढलता है, वैसे ही मनुष्य का अन्तःकरण ज्ञान और विवेक की आग में ही नरम बनता है और तभी वह अपने पूर्व पक्ष को छोड़कर किसी अच्छे मार्ग पर चलने को तैयार होता है । पाप और बुराई को तो लोग दूसरों की देखा-देखी एवं उनसे प्राप्त होने वाले तात्कालिक लाभों से प्रभावित होकर ही अपना लेते हैं, पर कुकर्म का लोभ त्याग कर, सत्कर्म की ओर अग्रसर होना, हीन स्थिति में ऊँचे उठकर उच्च स्थिति के लिए प्रयत्नशील होना, बिना तीव्र भावना एवं बिना उत्कृष्ट प्रेरणा के संभव नही हो सकता और यह कार्य ज्ञान की अग्नि द्वारा ही संभव हो सकता है । मशीनें कोयला, भाप, तेल गैस, बिजली, अणु आदि आग्नेय शक्ति द्वारा गतिशील होती हैं । मनुष्य रूपी मशीन को यदि उत्कर्ष के मार्ग पर चलाना हो तो उसे ज्ञान की-विवेक की शक्ति अनिवार्यतः चाहिए । इसके बिना हृदय की आँखें नहीं खुलतीं और न दूरवर्ती भलाई, बुराई सूझ पड़ती है । केवल ज्ञान में ही वह शक्ति सन्निहित है, जो व्यक्ति के अंतःस्थल को पलटे और उसे अनुपयुक्त मार्ग से हटाकर उपयुक्त मार्ग पर प्रवृत्त करे । ज्ञान-दान की पुनीत प्रक्रिया को हम लोग इस संसार का सर्वश्रेष्ठ परमार्थ समझकर उसे अत्यधिक महत्त्व दें और इस बात का प्रयत्न करें कि विचार एवं विवेकशीलता की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिले । हर आदमी ज्ञान की महत्ता एवं उपयोगिता को समझे । 

हम ज्ञान का प्रकाश फैलाने का व्रत लें । धर्म-सेवा का अनादि काल से लेकर अद्यावधि यह एक ही सर्वोपरि माध्यम रहा है । सत्कर्म की प्रेरणा देने से बढ़कर और कोई पुण्य हो भी तो नहीं सकता । इसे गरीब, अमीर, विद्वान, अविद्वान सभी अपनी सामर्थ्य के अनुसार कर सकते हैं । सबल भावना वाला व्यक्ति अपने समीपवर्ती क्षेत्र में अपनी भावनाएँ-मान्यताएँ अवश्य फैला सकता है । 

यह ठीक है कि हर एक के पास निज के उपार्जित उत्कृष्ट विचार नहीं हो सकते और उसका निज का व्यक्तित्व भी इतना प्रभावशाली नहीं हो सकता कि उसकी दी हुई शिक्षा को लोग शिरोधार्य कर लें, पर इतना तो हो ही सकता है कि संदेशवाहक के रूप में उत्कृष्ट विचारों को अपने सम्पर्क में आने वाले लोगों तक पहुँचाया जा सके । भोजन बनाना कठिन हो सकता है, पर उसका उपयोग करने में-दूसरों को समय बता देने में क्या असुविधा पड़ेगी? ज्ञानप्रसार के व्रतधारी युग निर्माण के लिए प्रस्तुत की जाने वाली प्रचण्ड एवं प्रखर विचारधारा को जन-साधारण तक पहुँचाने में एक संदेशवाहक का कार्य तो आसानी से कर सकते हैं । थोड़ी-सी अभिरुचि एवं प्रवृत्ति इस ओर मुड़नी चाहिए । कुछ दिनों इसे अपने स्वभाव में सम्मिलित करने की तो कठिनाई रहेगी पर यह सब जैसे ही अभ्यास बना, वैसे ही एक धर्म सेवा की, ज्ञानयज्ञ की एक महान प्रक्रिया चल पड़ेगी और साधारण व्यक्ति भी युग निर्माण के लिए एक उपयोगी परमार्थ करने का श्रेय लाभ लेने लगेगा । 

एक घंटा रोज का समय हम इस कार्य के लिए नित्य लगाया करें कि युग निर्माणी विचारधारा को सुनने-समझने की अभिरुचि साधारण लोगों में उत्पन्न की जा सके । पुस्तकें बाँट देने से या पुस्तकालय खोल देने से कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता । जब तक लोगों की अभिरुचि ही न जागेगी, तब तक मुफ्त में मिली हुई पुस्तक को भी लोग न पढ़ेंगे और पुस्तकालय खुल गये, तो भी उसमें पढ़ने न आवेंगे । कार्य तो जन-सम्पर्क से ही होगा । 

शिक्षितों को यह साहित्य पढ़ाया जाना चाहिए । किन्तु अशिक्षित को, स्त्री-बच्चों को सुनाने के लिए भी इन पुस्तकों में बहुत कुछ । बाहर के लोग सुनने न आयें, न सही, हम अपने घर के स्त्री-बच्चों को इकट्ठा करके उन्हें अखण्ड ज्योति में प्रस्तुत छोटी-छोटी कथा-कहानियाँ एवं उनके समझने लायक आवश्यक बातें अपनी भाषा में सुनाने-समझाने के लिए घरेलू सत्संग तो चला ही सकते हैं । लोगों से घर-घर मिलने जाने और व्यक्तिगत चर्चाएँ करने से भी सत्संग का उद्देश्य पूरा हो सकता है । अशिक्षितों को इकट्ठा करने पर उनसे पृथक-पृथक मिलकर अपनी विचारधारा से परिचित कराया जा सकता है । स्वाध्याय और सत्संग ज्ञानयज्ञ के दो पहलू हैं, हमें इन्हें आरंभ कर देना चाहिए, ताकि लोगों की सोई हुई जिज्ञासा एवं अभिरुचि का जागरण हो सके । यदि उस कुम्भकरणी निद्रा से मानवी चेतना को जागाया जा सका तो वह जागरण अभूतपूर्व हलचल उत्पन्न करने वाला होगा, यह निश्चित है 

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