परम पूज्य गुरुदेव अपने जीवन की विभूतियों को ब्राह्मणत्व की साधना का सुफल मानते हैं । उन्होंने अपने शिष्यों को तप और साधना के बल पर सच्चा ब्राह्मण बनने की प्रेरणा दी और इसी आधार पर 'मानव में देवत्व' और 'धरती पर स्वर्ग' के अवतरण का उद्घोष किया । जन्म शताब्दी वर्ष (२०११-१२) की तैयारियों में जुटे हम सबको वसंत पर्व की इस पुनीत वेला में उनकी इस अंतर्वेदना को अनुभव करते हुए ब्राह्मणत्व की साधना में तत्पर हो जाना चाहिए । प्रस्तुत हैं इस संदर्भ में प.पू. गुरुदेव द्वारा समय-समय पर कहे गये विचारों का संकलन ।
''इस आड़े वख्त में संस्कृति ने ब्राह्मणत्व को पुकारा है । यदि वह कहीं जीवित हो, तो आगे आये । जाति और देश में हम वर्ण का सम्बन्ध नहीं जोड़ते । ब्राह्मण हम उन्हें कहते हैं कि जिनके मन में आदर्शवादिता के लिए इतना दर्द मौजूद हो कि वह अपनी वासना-तृष्णा से बचाकर शक्तियों का एक अंश अध्यात्म की प्राणरक्षा के लिए लगा सकें। ''
''ब्राह्मणत्व एक साधना है । मनुष्यता का सर्वोच्च सोपान है । इस साधना की ओर उन्मुख होने वाले क्षत्रिय विश्वामित्र और शूद्र ऐतरेय भी ब्राह्मण हो जाते हैं । साधना से विमुख होने पर ब्राह्मण कुमार अजामिल और धुंधकारी शूद्र हो गए । सही तो है, जन्म से कोई कब ब्राह्मण हुआ है? ब्राह्मण वह जो समाज से कम से कम लेकर उसे अधिकतम दे । स्वयं के तप, विचार और आदर्श जीवन के द्वारा अनेकों को सुपथ पर चलना सिखाए ।''
''हमारा जीवन-प्रयोग प्रत्यक्ष है । हमने सारे जीवन ब्राह्मण बनने की साधना की । इसके लिए पल-पल तपे, इंच-इंच बढ़े । जिंदगी में यज्ञोपवीत संस्कार का वह क्षण कभी नहीं भूला, जब महामना मदनमोहन मालवीय ने गायत्री महामंत्र सुनाने के साथ ही कहा था-गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है ।''
''ब्राह्मण की सही मायने में पूँजी तो विद्या और तप है, जो उसे गायत्री की साधना से मिलती है । भौतिक सुविधाओं के मामले में तो उसे सर्वथा अपरिग्रही होना चाहिए ।''
''खेद है आज अपरिग्रह को दरिद्रता समझ लिया गया, जबकि अपरिग्रह का मतलब है स्वयं पर विश्वास, समाज पर विश्वास एवं ईश्वर पर विश्वास और ब्राह्मण का जीवन इसका चरमादर्श है । जब मनुष्य का स्वयं पर, समाज पर और भगवान पर विश्वास उठ जाता है, तभी वह लालची होकर सुविधाएँ बटोरने लगता है ।''
''आज तो ब्राह्मणबीज ही इस धरती पर से समाप्त हो गया है । मेरे बेटो! तुम्हें फिर से ब्राह्मणत्व को जगाना और उसकी गरिमा का बखान कर स्वयं जीवन में उसे उतारकर जन-जन को उसे अपनाने को प्रेरित करना होगा । यदि ब्राह्मण जाग गया तो सतयुग सुनिश्चित रूप से आकर रहेगा ।''
''यह जो कलियुग दिखाई देता है, मानसिक गिरावट से आया है । मनुष्य की अधिक संग्रह करने की, संचय की वृत्ति ने ही वह स्थिति पैदा की है जिससे ब्राह्मणत्व समाप्त हो रहा है । प्रत्येक के अंदर का वह पशु जाग उठा है, जो उसे मानसिक विकृति की ओर ले जा रहा है । आवश्यकता से अधिक संग्रह मन में विक्षोभ, परिवार में कलह तथा समाज में विग्रह पैदा करता है । कलियुग मनोविकारों का युग है एवं ये मनोविकार तभी मिटेंगे जब ब्राह्मणत्व जागेगा ।''
''ब्राह्मण सूर्य की तरह तेजस्वी होता है, प्रतिकूल परिस्थितियों में भी चलता रहता है । वह कहीं रुकता नहीं, कभी आवेश में नहीं आता तथा लोभ, मोह पर सतत नियंत्रण रखता है । ब्राह्मण शब्द ब्रह्मा से बना है तथा समाज का शीर्ष माना गया है । कभी यह शिखर पर था तो वैभव गौण व गुण प्रधान माने जाते थे । जलकुंभी की तरह छा जाने वाला यही ब्राह्मण सतयुग लाता था । आज की परिस्थितियाँ इसलिए बिगड़ीं कि ब्राह्मणत्व लुप्त हो गया । भिखारी बनकर, अपने पास संग्रह करने की वृत्ति मन में रखकर उसने अपने को पदच्युत कर दिया है । उसी वर्ण को पुनः जिंदा करना होगा एवं वे लोकसेवी समुदाय में से ही उभर कर आयेंगे, चाहे जन्म से वे किसी भी जाति के हों ।''
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