रविवार, 11 अक्टूबर 2009

उठो पार्थ ! गांडीव उठाओ

वाङ्मय 'युग निर्माण योजना-दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम' (पृष्ठ २.१४ से २.१५) से संपादित 

मनुष्य के अन्तःकरण में दो प्रवृत्तियाँ रहती हैं, जिन्हें आसुरी एवं दैवी प्रकृति कहते हैं । इन दोनों में सदा परस्पर संघर्ष चलता रहता है । गीता में जिस महाभारत का वर्णन है और अर्जुन को जिसमें लड़ाया गया है, वह वस्तुतः आध्यात्मिक युद्ध ही है । आसुरी प्रवृत्तियाँ बड़ी प्रबल हैं । कौरवों के रूप में उनकी बहुत बड़ी संख्या है, सेना भी उनकी बड़ी है । पाण्डव पाँच ही थे, उनके सहायक एवं सैनिक भी थोड़े ही थे, फिर भी भगवान ने युद्ध की आवश्यकता समझी और अर्जुन से कहा-लड़ने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं । तामसिक-आसुरी प्रकृति का दमन किये बिना सतोगुणी दैवी प्रकृति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा, इसलिए लड़ना जरूरी है । अर्जुन पहले तो झंझट में पड़ने से कतराये, पर भगवान ने जब युद्ध को अनिवार्य बताया तो उसे लड़ने के लिए कटिबद्ध होना पड़ा । इस लड़ाई को इतिहासकार 'महाभारत' के नाम से पुकारते हैं । अध्यात्म की भाषा में इसे 'साधना समर' कहते हैं । 

देवासुर-संग्राम की अनेक कथाओं में उसी 'साधना समर' का अलंकारिक निरूपण है । असुर प्रबल होते हैं, देवता अपने को हारता-सा अनुभव करते हैं, वे भगवान के पास जाते हैं, प्रार्थना करते हैं, भगवान उनकी सहायता करते हैं । अन्त में असुर सारे मारे जाते हैं, देवता विजयी होते हैं । देवासुर संग्राम के अगणित पौराणिक उपाख्यानों की पृष्ठभूमि यही है । हमारा अन्तःप्रदेश ही वह धर्म क्षेत्र है, जिसमें महाभारत होता रहता है । असुर मायावी है । तमोगुण का असुर हमें माया में फँसाये रहता है । इन्द्रिय सुखों का लालच देकर वह अपना जाल फैलाता है और अपने मायापाश में जीव को बाँध लेता है । उस असुर के और भी कितने ही अस्त्र-शस्त्र हैं, जिनसे जीव को अपने वशवर्ती करके पद-दलित करने में वह सफल होता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर यह छः ऐसे ही सम्मोहन अस्त्र हैं, जिसमें मूर्छित होकर जीव बँध जाता है और वह मूर्च्छा ऐसी होती है कि उससे निकलने की इच्छा भी नहीं होती है, वरन् उसी स्थिति में पड़े रहने को जी चाहता है । 

आत्मा का कल्याण उस तम प्रवृत्ति में पड़े रहने से नहीं हो सकता, जिसमें माया-मोहित अगणित जीव पाशबद्ध स्थिति में पड़े रहते हैं । इन बन्धनों को काटे बिना कल्याण का और कोई मार्ग नहीं । आत्मा की पुकार 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की है । वह अन्धकार से प्रकाश की ओर जाना चाहती है । तम अन्धकार और सत ही प्रकाश है, उसको धारण करने का प्रयत्न ही 'साधना' है । साधना को जीवन की अनिवार्य आवश्यकता माना गया है । तम की दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा केवल इस एक ही उपाय से हो सकता है । सच्ची शांति और प्रगति का मार्ग भी यही है । 

अन्तरात्मा में निरन्तर चलने वाले देवासुर-संग्राम में तामसिकता का पक्ष भौतिक सुख-साधन इकट्ठे करते रहना और सात्विकता का पक्ष आत्म-कल्याण की दिशा में अग्रसर होने का है । जब दोनों में से कोई एक पक्ष प्रबल हो उठता है तो संग्रम में तेजी दिखाई देने लगती है । यदि असुरता प्रबल हुई तो दुष्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि होकर पतन का नारकीय परिपाक सामने आ जाता है; और यदि सुर पक्ष प्रबल हुआ तो सत्प्रवृत्तियों का उभार आता है और मनुष्य सत्पुरुष, महामानव, ऋषि एवं देवदूत बनकर पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दु्रतगति से आगे बढ़ता है । 

एक बीच की स्थिति ही, रजोगुण ही अवसाद भूमिका कहलाती है । इसमें तम और सत् दोनों मिले रहते हैं । लड़ाई बन्द हो जाती है और काम चलाऊ समझौता-सा करके दैवी और आसुरी तत्व एक ही घर में रहने लगते हैं । भले और बुरे दोनों ही तरह के काम मनुष्य करता रहता है । पाप के प्रति घृणा न रहने से, आत्मिक प्रगति की ओर कोई विशेष उत्साह न रहने से दिन काटने की जैसी स्थिति बन जाती है, जैसी कि मन्द विष पीकर मूर्छित हुए अर्द्धमृत प्राणी की होती है । मानव जीवन जैसा अलभ्य अवसर प्राप्त होने पर इस प्रकार का अवसाद चिन्ताजनक ही है । इस अवसाद की स्थिति का अन्त करना ही उचित है, देवासुर-संग्राम में अपने देवपक्ष को विजयी बनाना ही श्रेयस्कर है । तम को छोड़ें और सत् का प्रकाश ग्रहण करें, इसी में हमारा हित है, साधना में ही मनुष्य का सच्चा स्वार्थ निहित है । 

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